दयाकिशन सप्रू: Difference between revisions

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अंग्रेज़ों का जमाना था और उस दौर में बी.ए. करने के बाद युवा दयाकिशन सप्रू ने पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में ठेकेदारी शुरू कर दी थी। उसी समय उनके फुफेरे भाई फ़िल्मी पर्दे पर दिखाई देने लगे। दया से भी उनके साथी कॉलेज के जमाने से कह रहे थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के ऊंचे कद, गोरे-चिट्टे और नीली आँखों वाले इस कश्मीरी लड़के को फ़िल्मों में जाना चाहिए। ऐसे में अक्सर रूपहले पर्दे की कशिश दयाकिशन को अपनी ओर खींचने लगती थी। एक दिन दयाकिशन [[मुंबई]] जा पहुंचे, फ़िल्मों में हाथ आजमाने के लिए। वह साल था [[1944]]। उनके फुफेरे भाई ओंकारनाथ धर उर्फ जीवन ने दयाकिशन को फ़िल्म निर्माताओं से खुद जाकर बात करने की सलाह दी। दयाशिन [[वी. शांताराम]] से मिलने प्रभात स्टूडियो जा पहुँचे। कमरे के बाहर बैठे दयाकिशन पर नजर पड़ी तो वी. शांताराम ने उन्हें बुला लिया। जब दयाकिशन ने अपना परिचय देने के लिए बोलना शुरू किया तो मंत्रमुग्ध वी. शांताराम उनकी गरजदार आवाज़ को सुनते रहे। वी. शांताराम [[हिन्दी]], पंजाबी, अंग्रेज़ी और उर्दू में धाराप्रवाह बात करने वाले इस जवान से खासे प्रभावित हुए। नतीजा यह हुआ की वी. शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'रामशास्त्री' के लिए दयाकिशन को चुन लिया। यही दयाकिशन आगे चलकर 'सप्रू' के रूप में मशहूर हुए।<ref name="a">आभार- अमर उजाला, कभी यमराज कभी देवता, 10 जुलाई-2016</ref>
अंग्रेज़ों का जमाना था और उस दौर में बी.ए. करने के बाद युवा दयाकिशन सप्रू ने पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में ठेकेदारी शुरू कर दी थी। उसी समय उनके फुफेरे भाई फ़िल्मी पर्दे पर दिखाई देने लगे। दया से भी उनके साथी कॉलेज के जमाने से कह रहे थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के ऊंचे कद, गोरे-चिट्टे और नीली आँखों वाले इस कश्मीरी लड़के को फ़िल्मों में जाना चाहिए। ऐसे में अक्सर रूपहले पर्दे की कशिश दयाकिशन को अपनी ओर खींचने लगती थी। एक दिन दयाकिशन [[मुंबई]] जा पहुंचे, फ़िल्मों में हाथ आजमाने के लिए। वह साल था [[1944]]। उनके फुफेरे भाई ओंकारनाथ धर उर्फ जीवन ने दयाकिशन को फ़िल्म निर्माताओं से खुद जाकर बात करने की सलाह दी। दयाशिन [[वी. शांताराम]] से मिलने प्रभात स्टूडियो जा पहुँचे। कमरे के बाहर बैठे दयाकिशन पर नजर पड़ी तो वी. शांताराम ने उन्हें बुला लिया। जब दयाकिशन ने अपना परिचय देने के लिए बोलना शुरू किया तो मंत्रमुग्ध वी. शांताराम उनकी गरजदार आवाज़ को सुनते रहे। वी. शांताराम [[हिन्दी]], पंजाबी, अंग्रेज़ी और उर्दू में धाराप्रवाह बात करने वाले इस जवान से खासे प्रभावित हुए। नतीजा यह हुआ की वी. शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'रामशास्त्री' के लिए दयाकिशन को चुन लिया। यही दयाकिशन आगे चलकर 'सप्रू' के रूप में मशहूर हुए।<ref name="a">आभार- अमर उजाला, कभी यमराज कभी देवता, 10 जुलाई-2016</ref>
==सफलता तथा विवाह==
==सफलता तथा विवाह==
