चंद्रगुप्त प्रथम: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 22: | Line 22: | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{गुप्त राजवंश}} | {{गुप्त राजवंश}} | ||
{{भारत के राजवंश}} | |||
[[Category:नया पन्ना]] | [[Category:नया पन्ना]] | ||
[[Category:इतिहास_कोश]] | |||
[[Category:इतिहास_कोश]][[Category:गुप्त_काल]]__INDEX__ | [[Category:गुप्त_काल]] | ||
[[Category:भारत के राजवंश]] | |||
__INDEX__ |
Revision as of 14:03, 28 September 2010
नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य को स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है । गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ । द्वितीय राजा महाराज गुप्त था । उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई. में पाटलिपुत्र का शासक हुआ । उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई । वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था । [1]
- इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी ।
- चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत चलाया ,जिसे गुप्त संवत कहा जाता है । यह संवत गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा बाद में उस का चलन नहीं रहा ।
- घटोत्कच के बाद महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम हुए। गुप्त वंश के पहले दो राजा केवल महाराज कहे गए हैं। पर चंद्रगुप्त को 'महाराजाधिराज' कहा गया है। इससे प्रतीत होता है, कि उसके समय में गुप्त वंश की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।
- प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था। पर 'महाराजाधिराज' केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों। प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी। पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था, और मगध तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था। इन्हीं विजयों और राज्य विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया सम्वत चलाया था, जो गुप्त सम्वत् के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।
- मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया। कुषाण काल के पश्चात इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था। इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छविकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया, और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी 'लिच्छवि-दौहित्र' (कुमारदेवी के पुत्र) समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया।
- ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में लिच्छवि गण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे। गणराज्यों के इतिहास में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। कुमारदेवी लिच्छवि राजा की पुत्री और उत्तराधिकारी थी। इसीलिए चंद्रगुप्त के साथ विवाह हो जाने के बाद गुप्त राज्य और लिच्छवि गण मिलकर एक हो गए थे।
- चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है। सिक्के के दूसरी ओर 'लिच्छवयः' शब्द भी उत्कीर्ण है। इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्व का था। इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था।
- श्रीगुप्त के वंशजों का शासन किन प्रदेशों पर स्थापित हो गया था, इस सम्बन्ध में पुराणों में लिखा है, कि 'गंगा के साथ-साथ प्रयाग तक व मगध तथा अयोध्या में इन्होंने राज्य किया।
- चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को बहुत बढ़ा लिया था। अतः पुराणों का यह निर्देश उसके पूर्वजों के विषय में ही है। सम्भवतः महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम बंगाल से प्रारम्भ कर पश्चिम में अयोध्या और प्रयाग तक के विशाल प्रदेश का स्वामी था, और लिच्छवियों के सहयोग से ही इस पर अबाधित रूप से शासन करता था। इस प्रतापी गुप्त सम्राट का सम्भावित शासन काल 315 या 319 से 328 से 335 ई. तक था।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'अनुगंगाप्रयागं च साकेतं मगधान्स्तथा ।
एतांजनपदान्सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजः । ।'