मरसिया: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''मरसिया''' [[उर्दू साहित्य]] में [[करुण रस]] से भरी हुई शोकपूर्ण [[कविता]] को कहा जाता है। [[अरबी भाषा|अरबी]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] की पद्धति पर [[उर्दू]] का वह शोक-गीत जो किसी मृत व्यक्ति की याद में लिखा जाय, 'मरसिया' कहलाता है। परंतु इसका विशिष्ट अर्थ भी है। उर्दू काव्य में जब केवल 'मरसिया' शब्द का प्रयोग किया जाय, | '''मरसिया''' [[उर्दू साहित्य]] में [[करुण रस]] से भरी हुई शोकपूर्ण [[कविता]] को कहा जाता है। [[अरबी भाषा|अरबी]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] की पद्धति पर [[उर्दू]] का वह शोक-गीत जो किसी मृत व्यक्ति की याद में लिखा जाय, 'मरसिया' कहलाता है। परंतु इसका विशिष्ट अर्थ भी है। उर्दू काव्य में जब केवल 'मरसिया' शब्द का प्रयोग किया जाय, तो प्राय: उसका तात्पर्य [[हज़रत मुहम्मद साहब]] के नवासे इमाम हुसेन और उनके साथियों की स्मृति में लिखे शोक गीत से होता है, जो कर्बला के मैदान में सत्य की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे। किन्तु मरसिये का महत्त्व केवल इस धार्मिक कारण से ही नहीं है, बल्कि इस ढाँचे में उर्दू कवियों ने बहुत-से विषय सम्मिलित करके इसे काव्य का बहुत महत्त्वपूर्ण रूप बना दिया है। | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
==प्रारम्भिक काल== | ==प्रारम्भिक काल== |
Latest revision as of 11:47, 26 May 2015
मरसिया उर्दू साहित्य में करुण रस से भरी हुई शोकपूर्ण कविता को कहा जाता है। अरबी-फ़ारसी की पद्धति पर उर्दू का वह शोक-गीत जो किसी मृत व्यक्ति की याद में लिखा जाय, 'मरसिया' कहलाता है। परंतु इसका विशिष्ट अर्थ भी है। उर्दू काव्य में जब केवल 'मरसिया' शब्द का प्रयोग किया जाय, तो प्राय: उसका तात्पर्य हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसेन और उनके साथियों की स्मृति में लिखे शोक गीत से होता है, जो कर्बला के मैदान में सत्य की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे। किन्तु मरसिये का महत्त्व केवल इस धार्मिक कारण से ही नहीं है, बल्कि इस ढाँचे में उर्दू कवियों ने बहुत-से विषय सम्मिलित करके इसे काव्य का बहुत महत्त्वपूर्ण रूप बना दिया है।
प्रारम्भिक काल
मरसिये उर्दू में प्रारम्भिक काल से ही पाये जाते हैं। कुछ लोगों का तो यह मत है कि उर्दू में काव्य रचना का आरम्भ मरसिये से ही हुआ। 'सौदा' और 'मीर' के युग से कई सौ वर्ष पूर्व के मरसिये भारत और इंगलिस्तान के भिन्न-भिन्न पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं। लखनऊ पहुँच कर मरसिये ने नया रूप धारण किया और मीर जमीर तथा उनके समकालीन फ़सीह एवं खलीक़ ने इस शोक गीत को महाकाव्य के एक ऐसे मार्ग पर लगाया, जो महाकाव्य[1]-के यूनानी रूप से मिलता-जुलता है। इसे कई भागों में विभाजित करके इन कवियों ने इनमें अलग-अलग प्राकृतिक-चित्रण, युद्ध का दृश्य, घोड़े, तलवार और तलवार चलाने की प्रशंसा तथा वीरों का अपनी वीरता का वर्णन आदि बातें सम्मिलित करके उसकी सुन्दरता और बढ़ा दी।[2]
प्रमुख कवि
बाद के समय में जिन कवियों ने मरसिये लिखे, उनके पाण्डित्य एवं प्रकृति-प्रदत्त काव्यगत विशेषताओं ने मरसिये को और उच्च शिखर पर पहुँचा दिया। इन कवियों में मीर अनीस का नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त मिर्ज़ा दबीर, मीर इश्क़, मीर तअश्शुक और मोनिस उच्च श्रेणी के मरसिया लिखने वाले समझे जाते हैं। इनके बाद की पीढ़ी के मरसिया लिखने वालों में मीर अनीस के सुपुत्र मीर नफीस और नाती रशीद, वहीद तथा दबीर के बेटे औज के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। प्यारे साहब, रशीद मरसियों में एक नवीन विषय 'बहार' का मनोहर वर्णन करके अपनी अद्वितीय प्रतिभा का परिचय देते हैं। ये इसके लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। आधुनिक काल में जोश, आले रज़ा, आरजू और नसीम अमरोहवी, मरसिया लिखने वालों में बहुत प्रसिद्ध हैं।
