गोपाल प्रथम: Difference between revisions
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शशांक की मृत्यु तथा [[हर्षवर्धन]] के पश्चात् बंगाल की राजनीतिक स्थिति काफ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस स्थिति को [[अभिलेख|अभिलेखों]] में 'मत्स्य न्याय' की संज्ञा दी गयी है, इसके अन्तर्गत अधिक शक्तिशाली व्यक्ति कमज़ोर व्यक्ति का शोषण करता था। 'खालिमपुर अभिलेख' में कहा गया है कि 'मत्स्य न्याय' से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों<ref>सामान्य जनता</ref> ने गोपाल प्रथम को लक्ष्मी का बांह ग्रहण कराई तथा उसे अपना शासक नियुक्त किया। इसके द्वारा कहाँ-कहाँ विजय प्राप्त की गईं, इस बारे में ठीक से कुछ भी ज्ञात नहीं है। तिब्बती लामा एवं इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल प्रथम ने ओदान्तपुर में एक [[बौद्ध मठ|मठ]] का निर्माण करवाया था तथा 1197 ई. में [[मुसलमान|मुसलमानों]] ने इस पर विजय प्राप्त कर ली। | शशांक की मृत्यु तथा [[हर्षवर्धन]] के पश्चात् बंगाल की राजनीतिक स्थिति काफ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस स्थिति को [[अभिलेख|अभिलेखों]] में 'मत्स्य न्याय' की संज्ञा दी गयी है, इसके अन्तर्गत अधिक शक्तिशाली व्यक्ति कमज़ोर व्यक्ति का शोषण करता था। 'खालिमपुर अभिलेख' में कहा गया है कि 'मत्स्य न्याय' से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों<ref>सामान्य जनता</ref> ने गोपाल प्रथम को लक्ष्मी का बांह ग्रहण कराई तथा उसे अपना शासक नियुक्त किया। इसके द्वारा कहाँ-कहाँ विजय प्राप्त की गईं, इस बारे में ठीक से कुछ भी ज्ञात नहीं है। तिब्बती लामा एवं इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल प्रथम ने ओदान्तपुर में एक [[बौद्ध मठ|मठ]] का निर्माण करवाया था तथा 1197 ई. में [[मुसलमान|मुसलमानों]] ने इस पर विजय प्राप्त कर ली। | ||
==राजवंश की नींव== | ==राजवंश की नींव== | ||
[[गुप्त वंश|गुप्त]] और [[पुष्यभूति वंश|पुष्यभूति वंश]] के ह्रास और अंत के बाद [[भारतवर्ष]] राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए-नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार [[तारानाथ]] और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चित रूप से सही मान लेना तो कठिन है, यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यों से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई।<ref name="nn">{{cite web |url=http:// | [[गुप्त वंश|गुप्त]] और [[पुष्यभूति वंश|पुष्यभूति वंश]] के ह्रास और अंत के बाद [[भारतवर्ष]] राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए-नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार [[तारानाथ]] और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चित रूप से सही मान लेना तो कठिन है, यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यों से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई।<ref name="nn">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE|title=गोपाल प्रथम|accessmonthday=1 अगस्त|accessyear=2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भरतखोज|language=हिन्दी}}</ref> | ||
==मत्स्यन्याय का अंत== | ==मत्स्यन्याय का अंत== | ||
संध्याकर नंदिकृत [[रामपाल]] चरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात् उत्तरी बंगाल बताया गया है। इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग<ref>दक्षिणपूर्वी बंगाल</ref>पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मत्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र [[धर्मपाल]] ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से [[गौड़|गौड़ राज्य]] को तत्कालीन [[भारत]] की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई।<ref name="nn"/> | संध्याकर नंदिकृत [[रामपाल]] चरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात् उत्तरी बंगाल बताया गया है। इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग<ref>दक्षिणपूर्वी बंगाल</ref>पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मत्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र [[धर्मपाल]] ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से [[गौड़|गौड़ राज्य]] को तत्कालीन [[भारत]] की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई।<ref name="nn"/> | ||
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गोपाल के शासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। [[मंजुश्री]] मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और [[चैत्य गृह|चैत्य]] बनवाए, बाग़ लगवाए, बाँध और पुल बनवाए तथा देवस्थान और गुफ़ाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] शासक [[वत्सराज]] का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र [[धर्मपाल]] था। | गोपाल के शासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। [[मंजुश्री]] मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और [[चैत्य गृह|चैत्य]] बनवाए, बाग़ लगवाए, बाँध और पुल बनवाए तथा देवस्थान और गुफ़ाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] शासक [[वत्सराज]] का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र [[धर्मपाल]] था। | ||
