प्राण: Difference between revisions

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|मुख्य फ़िल्में=मधुमती (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1967), उपकार (1967), जानी मेरा नाम, (1970), परिचय (1972), विक्टोरिया नम्बर नं. 203 (1972), [[ज़ंजीर (फ़िल्म)|ज़ंजीर]] (1973), मजबूर (1974), कालिया (1981), शराबी (1984) आदि।
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==रोचक तथ्य==
==रोचक तथ्य==
;पहली फ़िल्म के मिले 50 रुपये
;पहली फ़िल्म के मिले 50 रुपये
प्राण जब मात्र 19 वर्ष के थे तो उन्होंने दलसुख पंचोली के निर्देशन में बनी पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ मे हीरो की भूमिका अदा की थी। उन्हें यह फिल्म लेखक वली मुहम्मद वली ने उस समय ऑफ़र की थी जब वह [[1939]] में [[लाहौर]] में एक [[पान]] की दुकान के बाहर खड़े हुए थे। उन्हें इस भूमिका के लिए 50 रुपये दिए गए थे।<ref name="ranchiex"/>  
प्राण जब मात्र 19 वर्ष के थे तो उन्होंने दलसुख पंचोली के निर्देशन में बनी पंजाबी फ़िल्म ‘यमला जट’ मे हीरो की भूमिका अदा की थी। उन्हें यह फ़िल्म लेखक वली मुहम्मद वली ने उस समय ऑफ़र की थी जब वह [[1939]] में [[लाहौर]] में एक [[पान]] की दुकान के बाहर खड़े हुए थे। उन्हें इस भूमिका के लिए 50 रुपये दिए गए थे।<ref name="ranchiex"/>  
;शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से लगाव
;शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से लगाव
प्राण को शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से बहुत अधिक लगाव है। एक समय में उनका घर उनकी तस्वीरों से भार हुआ था जो विभिन्न रूपों में खींची गई थीं। प्राण को [[कबीर]], [[ग़ालिब]] व [[फ़ैज़ अहमद फ़ैज़]] का लगभग पूरा कलाम याद है और वह सेट पर भी इनकी शायरी पढ़ते थे।  
प्राण को शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से बहुत अधिक लगाव है। एक समय में उनका घर उनकी तस्वीरों से भार हुआ था जो विभिन्न रूपों में खींची गई थीं। प्राण को [[कबीर]], [[ग़ालिब]] व [[फ़ैज़ अहमद फ़ैज़]] का लगभग पूरा कलाम याद है और वह सेट पर भी इनकी शायरी पढ़ते थे।  
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ताश खेलना व स्पोट्र्स भी उनको पसंद है। वह और उनकी पत्नी [[मुंबई]] के क्रिकेट क्लब आफ इंडिया में नियमित जाया करते थे। उन्होंने अनेक सेलीब्रिटी मैचों को स्वर्गीय [[पी. जयराज]] के साथ मिलकर आयोजित किया। वह [[मुंबई]] की फुटबॉल टीम डायनामो के प्रायोजक भी थे।
ताश खेलना व स्पोट्र्स भी उनको पसंद है। वह और उनकी पत्नी [[मुंबई]] के क्रिकेट क्लब आफ इंडिया में नियमित जाया करते थे। उन्होंने अनेक सेलीब्रिटी मैचों को स्वर्गीय [[पी. जयराज]] के साथ मिलकर आयोजित किया। वह [[मुंबई]] की फुटबॉल टीम डायनामो के प्रायोजक भी थे।
; सह-अभिनेत्रियाँ
; सह-अभिनेत्रियाँ
प्राण ने अपने जमाने की लगभग सभी अभिनेत्रियों के साथ काम किया। ‘खानदान (1942) में 13 वर्षीय नूरजहां तो कद में इतनी छोटी थीं कि उन्हें प्राण के साथ अभिनय करते समय ईटों पर खड़ा होना पड़ता था। [[वैजयंतीमाला]] (बहार, 1951) व [[हेलन]] (हलाकू, 1956) ने अपनी पहली फिल्म प्राण के साथ ही की थीं। हिन्दी फिल्मों के पर्दे पर खलनायक की भूमिका अदा करने वाले प्राण फिल्मोद्योग में भद्र व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वह अपने में मस्त रहते थे और आज तक किसी हीरोइन के साथ उनका स्कैंडल नहीं हुआ। सेट पर वह लतीफे सुनाते, शायरी सुनात, लेकिन जब दृश्य पूरा ही जाता तो वह अपने कमरे में जा कर अपने आप तक सीमित जाते।