मुसद्दस आकृति
लखनऊ स्कूल के पहले उर्दू में मरसियों का कोई रूप निश्चित नहीं था। लोग 'मुरब्बा' (चार मिसरे), 'मुसल्लम' (तीन मिसरे) और 'ग़ज़ल' इत्यादि से ही मरसिये कहते थे। लखनऊ में मुसद्दस की आकृति मरसिये के लिए निश्चित हो गयी और इसके पश्चात् मरसिया मुसद्दस में ही लिखा जाने लगा।
उर्दू मरसिये
प्रेम और आशिकी के विषय में अलग होकर उर्दू मरसिये ने यह दिखाया कि मानव-सम्बन्ध में बहुत-से ऐसे भी सम्बन्ध हैं, जिनका लगाव यौन आकर्षण के आधार पर नहीं है, जैसे- भाई-बहन का प्रेम, स्वामी-सेवक का प्रेम आदि। इस सब सम्बन्धों को मरसिये ने उभारा, नहीं तो मानव-जीवन के कितने ही पहलुओं से उर्दू-काव्य वंचित रह जाता।[2]
सभ्यता और संस्कृति की झाँकियाँ
मरसिये में यद्यपि प्राय: इमाम हुसेन के घराने की उन घटनाओं का वर्णन होता है, जो कर्वला के मैदान में घटित हुईं, परंतु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उन मरसियों में 19वीं शताब्दी के ऊँचे घरानों की सभ्यता और संस्कृति की झाँकियाँ मिलती हैं। छोटा भाई बड़े भाई का जैसा आदर करता है, भानजे मामा के प्रति जिस प्रकार की श्रद्धा रखते हैं, वृद्ध जिस प्रकार अपने छोटों से पेश आते हैं, एक परिवार में सब लोग एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और शुभचिंतना करते हैं, स्त्रियाँ जिस प्रकार बातचीत करती हैं, इन सब का वर्णन मरसिये में इस प्रकार किया गया है कि 19वीं शताब्दी के नवाबी घरानों के चित्र दृष्टि के सामने आ जाते हैं। यात्रा की तैयारी, विवाह और उसके रस्म-रिवाज इत्यादि वर्णनों के द्वारा मरसिया सामाजिक जीवन के ऐसे नमूने पेश करता है, जो उर्दू कविता में और कहीं नहीं मिलते।
वर्णित विषय
प्रकृति-वर्णन उर्दू में मरसिये में ही मिलता है। बहार और खिजाँ (पतझड़), प्रात: और सन्ध्या, गर्मी और धूप के सैकड़ों दृश्य पेश करके उर्दू में दृश्य-चित्रण की वृद्धि मरसिये द्वारा ही हुई है और वीरता, साहस तथा युद्ध के कार्यों का ऐसे ढंग से वर्णन किया गया है कि उर्दू में महाकाव्य (रजमिया) का श्री गणेश हुआ। यह नहीं कि युद्ध के मैदान का चित्र और बाजों का जोर-शोर दिखाकर ही यह क्रम समाप्त हो जाता है, बल्कि मरसियों में लड़ाई के दृश्य विस्तारपूर्वक वर्णित किये गये हैं, जिनमें लड़ने- वालों का मैदान में आना, नारा लगाना, शत्रुओं का सामना करना, लड़ने वालों का एक-दूसरों पर वार करना, भिन्न-भिन्न हथियारों के प्रयोग आदि का वर्णन मरसिये में मिलता है।[2]
उर्दू काव्य में योगदान
मरसिये ने उर्दू काव्य को एक संकुचित दुनिया से निकालकर विस्तृत संसार दिखाया। चरित्र-चित्रण, कथनोपकथन या संलाप, स्वाभाविक शिक्षा, नये शब्दों और मुहावरों के प्रयोग से उसे विस्तृत रूप दिया गया है। युद्ध क्षेत्र का वर्णन लिखकर उसने ग़ज़ल से पैदा हुए विलासिता के वातावरण में उत्साह, उमंग और पौरुष के भाव प्रविष्ट किये है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मरसिये ने उर्दू शायरी को जिस उच्चता पर पहुँचाया, उसको जितने गुणों से सम्पन्न किया, किसी और काव्य के रूप ने नहीं किया।
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
|
|
|
|
|