वासवदत्ता: Difference between revisions

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एक बार भिक्षु उपगुप्त अपने विहार में निद्रालीन थे। अचानक विहार का उत्तरी भाग नूपुर की झंकार से गूंज उठा। थोड़ी देर में एक सुन्दरी विहार में आई। भिक्षु [[उपगुप्त]] उसे देखकर चौंक उठे। उन्होंने देखा कि [[घी]] का [[दीपक]] लिए उस नगर की प्रख्यात नर्तकी वासवदत्ता उनके सामने खड़ी है। उपगुप्त ने चौंककर उसके आने का कारण पूछा। बड़े विनय भाव से वासवदत्ता ने कहा- "हे महान् भिक्षु, मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे भवन में पधारकर उसे पवित्र करें। मेरा भवन इतना सुन्दर है कि राजकुमारों के लिए भी वह दुर्लभ है। आप उस भवन में रहने के लिए ही बनाए गए हैं। मैंने आपके लिए [[पुष्प]] की शैया निर्मित की है।" यह कहते-कहते वासदत्ता ने बड़े प्रेमपूर्वक भिक्षु का हाथ पकड़ लिया।<ref>{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/astro/holy-discourse/moral-stories/rtf1ansiansicpg1252deff0deflang1033fonttblf0fswissfcharset0cpg-8534-mangalf1fnil-ms-sans-serifcolortbl-red0green0blue0viewkind4uc1pardcf1f0fs20u2349u2367u2325u2381u2359u2369-u2324u2352-u2360u2369u2306u2342u2352u2368-parf1par/articleshow/1419172.cms|title=भिक्षु और सुन्दरी|accessmonthday= 15 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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भिक्षु उपगुप्त ने अपना हाथ खींचते हुए बड़े ही कोमल भाव से कहा- "हे देवी, आप अभी लौट जाएँ। मेरे आने का उचित समय अभी नहीं है। ठीक समय पर मैं स्वयं आपके पास चला आऊँगा, यह मेरा वचन है।" देखते-देखते काफ़ी समय बीत गया। एक सूने पथ पर भिक्षु उपगुप्त चले जा रहे थे कि उन्होंने देखा एक प्रौढ़ा रमणी बेसुध सी पड़ी है और उसके चेहरे पर चेचक के फफोले हैं। भिक्षु उपगुप्त ने उसके मुख पर शीतल [[जल]] छिड़का। उस नारी ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं और कराहते हुए पूछा- "हे करुणासागर, आप कौन हैं? मुझे नगरवासियों ने छूत के भय से नगर की सीमा के बाहर फेंक दिया है, क्योंकि मुझे चेचक हो गई है। लेकिन आपने इस समय मुझ पर अपनी इतनी कृपा क्यों और कैसे की?"
भिक्षु उपगुप्त ने अपना हाथ खींचते हुए बड़े ही कोमल भाव से कहा- "हे देवी, आप अभी लौट जाएँ। मेरे आने का उचित समय अभी नहीं है। ठीक समय पर मैं स्वयं आपके पास चला आऊँगा, यह मेरा वचन है।" देखते-देखते काफ़ी समय बीत गया। एक सूने पथ पर भिक्षु उपगुप्त चले जा रहे थे कि उन्होंने देखा एक प्रौढ़ा रमणी बेसुध सी पड़ी है और उसके चेहरे पर चेचक के फफोले हैं। भिक्षु उपगुप्त ने उसके मुख पर शीतल [[जल]] छिड़का। उस नारी ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कराहते हुए पूछा- "हे करुणासागर, आप कौन हैं? मुझे नगरवासियों ने छूत के भय से नगर की सीमा के बाहर फेंक दिया है, क्योंकि मुझे चेचक हो गई है। लेकिन आपने इस समय मुझ पर अपनी इतनी कृपा क्यों और कैसे की?"
====वासवदत्ता का उद्धार====
====वासवदत्ता का उद्धार====
भिक्षु उपगुप्त के नेत्रों में करुणा छलक उठी। वे बोले- "हे वासवदत्ते मैं हूँ भिक्षु [[उपगुप्त]]। मैं अपने वचन के अनुसार आज आ गया हूँ, क्योंकि यही मेरे आने का उपयुक्त अवसर है।" भिक्षु की करुणा में एक निस्पृहता की ऐसी मधुर गंध महक रही थी कि वासवदत्ता का मोह-मुग्ध जीवन ज्ञान की अमर ज्योति से जगमग हो उठा। वह देह ज्ञान से ऊपर उठ आत्मज्ञान की ओर बढ़ चली। उसे मुक्ति का मार्ग मिल गया था।
भिक्षु उपगुप्त के नेत्रों में करुणा छलक उठी। वे बोले- "हे वासवदत्ते मैं हूँ भिक्षु [[उपगुप्त]]। मैं अपने वचन के अनुसार आज आ गया हूँ, क्योंकि यही मेरे आने का उपयुक्त अवसर है।" भिक्षु की करुणा में एक निस्पृहता की ऐसी मधुर गंध महक रही थी कि वासवदत्ता का मोह-मुग्ध जीवन ज्ञान की अमर ज्योति से जगमग हो उठा। वह देह ज्ञान से ऊपर उठ आत्मज्ञान की ओर बढ़ चली। उसे मुक्ति का मार्ग मिल गया था।