प्राण ने अपने जमाने की लगभग सभी अभिनेत्रियों के साथ काम किया। ‘खानदान (1942) में 13 वर्षीय नूरजहां तो कद में इतनी छोटी थीं कि उन्हें प्राण के साथ अभिनय करते समय ईटों पर खड़ा होना पड़ता था। [[वैजयंतीमाला]] (बहार, 1951) व [[हेलन]] (हलाकू, 1956) ने अपनी पहली फ़िल्म प्राण के साथ ही की थीं। हिन्दी फ़िल्मों के पर्दे पर खलनायक की भूमिका अदा करने वाले प्राण फ़िल्मोद्योग में भद्र व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वह अपने में मस्त रहते थे और आज तक किसी हीरोइन के साथ उनका स्कैंडल नहीं हुआ। सेट पर वह लतीफे सुनाते, शायरी सुनात, लेकिन जब दृश्य पूरा ही जाता तो वह अपने कमरे में जा कर अपने आप तक सीमित जाते।
; प्रभावी खलनायकी  
; प्रभावी खलनायकी  
प्राण ने पर्दे पर अक्सर बुरे व्यक्ति की भूमिका की, इसलिए यह अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है कि वास्तव में वह कितने अच्छे व्यक्ति हैं। उनकी खलनायकी इतनी प्रभावी थी कि लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। उनके तीनों बच्चों पिंकी, अरविंद व सुनील को बहुत शर्मिंदगी होती थी जब दूसरे बच्चे प्राण को खलनायक कहते थे। उनकी बेटी पिंकी ने एक बार उनसे पूछा था कि वह फिल्मों में अच्छी भूमिकाएं क्यों नहीं करते हैं? इसलिए जब 1967 में उन्हें [[मनोज कुमार]] ने ‘उपकार’ ऑफ़र की तो उन्होंने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। यह [[हिन्दी सिनेमा]] में उनकी पहली सकारात्मक भूमिका वाली फिल्म थी।<ref name="ranchiex"/>
प्राण ने पर्दे पर अक्सर बुरे व्यक्ति की भूमिका की, इसलिए यह अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है कि वास्तव में वह कितने अच्छे व्यक्ति हैं। उनकी खलनायकी इतनी प्रभावी थी कि लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। उनके तीनों बच्चों पिंकी, अरविंद व सुनील को बहुत शर्मिंदगी होती थी जब दूसरे बच्चे प्राण को खलनायक कहते थे। उनकी बेटी पिंकी ने एक बार उनसे पूछा था कि वह फ़िल्मों में अच्छी भूमिकाएं क्यों नहीं करते हैं? इसलिए जब 1967 में उन्हें [[मनोज कुमार]] ने ‘उपकार’ ऑफ़र की तो उन्होंने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। यह [[हिन्दी सिनेमा]] में उनकी पहली सकारात्मक भूमिका वाली फ़िल्म थी।<ref name="ranchiex"/>
;मुमताज से माफ़ी माँगना
;मुमताज से माफ़ी माँगना
[[मुमताज़ (अभिनेत्री)|मुमताज़ ]] की त्वचा बहुत कोमल थी और उस पर आसानी से निशान पड़ जाते थे। चूंकि प्राण के साथ उनकी फिल्मों में उन्हें अक्सर पर्दे पर संघर्ष करते हुए दिखाया जाता था तो मुमताज के बदन पर काले व नीले निशान पड़ जाते थे। दृश्य पूरा होने के बाद प्राण को बहुत शर्मिंदगी होती थी और वह मुमताज से माफी मांगा करते थे।
[[मुमताज़ (अभिनेत्री)|मुमताज़ ]] की त्वचा बहुत कोमल थी और उस पर आसानी से निशान पड़ जाते थे। चूंकि प्राण के साथ उनकी फ़िल्मों में उन्हें अक्सर पर्दे पर संघर्ष करते हुए दिखाया जाता था तो मुमताज के बदन पर काले व नीले निशान पड़ जाते थे। दृश्य पूरा होने के बाद प्राण को बहुत शर्मिंदगी होती थी और वह मुमताज से माफी मांगा करते थे।
; हास्य के लिए प्राण का नृत्य
; हास्य के लिए प्राण का नृत्य