सप्रू की पहली फ़िल्म 'रामशास्त्री' में उन्होंने [[पेशवा]] का छोटा-सा रोल किया। यह फ़िल्म अपने समय की हिट फ़िल्म थी। प्रभात की ही अगली फ़िल्म 'लाखारानी' में उन्हें बतौर हीरो लिया गया और वेतन तय हुआ तीन हज़ार [[रुपया|रुपये]]। इतनी बड़ी रकम की उन दिनों कोई अभिनेता कल्पना भी नहीं कर सकता था। अपनी असरदार उपस्थिति के चलते जल्द ही कई फ़िल्में सप्रू के हाथ लग गईं। उन्होंने जहाँ 'चांद' ([[1944]]) में बेगम पारा के साथ काम किया। वहीं 'रोमियो जूलियट' में [[नर्गिस]] के हीरो बने। उस दौर में फ़िल्मों में बतौर हीरोइन हेमावती ने भी शुरुआत की। सप्रू की हेमावती से मुलाकात हुई, तो मामला पहली नजर के प्यार वाला हो गया। बहरहाल सप्रू ने जल्द ही हेमावती से [[विवाह]] कर लिया। 'अदले जहांगीर', 'काला पानी', 'झाँसी की रानी', 'तानसेन', 'गंगा मैया' और 'वामनावतार' सहित कई फ़िल्मों में काम करते-करते सप्रू पौराणिक विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों के पसंदीदा किरदार बन गए। 'शबिस्तान' ([[1951]]) वह फ़िल्म थी, जिसमें सप्रू ने पहली बार खलनायक का किरदार किया और उस रोल में भी उनकी जमकर तरीफ़ हुई।
सप्रू की पहली फ़िल्म 'रामशास्त्री' में उन्होंने [[पेशवा]] का छोटा-सा रोल किया। यह फ़िल्म अपने समय की हिट फ़िल्म थी। प्रभात की ही अगली फ़िल्म 'लाखारानी' में उन्हें बतौर हीरो लिया गया और वेतन तय हुआ तीन हज़ार [[रुपया|रुपये]]। इतनी बड़ी रकम की उन दिनों कोई अभिनेता कल्पना भी नहीं कर सकता था। अपनी असरदार उपस्थिति के चलते जल्द ही कई फ़िल्में सप्रू के हाथ लग गईं। उन्होंने जहाँ 'चांद' ([[1944]]) में बेगम पारा के साथ काम किया। वहीं 'रोमियो जूलियट' में [[नर्गिस]] के हीरो बने। उस दौर में फ़िल्मों में बतौर हिरोइन हेमावती ने भी शुरुआत की। सप्रू की हेमावती से मुलाकात हुई, तो मामला पहली नजर के प्यार वाला हो गया। बहरहाल सप्रू ने जल्द ही हेमावती से [[विवाह]] कर लिया। 'अदले जहांगीर', 'काला पानी', 'झाँसी की रानी', 'तानसेन', 'गंगा मैया' और 'वामनावतार' सहित कई फ़िल्मों में काम करते-करते सप्रू पौराणिक विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों के पसंदीदा किरदार बन गए। 'शबिस्तान' ([[1951]]) वह फ़िल्म थी, जिसमें सप्रू ने पहली बार खलनायक का किरदार किया और उस रोल में भी उनकी जमकर तरीफ़ हुई।
==फ़िल्म निर्माण==
==फ़िल्म निर्माण==
दयाकिशन सप्रू का शानदार कॅरियर जारी था कि कुछ लोगों की राय पर उन्होंने फ़िल्म निर्माण में हाथ आजमा लिया। पहली फ़िल्म बनाई 'पतीतपावन' ([[1955]])। इससे उन्हें कोई आर्थिक फायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने फ़िल्म 'बहादुरशाह जफ़र' शुरू की। इसमें बहादुर शाह की भूमिका खुद सप्रू ने निभाई। फ़िल्म पूरी करने के सिलसिले में सप्रू कर्जदार हो गए। यहां तक कि उन्हें अपना घर भी बेचना पड़ा।<ref name="a"/>
दयाकिशन सप्रू का शानदार कॅरियर जारी था कि कुछ लोगों की राय पर उन्होंने फ़िल्म निर्माण में हाथ आजमा लिया। पहली फ़िल्म बनाई 'पतीतपावन' ([[1955]])। इससे उन्हें कोई आर्थिक फायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने फ़िल्म 'बहादुरशाह जफ़र' शुरू की। इसमें बहादुर शाह की भूमिका खुद सप्रू ने निभाई। फ़िल्म पूरी करने के सिलसिले में सप्रू कर्जदार हो गए। यहां तक कि उन्हें अपना घर भी बेचना पड़ा।<ref name="a"/>