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[[गोपाल द्वितीय]] [[पाल वंश]] की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद 948 ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्य देवी था, जो [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूट]] कन्या थी। उसकी | [[गोपाल द्वितीय]] [[पाल वंश]] की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद 948 ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्य देवी था, जो [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूट]] कन्या थी। उसकी कमज़ोरी के परिणाम स्वरूप उत्तरी और [[पश्चिम बंगाल|पश्चिमी बंगाल]] पालों के हाथ से निकलकर [[हिमालय]] के उत्तरी क्षेत्रों से आने वाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित [[चंदेल वंश]] के [[यशोवर्मन|यशोवर्मा]] ने भी 953-54 ई. के आस-पास, उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ [[अभिलेख]] प्राप्त हुए हैं, जिनसे [[मगध]] और [[अंग जनपद|अंग]] मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई थी, यह ज्ञात नहीं है।<ref name="nn"/> | ||
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गोपाल प्रथम
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पूरा नाम | गोपाल प्रथम |
पिता/माता | पिता-'वप्यट' |
धार्मिक मान्यता | बौद्ध धर्म |
वंश | पाल वंश |
शासन काल | लगभग 750 - 770 ई. |
अन्य जानकारी | गोपाल के शासन की तुलना पृथु और सगर के शासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना ज़िले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। |
गोपाल प्रथम (अंग्रेज़ी-Gopala I) गौड़ (उत्तरी बंगाल) पाल वंश का प्रथम[1] राजा तथा बंगाल और बिहार पर लगभग चार शताब्दी तक शासन करने वाले पाल वंश का संस्थापक था। गोपाल प्रथम का शासन लगभग 750 से 770 ई. तक था। उसके पिता का नाम 'वप्यट' और पितामह का नाम 'दयितविष्णु' था। इन दोनों का सम्बन्ध सम्भवत: किसी राजकुल से नहीं था। पाल वंश के अधिकांश राजा बौद्ध थे। गोपाल प्रथम के द्वारा स्थापित पाल वंश ने दीर्घकाल तक शासन किया। 12वीं शताब्दी तक बंगाल-बिहार पर इस वंश के राजाओं का शासन रहा था।
मत्स्य न्याय
शशांक की मृत्यु तथा हर्षवर्धन के पश्चात् बंगाल की राजनीतिक स्थिति काफ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस स्थिति को अभिलेखों में 'मत्स्य न्याय' की संज्ञा दी गयी है, इसके अन्तर्गत अधिक शक्तिशाली व्यक्ति कमज़ोर व्यक्ति का शोषण करता था। 'खालिमपुर अभिलेख' में कहा गया है कि 'मत्स्य न्याय' से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों[2] ने गोपाल प्रथम को लक्ष्मी का बांह ग्रहण कराई तथा उसे अपना शासक नियुक्त किया। इसके द्वारा कहाँ-कहाँ विजय प्राप्त की गईं, इस बारे में ठीक से कुछ भी ज्ञात नहीं है। तिब्बती लामा एवं इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल प्रथम ने ओदान्तपुर में एक मठ का निर्माण करवाया था तथा 1197 ई. में मुसलमानों ने इस पर विजय प्राप्त कर ली।
राजवंश की नींव
गुप्त और पुष्यभूति वंश के ह्रास और अंत के बाद भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए-नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार तारानाथ और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चित रूप से सही मान लेना तो कठिन है, यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यों से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई।[3]
मत्स्यन्याय का अंत
संध्याकर नंदिकृत रामपाल चरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात् उत्तरी बंगाल बताया गया है। इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग[4]पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मत्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र धर्मपाल ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से गौड़ राज्य को तत्कालीन भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई।[3]
गोपाल के शासन की तुलना
गोपाल के शासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। मंजुश्री मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और चैत्य बनवाए, बाग़ लगवाए, बाँध और पुल बनवाए तथा देवस्थान और गुफ़ाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र धर्मपाल था।
गोपाल द्वितीय
गोपाल द्वितीय पाल वंश की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद 948 ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्य देवी था, जो राष्ट्रकूट कन्या थी। उसकी कमज़ोरी के परिणाम स्वरूप उत्तरी और पश्चिमी बंगाल पालों के हाथ से निकलकर हिमालय के उत्तरी क्षेत्रों से आने वाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित चंदेल वंश के यशोवर्मा ने भी 953-54 ई. के आस-पास, उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे मगध और अंग मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई थी, यह ज्ञात नहीं है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 134।