अद्भुत रस: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
Line 72: Line 72:
{{रस}}{{व्याकरण}}
{{रस}}{{व्याकरण}}
[[Category:व्याकरण]]
[[Category:व्याकरण]]
[[Category:हिन्दी भाषा]]
[[Category:हिन्दी भाषा]][[Category:भाषा कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__NOTOC__
__NOTOC__
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 09:13, 14 October 2011

अद्भुत रस ‘विस्मयस्य सम्यक्समृद्धिरद्भुत: सर्वेन्द्रियाणां ताटस्थ्यं या’। [1] अर्थात विस्मय की सम्यक समृद्धि अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों की तटस्थता अदभुत रस है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब किसी रचना में विस्मय 'स्थायी भाव' इस प्रकार पूर्णतया प्रस्फुट हो कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उससे अभिभावित होकर निश्चेष्ट बन जाएँ, तब वहाँ अद्भुत रस की निष्पत्ति होती है।

साहित्यकारों द्वारा परिभाषा

‘आहचरज देखे सुने बिस्मै बाढ़त।
चित्त अद्भुत रस बिस्मय बढ़ै अचल सचकित निमित्त’[2]

  • भरतमुनि ने वीर रस से अद्भुत की उत्पत्ति बताई है तथा इसका वर्ण पीला एवं देवता ब्रह्मा कहा है।
  • विश्वनाथ के अनुसार इसके देवता गन्धर्व हैं।
  • ‘विस्मय’ की परिभाषा ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में दी गई है - ‘विस्मयश्चित्तविस्तार: पदार्थातिशयादिभि:’ किसी अलौकिक पदार्थ के गोचरीकरण से उत्पन्न चित्त का विस्तार विस्मय है।
  • विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में इस परिभाषा को दुहराते हुए विस्मय को चमत्कार का पर्याय बताया है - ‘चमत्कारश्चित्तविस्तार रूपो विस्मयापरपर्याय:’ [3]। अतएव चित्त की वह चमत्कृत अवस्था, जिसमें वह सामान्य की परिधि से बाहर उठकर विस्तार लाभ करता है, ‘विस्मय’ कहलायेगी। वास्तव में यह विस्मय या चमत्कार प्रत्येक गहरी अनुभूति का आवश्यक अंग है और इसीलिए यह प्रत्येक रस की प्रतीति में वर्तमान रहता है।
  • भानुदत्त ने कहा है कि विस्मय सभी रसों में संचार करता है।
  • विश्वनाथ रसास्वाद के प्रकार को समझाते हुए कहते हैं कि रस का प्राण ‘लोकोत्तर चमत्कार’ है [4] और इस प्रकार सर्वत्र, सम्पूर्ण रसगर्भित स्थानों में अद्भुत रस माना जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं -

‘रसे सारश्चमत्कार: सर्वत्राप्यनुभुयते। तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रस:।
तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्।’ [5] अर्थात सब रसों में चमत्कार साररूप से (स्थायी) होने से सर्वत्र अद्भुत रस ही प्रतीत होता है। अतएव, नारायण पण्डित केवल एक अद्भुत रस ही मानते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार

मनोविज्ञानियों ने भी विस्मय को प्रधान भावों में गृहीत किया है तथा उसकी प्रवृत्ति ‘जिज्ञासा’ से बताई है। वास्तव में आदिम मानव को प्रकृति की क्रीड़ास्थली के संसर्ग में भय एवं आश्चर्य अथवा विस्मय, इन दो भावों की ही मुख्यतया प्रतीति हुई होगी। कला एवं काव्य के आकर्षण में विस्मय की भावना सर्वाधिक महत्त्व रखती है। कवि एवं कलाकार जिस वस्तु का सौन्दर्य चित्रित करना चाहते हैं, उसमें कोई लोक को अतिक्रान्त करने वाला तत्व वर्तमान रहता है, जो अपनी असाधारणता से भाव को अभिभूत कर लेता है। अंग्रेज़ी साहित्य के रोमांटिक कवियों ने काव्य की आत्मा विस्मय को ही स्वीकार किया था। अतएव, अद्भुत रस का महत्त्व स्वयं सिद्ध है। साहित्य शास्त्रियों ने रस के विरोध एवं अविरोध का व्याख्यान किया है।