Revision as of 07:21, 4 January 2018

दयाकिशन सप्रू
पूरा नाम दयाकिशन सप्रू
प्रसिद्ध नाम सप्रू
जन्म 16 मार्च, 1916
जन्म भूमि कश्मीर, भारत
मृत्यु अक्टूबर, 1979
मृत्यु स्थान मुम्बई, महाराष्ट्र
संतान रीमा, तेज सप्रू
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र अभिनय तथा फ़िल्म निर्माण
मुख्य फ़िल्में 'कुदरत', 'ज्योति बने ज्वाला', 'नया दौर', 'छैला बाबू', 'अलीबाबा मरजीना', 'धरम वीर', 'ड्रीम गर्ल', 'अदालत', 'रफ़ू चक्कर', 'दीबार', 'मजबूर', 'बेनाम', 'हाथ की सफाई' आदि।
शिक्षा बी.ए.
प्रसिद्धि अभिनेता तथा खलनायक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 'शबिस्तान' वर्ष 1951 की वह फ़िल्म थी, जिसमें दयाकिशन सप्रू ने पहली बार खलनायक का किरदार निभाया था और इस भूमिका में भी दर्शकों ने उनकी जमकर तारीफ़ की थी।

दयाकिशन सप्रू (अंग्रेज़ी: Dayakishan Sapru, जन्म- 16 मार्च, 1916, कश्मीर, भारत; मृत्यु- 1979, मुम्बई, महाराष्ट्र) हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेताओं में से एक थे। अपने फ़िल्मी कॅरियर में उन्हें 'सप्रू' नाम से अधिक जाना गया। 1960 और 1970 के दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई थी, जिससे उन्हें काफ़ी ख्याति मिली थी। खलनायक से पहले दयाकिशन जी ने कई चरित्र किरदार भी निभाए थे। उन्होंने करीब 350 फ़िल्मों में काम किया। चेतन आनन्द की फ़िल्म 'कुदरत' उनकी अंतिम फ़िल्म थी।

जन्म

दयाकिशन सप्रू का जन्म 16 मार्च, 1916 को कश्मीर, भारत में हुआ था। उनके पिता कश्मीर के महाराजा के दरबार में वित्त विभाग में ऊंचे ओहदे पर थे।

फ़िल्मी शुरुआत

अंग्रेज़ों का जमाना था और उस दौर में बी.ए. करने के बाद युवा दयाकिशन सप्रू ने पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में ठेकेदारी शुरू कर दी थी। उसी समय उनके फुफेरे भाई फ़िल्मी पर्दे पर दिखाई देने लगे। दया से भी उनके साथी कॉलेज के जमाने से कह रहे थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के ऊंचे कद, गोरे-चिट्टे और नीली आँखों वाले इस कश्मीरी लड़के को फ़िल्मों में जाना चाहिए। ऐसे में अक्सर रूपहले पर्दे की कशिश दयाकिशन को अपनी ओर खींचने लगती थी। एक दिन दयाकिशन मुंबई जा पहुंचे, फ़िल्मों में हाथ आजमाने के लिए। वह साल था 1944। उनके फुफेरे भाई ओंकारनाथ धर उर्फ जीवन ने दयाकिशन को फ़िल्म निर्माताओं से खुद जाकर बात करने की सलाह दी। दयाशिन वी. शांताराम से मिलने प्रभात स्टूडियो जा पहुँचे। कमरे के बाहर बैठे दयाकिशन पर नजर पड़ी तो वी. शांताराम ने उन्हें बुला लिया। जब दयाकिशन ने अपना परिचय देने के लिए बोलना शुरू किया तो मंत्रमुग्ध वी. शांताराम उनकी गरजदार आवाज़ को सुनते रहे। वी. शांताराम हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेज़ी और उर्दू में धाराप्रवाह बात करने वाले इस जवान से खासे प्रभावित हुए। नतीजा यह हुआ की वी. शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'रामशास्त्री' के लिए दयाकिशन को चुन लिया। यही दयाकिशन आगे चलकर 'सप्रू' के रूप में मशहूर हुए।[1]