प्राण की एक कमजोरी यह रही कि वह [[नृत्य]] करना नहीं जानते थे। इसलिए जब फिल्म में हास्य की स्थिति उत्पन्न करनी होती तो प्राण से नृत्य कराया जाता जैसा कि ‘मुनीमजी’, ‘बल्फमास्टर’ आदि। नृत्य न करने की वजह से ही उन्होंने 6-7 फिल्मों के बाद हीरो की भूमिका करना बंद कर दिया था। फिर भी पर्दे पर गाए उनके गीत बहुत मशहूर हुए जैसे ‘यारी है ईमान मेरा’ ([[ज़ंजीर (फ़िल्म)|ज़ंजीर]] 1973), ‘राज को राज ही रहने दो’ (धर्मा 1973) या ‘कसमे वादे प्यार वफा सब’ (उपकार 1967)।<ref name="ranchiex"/>
प्राण की एक कमजोरी यह रही कि वह [[नृत्य]] करना नहीं जानते थे। इसलिए जब फ़िल्म में हास्य की स्थिति उत्पन्न करनी होती तो प्राण से नृत्य कराया जाता जैसा कि ‘मुनीमजी’, ‘बल्फमास्टर’ आदि। नृत्य न करने की वजह से ही उन्होंने 6-7 फ़िल्मों के बाद हीरो की भूमिका करना बंद कर दिया था। फिर भी पर्दे पर गाए उनके गीत बहुत मशहूर हुए जैसे ‘यारी है ईमान मेरा’ ([[ज़ंजीर (फ़िल्म)|ज़ंजीर]] 1973), ‘राज को राज ही रहने दो’ (धर्मा 1973) या ‘कसमे वादे प्यार वफा सब’ (उपकार 1967)।<ref name="ranchiex"/>
;घर के बाहर प्रशंसकों की भीड़
;घर के बाहर प्रशंसकों की भीड़
प्राण ने [[1950]] के दशक में अपना बंगला बांद्रा के यूनियन पार्क में बनवाया। इस जगह को फिल्मी दुनिया के लोग मनहूस जगह समझते थे क्योंकि इसमें रहने वाले अनेक कलाकार जैसे कॉमेडियन गोप, निर्माता राम कमलानी व संगीतकार अनिल विश्वास को जबरदस्त प्रोफेशनल घाटा उठाना पड़ा था। लेकिन प्राण ने ऐसे किसी अंधविश्वास को मानने से इंकार कर दिया। उन्हें जगह पसंद आई और उन्होंने अपने बंगले का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘पिंकी’ रख दिया। पालीहिल पर वह पहला मशहूर घर था। प्राण के घर के आगे उनके प्रशंसकों की भीड़ लगी रहती थी। बच्चे भी वहां जमा हो जाते थे। प्राण को बच्चे बहुत पसंद थे और व उन्हें अपने घर में आमंत्रित करते व उन्हें मिठाई, बिस्टुक आदि खिलाते।<ref name="ranchiex">{{cite web |url=http://ranchiexpress.com/226382 |title=प्राण के जीवन की अनसुनी बातें |accessmonthday=18 जून |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रांची एक्सप्रेस |language= हिंदी}} </ref>
प्राण ने [[1950]] के दशक में अपना बंगला बांद्रा के यूनियन पार्क में बनवाया। इस जगह को फ़िल्मी दुनिया के लोग मनहूस जगह समझते थे क्योंकि इसमें रहने वाले अनेक कलाकार जैसे कॉमेडियन गोप, निर्माता राम कमलानी व संगीतकार अनिल विश्वास को जबरदस्त प्रोफेशनल घाटा उठाना पड़ा था। लेकिन प्राण ने ऐसे किसी अंधविश्वास को मानने से इंकार कर दिया। उन्हें जगह पसंद आई और उन्होंने अपने बंगले का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘पिंकी’ रख दिया। पालीहिल पर वह पहला मशहूर घर था। प्राण के घर के आगे उनके प्रशंसकों की भीड़ लगी रहती थी। बच्चे भी वहां जमा हो जाते थे। प्राण को बच्चे बहुत पसंद थे और व उन्हें अपने घर में आमंत्रित करते व उन्हें मिठाई, बिस्टुक आदि खिलाते।<ref name="ranchiex">{{cite web |url=http://ranchiexpress.com/226382 |title=प्राण के जीवन की अनसुनी बातें |accessmonthday=18 जून |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रांची एक्सप्रेस |language= हिंदी}} </ref>
;अन्य तथ्य
;अन्य तथ्य
