प्रवर्षणगिरि

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प्रवर्षणगिरि का वर्णन वाल्मीकि रामायण में हुआ है, जो होस्पेटतालुका, मैसूर में है। इसे 'प्रस्रवण गिरि' भी कहते हैं। प्राचीन किष्किंधा के निकट माल्यवान पर्वत स्थित है, जिसके एक भाग का नाम 'प्रवर्षणगिरि' है। यह किष्किंधा के विरूपाक्ष मन्दिर से चार मील दूर है।

'अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम, आजगाम सह भ्रात्रा राम: प्रस्रवणं गिरिम्'- किष्किंधा[1]

'शार्दूल मृगसंघुष्टं सिंहैर्भीमरवैवृतम्, नानागुल्मलतागूढ़ं बहुपादपसंकुलम्। ऋक्षवानरगोपुच्छैर्मार्जारैश्च निषेवितम्, मेघराशिनिभं शैलं नित्यं शुचिकरं शिवम्। तस्य शैलस्य शिखरे महतीमायतां गुहाम्, प्रत्यगृह्लात वासार्थ राम: सौमित्रिणा सह' किष्किंधा[2]

'इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता, श्वेताभि: कृष्णताम्राभि: शिलाभिरुपशोभितम्। नानाधातुसमाकीर्ण नदीदर्दुरसंयुतम्। विविधैर्वृक्षखंडैश्च चारुचित्रलतायुतम्। नानाविहग संघुष्टं मयूरवनादितम्। मालतीकुंद गुल्मैश्च सिंदुवारै: शिरीषकै:, कदंबार्जुन सर्जेश्च पुष्पितैरुपशोभिताम्, इयं च नलिनी रम्या फुल्लपंकजमंडिता, नातिदूरे गुहायानी भविष्यति नृपात्मज' किष्किंधा[3]

  • किष्किंधा 47, 10 में भी प्रस्रवण गिरि पर राम को निवास करते हुए कहा गया है-

'तं प्रस्रवणपृष्ठस्थं समासाद्याभिवाद्य च, आसीनं सहरामेण सुग्रीवमिदमब्रुवन्'

'ततो रामो जगामाशु लक्ष्मेण समन्वित:, प्रवर्षणगिरेरुर्घ्व शिखरं भूरिविस्तरम्। तत्रैकं गह्वरं दृष्टवा स्फटिकं दीप्तिमच्छुभम्, वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्, वासाय रोचयामास तत्र राम: सलक्ष्मण:। दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते मौक्तिकोपमजलौध पल्वले, चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत्'- किष्किंधा[4]

  • वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड[5] में प्रवर्षणगिरि की गुहा के निकट किसी पहाड़ी नदी का भी वर्णन है। पहाड़ी के नाम प्रवर्षण या प्रस्रवणगिरि से सूचित होता है कि यहाँ वर्षा काल में घनघोर वर्षा होती थी।[6]
  • तुलसीदास ने इसे प्रवर्षण गिरि कहा है-

'तब सुग्रीव भवन फिर आए, राम प्रवर्षण गिरि पर छाये'[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 588 |

  1. किष्किंधा 27, 1.
  2. किष्किंधा 27, 2-3-4.
  3. किष्किंधा 27, 6-8-9-10-11.
  4. किष्किंधा 4, 53-54-55.
  5. किष्किंधाकांड 27
  6. टि. वालमीकि रामायण में इस पहाड़ी को प्रस्रवण गिरि कहा गया है और उत्तर रामचरित में भवभूति ने भी इसे इसी नाम से अभिहीत किया है- 'अयमविरलानोकहनिवहनिरंतरस्निग्धनीलपरिसराण्यपरिणद्वगोदावरीमुखकंदर:, संततमभिष्यन्दमान मेघदुरित नीलिमाजनस्थान मध्यगोगिरि प्रस्रवणोनाम मेघमालेव यश्चायमारादिव विभाव्यते, गिरि: प्रस्रवण: सोऽयं यत्र गोदावरी नदी,' उत्तर राम चरित 2, 24)
  7. रामचरित मानस, किष्किंधा कांड

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