Latest revision as of 05:22, 4 February 2021

वासवदत्ता मथुरा की एक प्रसिद्ध गणिका थी, जो बौद्ध धर्म के रूपवान और प्रतिभाशाली धर्माचार्य उपगुप्त पर आसक्त हो गई थी। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली थे। वह किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये थे। जब वासवदत्ता उपगुप्त पर आसक्त हो गई, तब उसने उपगुप्त को अपने घर आने के लिए कहा। इस पर उपगुप्त ने कहा कि- "अभी वह समय नहीं आया है। मैं उचित समय पर स्वयं तुम्हारे घर आ जाऊँगा।"

  • बौद्ध ग्रंथों में वैशाली की नगरवधू आम्रपाली भगवान बुद्ध द्वारा कृतार्थ हुई थी और वासवदत्ता धर्माचार्य उपगुप्त द्वारा।
  • मथुरा की यह गणिका उसी नाम की 'अवंतिकुमारी' तथा 'वत्सराज उदयन' की प्रिय रानी वासवदत्ता से भिन्न और उसकी परवर्ती थी।

संक्षिप्त कथा

एक बार भिक्षु उपगुप्त अपने विहार में निद्रालीन थे। अचानक विहार का उत्तरी भाग नूपुर की झंकार से गूंज उठा। थोड़ी देर में एक सुन्दरी विहार में आई। भिक्षु उपगुप्त उसे देखकर चौंक उठे। उन्होंने देखा कि घी का दीपक लिए उस नगर की प्रख्यात नर्तकी वासवदत्ता उनके सामने खड़ी है। उपगुप्त ने चौंककर उसके आने का कारण पूछा। बड़े विनय भाव से वासवदत्ता ने कहा- "हे महान् भिक्षु, मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे भवन में पधारकर उसे पवित्र करें। मेरा भवन इतना सुन्दर है कि राजकुमारों के लिए भी वह दुर्लभ है। आप उस भवन में रहने के लिए ही बनाए गए हैं। मैंने आपके लिए पुष्प की शैया निर्मित की है।" यह कहते-कहते वासदत्ता ने बड़े प्रेमपूर्वक भिक्षु का हाथ पकड़ लिया।[1]

भिक्षु उपगुप्त ने अपना हाथ खींचते हुए बड़े ही कोमल भाव से कहा- "हे देवी, आप अभी लौट जाएँ। मेरे आने का उचित समय अभी नहीं है। ठीक समय पर मैं स्वयं आपके पास चला आऊँगा, यह मेरा वचन है।" देखते-देखते काफ़ी समय बीत गया। एक सूने पथ पर भिक्षु उपगुप्त चले जा रहे थे कि उन्होंने देखा एक प्रौढ़ा रमणी बेसुध सी पड़ी है और उसके चेहरे पर चेचक के फफोले हैं। भिक्षु उपगुप्त ने उसके मुख पर शीतल जल छिड़का। उस नारी ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कराहते हुए पूछा- "हे करुणासागर, आप कौन हैं? मुझे नगरवासियों ने छूत के भय से नगर की सीमा के बाहर फेंक दिया है, क्योंकि मुझे चेचक हो गई है। लेकिन आपने इस समय मुझ पर अपनी इतनी कृपा क्यों और कैसे की?"

वासवदत्ता का उद्धार

भिक्षु उपगुप्त के नेत्रों में करुणा छलक उठी। वे बोले- "हे वासवदत्ते मैं हूँ भिक्षु उपगुप्त। मैं अपने वचन के अनुसार आज आ गया हूँ, क्योंकि यही मेरे आने का उपयुक्त अवसर है।" भिक्षु की करुणा में एक निस्पृहता की ऐसी मधुर गंध महक रही थी कि वासवदत्ता का मोह-मुग्ध जीवन ज्ञान की अमर ज्योति से जगमग हो उठा। वह देह ज्ञान से ऊपर उठ आत्मज्ञान की ओर बढ़ चली। उसे मुक्ति का मार्ग मिल गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भिक्षु और सुन्दरी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अक्टूबर, 2013।

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