* देश के विभाजन के समय प्राण सिकंद [[मुंबई]] आए और इतने आत्मविश्वास से भरे थे कि उन्होंने भव्य [[ताजमहल होटल]] में कमरा लिया। उन्हें लगा कि कुछ ही दिनों में काम मिलने के बाद अपना फ्लैट खरीदेंगे, परंतु उन्हें नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा और [[लाहौर]] में सफल नायक रहे प्राण को मजबूर होकर ‘गृहस्थी’ (1948) में खलनायक की भूमिका करनी पड़ी, परंतु [[मीना कुमारी]] के साथ ‘हलाकू’ नामक फिल्म में एक बर्बर, सनकी और वहशी तानाशाह की भूमिका में उन्होंने ऐसा खौफ पैदा किया कि हर बड़ी फिल्म में उन्हें खलनायक की भूमिका मिलने लगी। ‘हलाकू’ में प्राण सिकंद ने यह सीखा कि उन्हें अपनी भूमिकाओं के लिए विशेष पोशाक, विग इत्यादि का उपयोग करना चाहिए। उनकी पोशाकें और विग उनके अभिनय का हिस्सा बन गए।<ref>{{cite web |url=http://krishiniyojan.in/bihardaily/?p=21 |title=महिला कलाकार के तौर पर प्राण ने शुरू किया कॅरियर, रामलीलाओं में बनते थे सीता मां |accessmonthday=18 जून |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=बिहार डेली न्यूज |language= हिंदी}} </ref>
* देश के विभाजन के समय प्राण सिकंद [[मुंबई]] आए और इतने आत्मविश्वास से भरे थे कि उन्होंने भव्य [[ताजमहल होटल]] में कमरा लिया। उन्हें लगा कि कुछ ही दिनों में काम मिलने के बाद अपना फ्लैट खरीदेंगे, परंतु उन्हें नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा और [[लाहौर]] में सफल नायक रहे प्राण को मजबूर होकर ‘गृहस्थी’ (1948) में खलनायक की भूमिका करनी पड़ी, परंतु [[मीना कुमारी]] के साथ ‘हलाकू’ नामक फ़िल्म में एक बर्बर, सनकी और वहशी तानाशाह की भूमिका में उन्होंने ऐसा खौफ पैदा किया कि हर बड़ी फ़िल्म में उन्हें खलनायक की भूमिका मिलने लगी। ‘हलाकू’ में प्राण सिकंद ने यह सीखा कि उन्हें अपनी भूमिकाओं के लिए विशेष पोशाक, विग इत्यादि का उपयोग करना चाहिए। उनकी पोशाकें और विग उनके अभिनय का हिस्सा बन गए।<ref>{{cite web |url=http://krishiniyojan.in/bihardaily/?p=21 |title=महिला कलाकार के तौर पर प्राण ने शुरू किया कॅरियर, रामलीलाओं में बनते थे सीता मां |accessmonthday=18 जून |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=बिहार डेली न्यूज |language= हिंदी}} </ref>
*प्राण ने लगभग 350 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन वह अपनी फिल्मों सहित बमुश्किल ही कोई फिल्म देखते थे। प्राण को ‘परिचय’ (1972) में अपनी भूमिका सबसे कठिन प्रतीत हुई, जिसमें उन्होंने एक जिद्दी, अनुशासित व्यक्ति की भूमिका अदा की थी। उनकी सबसे पसंदीदा फिल्म ‘विक्टोरिया नम्बर 203′ (1972) है जिसका निर्देशन ब्रिज ने किया था।<ref name="ranchiex"/>
*प्राण ने लगभग 350 से ज्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों सहित बमुश्किल ही कोई फ़िल्म देखते थे। प्राण को ‘परिचय’ (1972) में अपनी भूमिका सबसे कठिन प्रतीत हुई, जिसमें उन्होंने एक जिद्दी, अनुशासित व्यक्ति की भूमिका अदा की थी। उनकी सबसे पसंदीदा फ़िल्म ‘विक्टोरिया नम्बर 203′ (1972) है जिसका निर्देशन ब्रिज ने किया था।<ref name="ranchiex"/>
*[[शम्मी कपूर]] की लगभग सभी फिल्मों में प्राण ने खलनायक की भूमिका निभाई। पर्दे की इस दुश्मनी के बावजूद दोनों आपस में गहरे दोस्त थे। दोनों को ही मांसाहारी भोजन व शराब बहुत पसंद थी। प्राण के अन्य अच्छे दोस्तों में [[दिलीप कुमार]] व [[राज कपूर]] शामिल थे और वह तिकड़ी अक्सर उनके बंगले पर महफिलें जमती थीं।<ref name="ranchiex"/>
*[[शम्मी कपूर]] की लगभग सभी फ़िल्मों में प्राण ने खलनायक की भूमिका निभाई। पर्दे की इस दुश्मनी के बावजूद दोनों आपस में गहरे दोस्त थे। दोनों को ही मांसाहारी भोजन व शराब बहुत पसंद थी। प्राण के अन्य अच्छे दोस्तों में [[दिलीप कुमार]] व [[राज कपूर]] शामिल थे और वह तिकड़ी अक्सर उनके बंगले पर महफिलें जमती थीं।<ref name="ranchiex"/>