रस के विरोध एवं अविरोध
  • पण्डितराज ने अद्भुत रस को श्रृंगार एवं वीर का अविरोधी बताया है, अर्थात उनके मतानुसार श्रृंगार तथा वीर के साथ अद्भुत की अवस्थिति हो सकती है।
  • विश्वनाथ ने सम्बद्ध प्रसंग में अद्भुत के विरोध या अविरोध के विषय में कोई उल्लेख नहीं किया है। वास्तव में उन्होंने रसास्वाद के निरूपण के प्रकरण में अपने प्रपितामह की सम्मति उद्धृत करते हुए अपना मत भी व्यक्त कर दिया है कि अद्भुत रस की पहुँच सर्वत्र सम्पूर्ण रसों में हो सकती है।
  • भानुदत्त ने अत्युक्ति, भ्रमोक्ति, चित्रोक्ति, विरोधाभास इत्यादि को अद्भुत रस में ही अन्तर्भूत कर दिया है। सामान्यतया अद्भुत एवं हास्य रस में आपातत: साम्य लक्षित होता है, क्योंकि दोनों में लोक से वैपरीत्य भाव वर्तमान रहता है। लेकिन, अन्तर यह है कि हास्य में यह वैपरीत्य साधारण होता है और उसका कारण भी यत्किंचित ज्ञात रहता है, जबकि अद्भुत में वैपरीत्य का परिमाण अपेक्षाकृत अधिक होता है और उसका कारण भी अज्ञात रहता है। वस्तुत: दो विपरीत वस्तुओं के संयोग पर विचार करना ही विस्मय का मूल है। सूरदास का ‘अद्भुत एक अनुपम बाग़’ वाला प्रसिद्ध पद अद्भुत रस का सुन्दर उदाहरण है।
आलम्बन विभाव

आलौकिकता से युक्त वाक्य, शील, कर्म एवं रूप अद्भुत रस के आलम्बन विभाव हैं,

उद्दीनपन विभाव

आलौकिकता के गुणों का वर्णन उद्दीनपन विभाव है,

अनुभाव

आँखें फाड़ना, टकटकी लगाकर देखना, रोमांच, आँसू, स्वेद, हर्ष, साधुवाद देना, उपहार-दान, हा-हा करना, अंगों का घुमाना, कम्पित होना, गदगद वचन बोलना, उत्कण्ठित होना, इत्यादि इसके अनुभाव हैं,

व्यभिचारी भाव

वितर्क, आवेग, हर्ष, भ्रान्ति, चिन्ता, चपलता, जड़ता, औत्सुक्य प्रभृति व्यभिचारी भाव हैं।

अद्भुत रस का वर्णन
  • हिन्दी के आचार्य कुलपति ने ‘रस-रहस्य’ नामक ग्रन्थ में अद्भुत रस का वर्णन किया है -

‘जहँ अनहोने देखिए, बचन रचन अनुरूप।
अद्भुत रस के जानिये, ये विभाव स्रु अनूप।।
बचन कम्प अरु रोम तनु, यह कहिये अनुभाव।
हर्श शक चित मोह पुनि, यह संचारी भाव।।
जेहि ठाँ नृत्य कवित्त में, व्यंग आचरज होय।
ताँऊ रस में जानियो, अद्भुत रस है सोय।’ [6]

ज्ञान के प्रकार
  • आलौकिक पदार्थ के गोचरिकरण अर्थात ज्ञानगम्य होने से विस्मय उत्पन्न होता है। शास्त्रों में बताया गया है, ज्ञान तीन प्रकार का होता है,
  1. यथादृष्ट (देखा हुआ),
  2. श्रुत (सुना हुआ),
  3. अनुमानज (अनुमति)।

अद्भुत रस के विभाव इन त्रिविध रीतियों से गोचर होते हैं। लेकिन वैष्णव आचार्यों ने एक चौथी रीति भी बताई है। यह है संकीर्तन अर्थात किसी वस्तु का प्रभावक वर्णन-विवरण, जिससे बोधव्य को उसका सम्यक् ज्ञान हो जाए। इस प्रकार, अदभुत रस चार प्रकार का होता है-

  1. दृष्ट,
  2. श्रुत,
  3. अनुमति एवं
  4. संकीर्तित।
  • उदाहरण -

‘ब्रज बछरा निज धाम करि फिरि ब्रज लखि फिरि धाम। फिरि इत र्लाख फिर उत लखे ठगि बिरंचि तिहि ठाम’ (पोद्दार : ‘रसमंजरी’)। वत्सहरण के समय ब्रह्मा द्वारा गोप बालकों तथा बछड़ों को ब्रह्मधाम में छोड़ आने पर भी वे ही गोप और बछड़े देखकर ब्रह्मा को विस्मय हुआ। अतएव यहाँ दृष्ट अद्भुत रस की प्रतीति हो रही है।

