तीर्थयात्रा

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तीर्थयात्रा (अंग्रेज़ी: Pilgrimage) अर्थात धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व वाले स्थानों की यात्रा करना। विश्व में अधिकांश लोग तीर्थ स्थानों पर जाने के लिए अक्सर लम्बी और कष्टदायक यात्राएँ करते हैं। इन यात्राओं को तीर्थयात्रा कहते हैं। हिन्दू धर्म के तीर्थ प्रायः देवताओं के निवास-स्थान होते हैं। मुसलमानों के लिए मक्का और मदीना महत्त्वपूर्ण तीर्थ हैं और इन जगहों पर जीवन में एक बार जाना हर मुसलमान के लिए आवश्यक कहा गया है। हिन्दुओं में माता वैष्णों के दर्शन हेतु की जाने वाली यात्रा, अमरनाथ जी की यात्रा, मथुरा की प्रसिद्ध ब्रज चौरासी कोस की यात्रा तथा महाराष्ट्र में पण्ढरपुर की यात्रा भी महत्त्वपूर्ण तीर्थयात्राएँ हैं।

तीर्थ स्थल और तीर्थयात्रा

संसार समुद्र से पार होने की कला जहाँ पर सीखने को मिलती है, वे स्थल तीर्थ कहलाते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी होते हुए भी स्व पर कल्याण की भावना से निहित होता है और इस पुनीत भावना से वह अचेतन तीर्थों का निर्माण करता है। अर्थात् जिनायतनों की स्थापना करता है। श्रमण स्वयं को तीर्थ बनाते हुए स्व पर कल्याण की भावना से निहित होते हुए तीर्थों के निर्माण का उपदेश मात्र देते हैं, आदेश नहीं देते, न ही स्वयं स्वयं भू बनकर पूर्ण जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। तीर्थ स्थल पवित्रता, शांति एवं कल्याण के धाम होते हैं।

हमारे ऋषि-मुनि मानवी मनोविज्ञान के कुशल मर्मज्ञ यानी कि जानकार होते थे। प्राचीन ऋषि-मुनि लिबास से भले ही साधु-संत थे, किंतु सोच और कार्यशैली से पूरी तरह से वैज्ञानिक थे। दुनिया को मोक्ष का मार्ग वैदिक ऋषियों ने ही बताया। दुनिया के किसी भी धर्म की अंतिम मान्यता यही है कि आत्मज्ञान या पूर्णता की प्राप्ति ही इंसानी जिंदगी का एकमात्र अंतिम ध्याय यानी कि मकसद है। धरती पर पहली बार वैदिक ऋषियों ने धर्म को एक व्यवस्था दी और वैज्ञानिक विधि-विधान निर्मित किए। दुनिया के बाद के धर्मों ने उनकी ही व्यवस्था और धार्मिक विधि-विधान को अपनाया। उन्होंने संध्यावंदन, व्रत, वेदपाठ, तीर्थ, 24 संस्कार, उत्सव, यम-नियम, ध्यान आदि को निर्मित किया और इसे धर्म का आधार स्तंभ बनाया। उनके ही बनाए संस्कारों और नियमों को आज सभी धर्म के लोग अपना रहे हैं। धर्म के इन्हीं नियमों में से एक है- तीर्थयात्रा

तीर्थयात्रा का उद्देश्य

  1. पंच पाप एवं कषायवृत्ति का त्याग करना।
  2. व्रत, संयम, तपश्चरण में प्रवृत्ति करना।
  3. आत्म जागृति हेतु प्रयत्न करना।
  4. तत्त्वज्ञान की जानकारी प्राप्त करना।
  5. तीर्थ क्षेत्र विषयक ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक जानकारी प्राप्त करना।
  6. महापुरुषों, वीतरागी संतों की अभूतपूर्व साधना का स्मरण कर संमार्ग पर चलने का प्रयास करना।
  7. मन का शृंगार - दूसरों के प्रति दूषित विचार, ईर्ष्या की भावना न रखकर मैत्रीभाव धारण करना।
  8. वाणी का शृंगार - अपशब्द, क्रोधयुक्त वचन, अशिष्ट वचन न बोलकर हित-मित वचन बोलना।
  9. तन का शृंगार - हिंसात्मक सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री का प्रयोग न करके अपने सहधर्मियों के प्रति एवं दु:खी जीवों के प्रति सहयोग तथा करुणा की भावना रखना।

यात्रा के दौरान क्या करें

  1. समुचित जानकारी के साथ योग्य ऋतु में यात्रा प्रारम्भ करें।
  2. यात्रा के दौरान सूर्यास्त के पूर्व सात्त्विक भोजन ग्रहण करें।
  3. यात्रा के दौरान ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।
  4. सादगीपूर्ण श्वेत अथवा केशरिया, पीत परिधान ग्रहण करें।
  5. धर्मध्यान की वृद्धि के लिए पूजन, स्वाध्याय, जापमाला के साथ स्तुति-स्तोत्र, भजन का पाठ करें।
  6. अभक्ष्य पदार्थ जमीकंद, होटल भोजन, अशुद्ध पेय पदार्थ आदि का त्याग रखें।
  7. हिल-मिलकर वात्सल्य भावपूर्वक यात्रा करें।

फल

तीर्थयात्रा के फलस्वरूप परिणामों में निर्मलता आने से पुण्य वृद्धि होती है। पुण्योदय से सांसारिक सुख की प्राप्ति होती है और परम्परा से सद्गति की प्राप्ति के साथ निर्वाण की प्राप्ति भी होती है। दिगम्बर संत भी चेतन तीर्थों के रूप में जाने जाते हैं। अत: चातुर्मास के दौरान चेतन साधु की गरिमा को बनाते हुए उनकी प्रशस्त वैयावृत्ति करें एवं सदुपदेश ग्रहण कर अपना जीवन परिर्वितत कर संमार्ग का अनुसरण करें तो हमारा जीवन सफल एवं सार्थक हो सकता है।


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