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Revision as of 12:49, 18 June 2013

चित्र:Disamb2.jpg प्राण एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- प्राण (बहुविकल्पी)
प्राण
पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद
प्रसिद्ध नाम प्राण
जन्म 12 फ़रवरी, 1920
जन्म भूमि दिल्ली
पति/पत्नी शुक्ला सिकंद
संतान अरविन्द, सुनील (पुत्र) और पिंकी (पुत्री)
कर्म भूमि मुंबई
कर्म-क्षेत्र अभिनेता
मुख्य फ़िल्में मधुमती (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1967), उपकार (1967), जानी मेरा नाम, (1970), परिचय (1972), विक्टोरिया नम्बर नं. 203 (1972), ज़ंजीर (1973), मजबूर (1974), कालिया (1981), शराबी (1984) आदि।
पुरस्कार-उपाधि दादा साहब फाल्के पुरस्कार, पद्म भूषण, विलेन ऑफ़ द मिलेनियम अवार्ड[1]
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी प्राण को तीन बार फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला है। प्राण ने लगभग 350 फ़िल्मों में काम किया।
बाहरी कड़ियाँ प्राण

प्राण कृष्ण सिकंद (अंग्रेज़ी: Pran Krishan Sikand, जन्म: 12 फरवरी, 1920) हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने नायक, खलनायक और चरित्र अभिनेता हैं। प्राण ऐसे अभिनेता हैं जिनके चेहरे पर हमेशा मेकअप रहता है और भावनाओं का तूफ़ान नज़र आता है जो अपने हर किरदार में जान डालते हुए यह अहसास करा जाता है कि उनके बिना यह किरदार बेकार हो जाता। उनकी संवाद अदायगी की शैली को आज भी लोग भूले नहीं हैं।

जीवन परिचय

प्राण का जन्म 12 फ़रवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में बसे एक रईस परिवार में प्राण का जन्म हुआ। बचपन में उनका नाम 'प्राण कृष्ण सिकंद' था। उनका परिवार बेहद समृद्ध था। प्राण बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थे। बड़े होकर उनका फोटोग्राफर बनने का इरादा था। 1940 में जब मोहम्मद वली ने पहली बार पान की दुकान पर प्राण को देखा तो उन्हें फ़िल्मों में उतारने की सोची और एक पंजाबी फ़िल्म “यमला जट” बनाई जो बेहद सफल रही। फिर क्या था इसके बाद प्राण ने कभी मुड़कर देखा ही नहीं। 1947 तक वह 20 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम कर चुके थे और एक हीरो की इमेज के साथ इंड्रस्ट्री में काम कर रहे थे हालंकि लोग उन्हें विलेन के रुप में देखना ज़्यादा पसंद करते थे।[2] thumb|left|प्राण

व्यक्तित्व

अभिनेता प्राण को दशकों तक बुरे आदमी (खलनायक) के तौर पर जाना जाता रहा और ऐसा हो भी क्यों ना, पर्दे पर उनकी विकरालता इतनी जीवंत थी कि लोग उसे ही उसकी वास्तविक छवि मानते रहे, लेकिन फ़िल्मी पर्दे से इतर प्राण असल ज़िंदगी में वे बेहद सरल, ईमानदार और दयालु व्यक्ति थे। समाज सेवा और सबसे अच्छा व्यवहार करना उनका गुण था।[2]

