शिशुनाग वंश

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शिशुनाग वंश पुराणों के अनुसार मगध के उस राजवंश का प्रवर्तक था, जिसमें गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर का समकालीन बिम्बिसार नामक शासक हुआ था। शिशुनाग वंश का शासनकाल बिम्बिसार और अजातशत्रु के बाद का था। इस काल को आमतौर पर नन्दवंश से ठीक पहले का माना जाता है और इसका काल लगभग पाँचवीं ई. पू. से चौथी शताब्दी के मध्य तक का है।

साम्राज्य विस्तार

इस वंश के संस्थापक 'शिशुनाग' के प्रतिनिधि थे। धीरे-धीरे वह मगध की प्राचीन राजधानी गिरिव्रज या राजगीर से जुड़े और वैशाली (उत्तर बिहार) को पुनर्स्थापित किया। शिशुनाग वंश का शासनकाल अपने पूर्ववर्ती शासकों की तरह मगध साम्राज्य के तीव्र विस्तार के इतिहास में एक चरण का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने अवंतिवर्द्धन के विरुद्ध विजय प्राप्त की और अपने साम्राज्य में अवंति (मध्य भारत) को सम्मिलित कर लिया।

अन्त

शिशुनाग के पुत्र कालाशोक के काल को प्रमुखत: दो महत्वपूर्ण घटनाओं के लिए जाना जाता है- वैशाली में दूसरी बौद्ध परिषद की बैठक और पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना, बिहार) में मगध की राजधानी का स्थानान्तरण। शिशुनाग वंश के पतन का इतिहास भी मगध के मौर्य वंश से पूर्व के इतिहास जितना ही अस्पष्ट है। पारम्परिक स्रोतों के अनुसार कालाशोक के 10 पुत्र थे, परन्तु उनका कोई विवरण ज्ञात नहीं है। माना जाता है कि नन्दवंश के संस्थापक महापद्मनंद द्वारा कालाशोक की 470 ई. में निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई और शिशुनाग वंश के शासन का अन्त हो गया। किन्तु सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार शिशुनाग के वंशजों ने हर्यक वंश के शासक बिम्बिसार और उसके उत्तराधिकारियों के उपरान्त शासन किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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