सफलता तथा विवाह

सप्रू की पहली फ़िल्म 'रामशास्त्री' में उन्होंने पेशवा का छोटा-सा रोल किया। यह फ़िल्म अपने समय की हिट फ़िल्म थी। प्रभात की ही अगली फ़िल्म 'लाखारानी' में उन्हें बतौर हीरो लिया गया और वेतन तय हुआ तीन हज़ार रुपये। इतनी बड़ी रकम की उन दिनों कोई अभिनेता कल्पना भी नहीं कर सकता था। अपनी असरदार उपस्थिति के चलते जल्द ही कई फ़िल्में सप्रू के हाथ लग गईं। उन्होंने जहाँ 'चांद' (1944) में बेगम पारा के साथ काम किया। वहीं 'रोमियो जूलियट' में नर्गिस के हीरो बने। उस दौर में फ़िल्मों में बतौर हिरोइन हेमावती ने भी शुरुआत की। सप्रू की हेमावती से मुलाकात हुई, तो मामला पहली नजर के प्यार वाला हो गया। बहरहाल सप्रू ने जल्द ही हेमावती से विवाह कर लिया। 'अदले जहांगीर', 'काला पानी', 'झाँसी की रानी', 'तानसेन', 'गंगा मैया' और 'वामनावतार' सहित कई फ़िल्मों में काम करते-करते सप्रू पौराणिक विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों के पसंदीदा किरदार बन गए। 'शबिस्तान' (1951) वह फ़िल्म थी, जिसमें सप्रू ने पहली बार खलनायक का किरदार किया और उस रोल में भी उनकी जमकर तरीफ़ हुई।

फ़िल्म निर्माण

दयाकिशन सप्रू का शानदार कॅरियर जारी था कि कुछ लोगों की राय पर उन्होंने फ़िल्म निर्माण में हाथ आजमा लिया। पहली फ़िल्म बनाई 'पतीतपावन' (1955)। इससे उन्हें कोई आर्थिक फायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने फ़िल्म 'बहादुरशाह जफ़र' शुरू की। इसमें बहादुर शाह की भूमिका खुद सप्रू ने निभाई। फ़िल्म पूरी करने के सिलसिले में सप्रू कर्जदार हो गए। यहां तक कि उन्हें अपना घर भी बेचना पड़ा।[1]

मधुमेह से पीड़ित

इसके बाद सप्रू को जो भी रोल मिला, वह करते गए। उन्होंने पंजाबी और गुजराती फ़िल्मों में भी काम किया। सप्रू की बेटी रीमा अपनी पढ़ाई पुरी करने के बाद फ़िल्म राइटर बनीं। उन्होंने एक फ़िल्म लिखी। सप्रू ने एक बार फिर फ़िल्म बनाने का फैसला किया। फ़िल्म का नाम रखा गया 'जीवन चलने का नाम'। इसके लिए संजीव कुमार, रेखा और शशि कपूर को साइन किया गया। मगर तभी सप्रू को मधुमेह की बीमारी ने अपनी चपेट मे ले लिया। इस एक बीमारी ने उन्हें कई और बीमारियों के हवाले कर दिया। फ़िल्म का काम रुक गया। बीमारी के बावजूद सप्रू उन फ़िल्मों का काम निपटाते रहे, जो उन्होंने साइन की थीं।

निधन

जून, 1979 में एक फ़िल्म रिलीज हुई। इसका नाम था- 'सुरक्षा'। इसमें उनके बेटे तेज सप्रू ने काम किया था। बीमारी की वजह से सप्रू अपने बेटे की पहली फ़िल्म नहीं देख सके और अक्टूबर, 1979 में उनका निधन हो गया। उन्होंने करीब 350 फ़िल्मों में काम किया। चेतन आनन्द की फ़िल्म 'कुदरत' उनकी अंतिम फ़िल्म थी। अपने निधन के 36 साल बाद भी 'साहब बीवी और गुलाम', 'हीर रांझा', और 'पाकीजा' जैसी फ़िल्मों के जरिए सप्रू फ़िल्म प्रेमियों के दिलों में आज भी जिंदा हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 आभार- अमर उजाला, कभी यमराज कभी देवता, 10 जुलाई-2016

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