प्रारंभिक जीवन

प्राण की शुरुआती फ़िल्में हों या बाद की फ़िल्में उन्होंने अपने आप को कभी दोहराया नहीं। उन्होंने अपने हर किरदार के साथ पूरी ईमानदारी से न्याय किया। फिर चाहे भूमिका छोटी हो या बडी उन्होंने समानता ही रखी। प्राण को सबसे बडी सफलता 1956 में हलाकू फ़िल्म से मिली जिसमें उन्होंने डकैत हलाकू का सशक्त किरदार निभाया था। प्राण ने राज कपूर निर्मित निर्देशित जिस देश में गंगा बहती है में राका डाकू की भूमिका निभाई थी जिसमें उन्होंने केवल अपनी आँखों से ही क्रूरता ज़ाहिर कर दी थी। कभी ऐसा वक़्त भी था जब हर फ़िल्म में प्राण नज़र आते थे खलनायक के रूप में। उनके इस रूप को परिवर्तित किया था भारत कुमार यानी मनोज कुमार ने जिन्होंने अपनी निर्मित निर्देशित पहली फ़िल्म उपकार में उन्हें मलंग बाबा का रोल दिया। जिसमें वे अपाहिज की भूमिका में थे भूमिका कुछ छोटी ज़रूर थी लेकिन थी बहुत दमदार। इस फ़िल्म के लिए उनको पुरस्कृत भी किया गया था। उन पर फ़िल्माया गया कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया हुआ है। भूले भटके जब कभी यह गीत बजता हुआ कानों को सुनाई देता है तो तुरन्त याद आते हैं प्राण। ऐसा ही कुछ अमिताभ अभिनीत जंजीर में भी हुआ था। नायक के पठान दोस्त की भूमिका में उन्होंने अपने चेहरे के हाव भावों और संवाद अदायगी से जबरदस्त प्रभाव छो़डा था। इस फ़िल्म का गीत यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके नृत्य की वजह से याद किया जाता है।[3]

यादगार फ़िल्में

thumb|प्राण प्राण 1942 में बनी ‘ख़ानदान’ में नायक बन कर आए और नायिका थीं नूरजहाँ। 1947 में भारत आज़ाद हुआ और विभाजित भी। प्राण लाहौर से मुंबई आ गए। यहाँ क़रीब एक साल के संघर्ष के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म ‘जिद्दी’ मिली। अभिनय का सफर फिर चलने लगा। पत्थर के सनम, तुमसा नहीं देखा, बड़ी बहन, मुनीम जी, गंवार, गोपी, हमजोली, दस नंबरी, अमर अकबर एंथनी, दोस्ताना, कर्ज, अंधा क़ानून , पाप की दुनिया, मत्युदाता क़रीब 350 से अधिक फ़िल्मों में प्राण साहब ने अपने अभिनय के अलग-अलग रंग बिखेरे।[4] इसके अतिरिक्त प्राण कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हैं और उनकी अपनी एक फुटबॉल टीम बॉम्बे डायनेमस फुटबॉल क्लब भी है।[4]

फ़िल्म समीक्षकों की दृष्टि से

प्रख्यात फ़िल्म समीक्षक अनिरूद्ध शर्मा कहते हैं ‘‘प्राण की शुरुआती फ़िल्में देखें या बाद की फ़िल्में, उनकी अदाकारी में दोहराव कहीं नज़र नहीं आता। उनके मुंह से निकलने वाले संवाद दर्शक को गहरे तक प्रभावित करते हैं। भूमिका चाहे मामूली लुटेरे की हो या किसी बड़े गिरोह के मुखिया की हो या फिर कोई लाचार पिता हो, प्राण ने सभी के साथ न्याय किया है।’’ फ़िल्म आलोचक मनस्विनी देशपांडे कहती हैं कि वर्ष 1956 में फ़िल्म हलाकू मुख्य भूमिका निभाने वाले प्राण ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राका डाकू बने और केवल अपनी आंखों से क्रूरता ज़ाहिर की। लेकिन 1973 में ‘जंजीर’ फ़िल्म में अमिताभ बच्चन के मित्र शेरखान के रूप में उन्होंने अपनी आंखों से ही दोस्ती का भरपूर संदेश दिया। वह कहती हैं ‘‘उनकी संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली लोग अभी तक नहीं भूले हैं। कुछ फ़िल्में ऐसी भी हैं जिनमें नायक पर खलनायक प्राण भारी पड़ गए। चरित्र भूमिकाओं में भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी है।’’।[4]

सम्मान एवं पुरस्कार

प्राण को तीन बार फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। और 1997 में उन्हें फ़िल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से नवाजा गया। आज भी लोग प्राण की अदाकारी को याद करते हैं। [2] क़रीब 350 से अधिक फ़िल्मों में अभिनय के अलग अलग रंग बिखेरने वाले प्राण को हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के लिए 2001 में भारत सरकार के पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।[3]सन् 2012 के लिए भारत सरकार ने प्राण को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया।