उदाहरण -

चित अलि कत भरमत रहत कहाँ नहीं बास।
विकसित कुसुमन मैं अहै काको सरस विकास [7]

यहाँ अनुमिति अद्भुत की प्रतीति हो रही है। विकच कुसुमों में ईश्वर की प्रभा के अनुमानज ज्ञान से उत्पन्न ‘विस्मय’ पुष्ट होकर अद्भुत रस में व्यक्त हो गया है।

  • यह स्मरण रखना चाहिए कि चमत्कारपूर्ण वस्तु के दर्शन से यदि श्रृंगारादि रसों में ‘अंगतया’ विस्मय भाव प्रतीत हो, तो वहाँ श्रृंगारादि रस ही होते हैं तथा जहाँ वह विस्मय प्रधानता से भासित हो, अद्भुत रस माना जायेगा। इस प्रकार रसखानि की प्रसिद्ध पंक्ति ‘ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछपै नाच नचावै’ में विस्मय की अभिव्यक्ति होने पर भी अद्भुत रस निष्पन्न नहीं हो सका है, क्योंकि यहाँ भगवान की भक्तवत्सलता की अभिव्यक्ति होने के कारण देवविषयक रतिभाव ही प्रधान बन गया है तथा विस्मय का भाव उसी का पोषक बनकर अंगभूत हो गया है।
  • हिन्दी साहित्य में अद्भुत रस के उत्कृष्ट प्रयोग हुए हैं। नारी के रूप सौन्दर्य तथा वय:सन्धि के चित्रण प्राय: अद्भुत रस के माधुर्य में अभिषिक्त हो गए हैं। विद्यापति तथा सूरदास की रचनाओं में ऐसे स्थान प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं। दृष्टिकूट के पदों में अद्भुत रस की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है। कृष्णलीला के अनेक प्रसंगों, यथा उनका उलूखन में बाँधा जाना तथा रस्सियों का छोटा पड़ना, माटी खाना, गोवर्धन धारण करना इत्यादि में अद्भुत रस के सुन्दर चित्र अंकित हुए हैं। सूरदास के वे प्रकरण द्रष्टव्य हैं।
  • रामचरितमानस’ में जहाँ शिशु रामचन्द्र ने माता कौसल्या को अपना विराट रूप दिखलाया है, वहाँ जननी की मानसिक क्रियाओं के वर्णन में अद्भुत का मनोरम प्रवाह है। ‘विनयपत्रिका’ का प्रसिद्ध पद ‘केशव कहि न जाय का कहिये........’ अद्भुत रस का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • कबीर की उलटबाँसियाँ तथा जायसी कृत ‘पद्मावत’ में पद्मावती का नख-शिख वर्णन भी अद्भुत रस की अभिव्यक्ति के लिए पठनीय है। रीति काल के मुक्तकों, विशेषत: बिहारी, मतिराम, घनानन्द इत्यादि की रचनाओं में जहाँ अत्युक्ति, चित्रोक्ति, विरोधाभास, असंगति प्रभूति अलंकार प्रयुक्त हुए हैं, अद्भुत रस का निर्वाह सुन्दर हुआ है। छायावादी कवियों ने तो सौन्दर्य की अपरिचित भूमियों को उदघाटित कर तथा वक्रिमापूर्ण लाक्षणिक शैली को अपनाकर, ‘विस्मय’ अथवा ‘चमत्कार’ को काव्य के प्राणरूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। वर्तमान युग की नयी कविता में इसका तत्व प्रधान है।[8]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘भानुदत्त : रसतरंगिणी’
  2. ‘भवानी विलास’ देव
  3. साहित्यदर्पण 3:3 वृ.
  4. जो चित्त का विस्ताररूप विस्मय ही है
  5. साहित्यदर्पण, 3:3 वृ.
  6. रस-रहस्य, आचार्य कुलपति
  7. हरिऔ‘ध : ‘रसकलस’
  8. वर्मा, धीरेंद्र हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1, मई 2007 (हिन्दी), वाराणसी: ज्ञानमण्डल प्रकाशन, 15।

संबंधित लेख