मांधाता: Difference between revisions
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इक्ष्वाकु वंशी मांधाता अयोध्या पर राज्य करते थे। संपूर्ण पृथ्वी को हस्तगत कर वे स्वर्ग जीतना चाहते थे। इंद्र सहित देवता बहुत घबरा गये। उन्होंने मांधाता को आधा देवराज्य देना चाहा, पर वे नहीं माने। वे संपूर्ण इंद्रलोक के इच्छुक थे। इंद्र ने कहा-
अभी तो सारी पृथ्वी ही तुम्हारे अधीन नहीं है, लवणासुर तुम्हारा कहा नहीं मानता।
मांधाता लज्जित होकर मृत्युलोक में लौट आये। उन्होंने लवण के पास दूत भजा, जिसे उसने खा लिया। फिर दोनों ओर की सेनाओं का युद्ध हुआ। लवण ने अपने त्रिशूल से राजा मांधाता और उसकी सेना को भस्म कर दिया।[1]
रात्रि होने पर शत्रुघ्न ने महर्षि च्यवन से लवणासुर के विषय में अन्य जानकारी प्राप्त की तथा पूछा कि उस शूल से कौन-कौन शूरवीर मारे गये हैं। च्यवन ऋषि बोले, 'हे रघुनन्दन! शिव जी के इस त्रिशूल से अब तक असंख्य योद्धा मारे जा चुके हैं। तुम्हारे कुल में तुम्हारे पूर्वज राजा मांधाता भी इसी के द्वारा मारे गये थे।
शत्रुघ्न द्वारा पूरा विवरण पूछे जाने पर महर्षि ने बताया, 'हे राज्! पूर्वकाल में महाराजा युवनाश्व के पुत्र महाबली मान्धाता ने स्वर्ग विजय की इच्छा से देवराज इन्द्र को युद्ध के लिये ललकारा। तब इन्द्र ने उन से कहा कि राजा!' अभी तो तुम समस्त पृथ्वी को ही वश में नहीं कर सके हो, फिर देवलोक पर आक्रमण की इच्छा क्यों करते हो? तुम पहले मधुवन निवासी लवणासुर पर विजय प्राप्त करो। यह सुनकर राजा पृथ्वी पर लौट आये और लवणासुर से युद्ध करने के लिये उसके पास अपना दूत भेजा। परन्तु उस नरभक्षी लवण ने उस दूत का ही भक्षण कर लिया। जब राजा को इसका पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर उस पर बाणों की प्रचण्ड वर्षा प्रारम्भ कर दी। उन बाणों की असह्य पीड़ा से पीड़ित हो उस राक्षस ने शंकर से प्राप्त उस शूल को उठाकर राजा का वध कर डाला। इस प्रकार उस शूल में बड़ा बल है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मान्धाता को इस शूल के विषय में कोई जानकारी नहीं थी अतः वे धोखे में मारे गये। परन्तु तुम निःसन्देह ही उस राक्षस को मारने में सफल होगे।
एक अन्य मान्यतानुसार राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। वे इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया। संतान के अभाव से संतप्त वे वन में रहकर भगवत् चिंतन करने लगे। एक बार वे शिकार खेलते विचर रहे थे। उस रात वे भूखे-प्यासे पानी की खोज में च्यवन के आश्रम में पहुँचे। च्यवन उन्हीं की संतानोंत्पति के लिए घोर तपस्या से इष्ट कर, मंत्र-पूत जल का एक कलश रखकर सो गये थें सब ऋषि-मुनि रात तें देर तक जागने के कारण इतने थककर सोये थे कि राजा के बार-बार पुकारने पर भी किसी की नींद नहीं खुली। जब च्यवन की नींद खुली तब तक राजा युवनाश्व कलश का अधिकांश जल पीकर शेष पृथ्वी पर बहा चुके थे। मुनि ने जाना तो राजा से कहा कि अब उन्हीं की कोख से बालक जन्म लेगा। सौ वर्ष उपरांत अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। देवताओं के यह पूछने पर कि अब बालक क्या पीयेगा? इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। अंगुली पीते-तीते वह तेरह बित्ता बढ़ गया। बालक ने चिंतनमात्र से धनुर्वेद सहित समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इंद्र ने उसका राज्याभिषेक किया। मांधाता ने धर्म से तीनों लोकों को नाप लिया। बारह वर्ष की अनावृष्टि के समय इंद्र के देखते-देखते मांधाता ने स्वयं पानी की वर्षा की थी।
मांधाता ने समरांगण में अंगार, मरूत, असित, गय तथा बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समस्त प्रदेश मांधाता का ही कहलाता था। उन्होंने सौ अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञ करके दस योजन लंबे और एक योजन ऊंचे रोहित नामक सोने के मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान दिये थे। दीर्घकाल तक धर्मपूर्वक राज्य करने के उपरांत मांधाता ने विष्णु के दर्शनों के निमित्त तपस्या की। वे विष्णु से कर्म का उपदेश लेकर वनगमन के लिए उद्यत थे। विष्णु ने इंद्र का रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिये तथा क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह करने का उपदेश देकर मरूतों सहित अंतर्धान हो गये।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बा0 रा0, उत्तर कांड, सर्ग 67, श्लोक 5-26
- ↑ म0 भा0, वनपर्व- 126, द्रोणपर्व- 62, शांतिपर्व- 29। 81-93, शांतिपर्व- 64-65, दे0 भा0, 7।9, विष्णुपुराण- 4।2