रोचक तथ्य

पहली फ़िल्म के मिले 50 रुपये

प्राण जब मात्र 19 वर्ष के थे तो उन्होंने दलसुख पंचोली के निर्देशन में बनी पंजाबी फ़िल्म ‘यमला जट’ मे हीरो की भूमिका अदा की थी। उन्हें यह फ़िल्म लेखक वली मुहम्मद वली ने उस समय ऑफ़र की थी जब वह 1939 में लाहौर में एक पान की दुकान के बाहर खड़े हुए थे। उन्हें इस भूमिका के लिए 50 रुपये दिए गए थे।[5]

शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से लगाव

प्राण को शायरी व फ़ोटोग्राफ़ी से बहुत अधिक लगाव है। एक समय में उनका घर उनकी तस्वीरों से भार हुआ था जो विभिन्न रूपों में खींची गई थीं। प्राण को कबीर, ग़ालिबफ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का लगभग पूरा कलाम याद है और वह सेट पर भी इनकी शायरी पढ़ते थे।

खेलप्रेमी

ताश खेलना व स्पोट्र्स भी उनको पसंद है। वह और उनकी पत्नी मुंबई के क्रिकेट क्लब आफ इंडिया में नियमित जाया करते थे। उन्होंने अनेक सेलीब्रिटी मैचों को स्वर्गीय पी. जयराज के साथ मिलकर आयोजित किया। वह मुंबई की फुटबॉल टीम डायनामो के प्रायोजक भी थे।

सह-अभिनेत्रियाँ

प्राण ने अपने जमाने की लगभग सभी अभिनेत्रियों के साथ काम किया। ‘खानदान (1942) में 13 वर्षीय नूरजहां तो कद में इतनी छोटी थीं कि उन्हें प्राण के साथ अभिनय करते समय ईटों पर खड़ा होना पड़ता था। वैजयंतीमाला (बहार, 1951) व हेलन (हलाकू, 1956) ने अपनी पहली फ़िल्म प्राण के साथ ही की थीं। हिन्दी फ़िल्मों के पर्दे पर खलनायक की भूमिका अदा करने वाले प्राण फ़िल्मोद्योग में भद्र व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वह अपने में मस्त रहते थे और आज तक किसी हीरोइन के साथ उनका स्कैंडल नहीं हुआ। सेट पर वह लतीफे सुनाते, शायरी सुनात, लेकिन जब दृश्य पूरा ही जाता तो वह अपने कमरे में जा कर अपने आप तक सीमित जाते।

प्रभावी खलनायकी

प्राण ने पर्दे पर अक्सर बुरे व्यक्ति की भूमिका की, इसलिए यह अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है कि वास्तव में वह कितने अच्छे व्यक्ति हैं। उनकी खलनायकी इतनी प्रभावी थी कि लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। उनके तीनों बच्चों पिंकी, अरविंद व सुनील को बहुत शर्मिंदगी होती थी जब दूसरे बच्चे प्राण को खलनायक कहते थे। उनकी बेटी पिंकी ने एक बार उनसे पूछा था कि वह फ़िल्मों में अच्छी भूमिकाएं क्यों नहीं करते हैं? इसलिए जब 1967 में उन्हें मनोज कुमार ने ‘उपकार’ ऑफ़र की तो उन्होंने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। यह हिन्दी सिनेमा में उनकी पहली सकारात्मक भूमिका वाली फ़िल्म थी।[5]

मुमताज से माफ़ी माँगना

मुमताज़ की त्वचा बहुत कोमल थी और उस पर आसानी से निशान पड़ जाते थे। चूंकि प्राण के साथ उनकी फ़िल्मों में उन्हें अक्सर पर्दे पर संघर्ष करते हुए दिखाया जाता था तो मुमताज के बदन पर काले व नीले निशान पड़ जाते थे। दृश्य पूरा होने के बाद प्राण को बहुत शर्मिंदगी होती थी और वह मुमताज से माफी मांगा करते थे।

हास्य के लिए प्राण का नृत्य

प्राण की एक कमजोरी यह रही कि वह नृत्य करना नहीं जानते थे। इसलिए जब फ़िल्म में हास्य की स्थिति उत्पन्न करनी होती तो प्राण से नृत्य कराया जाता जैसा कि ‘मुनीमजी’, ‘बल्फमास्टर’ आदि। नृत्य न करने की वजह से ही उन्होंने 6-7 फ़िल्मों के बाद हीरो की भूमिका करना बंद कर दिया था। फिर भी पर्दे पर गाए उनके गीत बहुत मशहूर हुए जैसे ‘यारी है ईमान मेरा’ (ज़ंजीर 1973), ‘राज को राज ही रहने दो’ (धर्मा 1973) या ‘कसमे वादे प्यार वफा सब’ (उपकार 1967)।[5]

घर के बाहर प्रशंसकों की भीड़

प्राण ने 1950 के दशक में अपना बंगला बांद्रा के यूनियन पार्क में बनवाया। इस जगह को फ़िल्मी दुनिया के लोग मनहूस जगह समझते थे क्योंकि इसमें रहने वाले अनेक कलाकार जैसे कॉमेडियन गोप, निर्माता राम कमलानी व संगीतकार अनिल विश्वास को जबरदस्त प्रोफेशनल घाटा उठाना पड़ा था। लेकिन प्राण ने ऐसे किसी अंधविश्वास को मानने से इंकार कर दिया। उन्हें जगह पसंद आई और उन्होंने अपने बंगले का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘पिंकी’ रख दिया। पालीहिल पर वह पहला मशहूर घर था। प्राण के घर के आगे उनके प्रशंसकों की भीड़ लगी रहती थी। बच्चे भी वहां जमा हो जाते थे। प्राण को बच्चे बहुत पसंद थे और व उन्हें अपने घर में आमंत्रित करते व उन्हें मिठाई, बिस्टुक आदि खिलाते।[5]

अन्य तथ्य
  • देश के विभाजन के समय प्राण सिकंद मुंबई आए और इतने आत्मविश्वास से भरे थे कि उन्होंने भव्य ताजमहल होटल में कमरा लिया। उन्हें लगा कि कुछ ही दिनों में काम मिलने के बाद अपना फ्लैट खरीदेंगे, परंतु उन्हें नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा और लाहौर में सफल नायक रहे प्राण को मजबूर होकर ‘गृहस्थी’ (1948) में खलनायक की भूमिका करनी पड़ी, परंतु मीना कुमारी के साथ ‘हलाकू’ नामक फ़िल्म में एक बर्बर, सनकी और वहशी तानाशाह की भूमिका में उन्होंने ऐसा खौफ पैदा किया कि हर बड़ी फ़िल्म में उन्हें खलनायक की भूमिका मिलने लगी। ‘हलाकू’ में प्राण सिकंद ने यह सीखा कि उन्हें अपनी भूमिकाओं के लिए विशेष पोशाक, विग इत्यादि का उपयोग करना चाहिए। उनकी पोशाकें और विग उनके अभिनय का हिस्सा बन गए।[6]
  • प्राण ने लगभग 350 से ज्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों सहित बमुश्किल ही कोई फ़िल्म देखते थे। प्राण को ‘परिचय’ (1972) में अपनी भूमिका सबसे कठिन प्रतीत हुई, जिसमें उन्होंने एक जिद्दी, अनुशासित व्यक्ति की भूमिका अदा की थी। उनकी सबसे पसंदीदा फ़िल्म ‘विक्टोरिया नम्बर 203′ (1972) है जिसका निर्देशन ब्रिज ने किया था।[5]
  • शम्मी कपूर की लगभग सभी फ़िल्मों में प्राण ने खलनायक की भूमिका निभाई। पर्दे की इस दुश्मनी के बावजूद दोनों आपस में गहरे दोस्त थे। दोनों को ही मांसाहारी भोजन व शराब बहुत पसंद थी। प्राण के अन्य अच्छे दोस्तों में दिलीप कुमारराज कपूर शामिल थे और वह तिकड़ी अक्सर उनके बंगले पर महफिलें जमती थीं।[5]


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आधिकारिक वेबसाइट
  2. 2.0 2.1 2.2 हिन्दी सिनेमा का एक तारा – प्राण (हिन्दी) (पी.एच.पी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 14 फ़रवरी, 2011
  3. 3.0 3.1 संवाद अदायगी के गुरु रहे हैं प्राण (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) ख़ास खबर। अभिगमन तिथि: 12 फ़रवरी, 2011
  4. 4.0 4.1 4.2 प्राण की संवाद अदायगी के कायल लोग (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) समय लाइव। अभिगमन तिथि: 14 फ़रवरी, 2011
  5. 5.0 5.1 5.2 5.3 5.4 5.5 प्राण के जीवन की अनसुनी बातें (हिंदी) रांची एक्सप्रेस। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2013।
  6. महिला कलाकार के तौर पर प्राण ने शुरू किया कॅरियर, रामलीलाओं में बनते थे सीता मां (हिंदी) बिहार डेली न्यूज। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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