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'''स्थानकवासी''' [[भारत]] के [[श्वेतांबर सम्प्रदाय|श्वेतांबर]] जैनों का एक आधुनिक उपसंप्रदाय। स्थानकवासी मूल समूह से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे मूर्ति पूजा एवं मंदिर के आचार को अस्वीकार करते हैं।
'''स्थानकवासी''' [[भारत]] के [[श्वेतांबर सम्प्रदाय|श्वेतांबर]] जैनों का एक आधुनिक उपसंप्रदाय। स्थानकवासी मूल समूह से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे मूर्ति पूजा एवं मंदिर के आचार को अस्वीकार करते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारत ज्ञानकोश, खण्ड-6|लेखक=इंदु रामचंदानी|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=127|url=}}</ref>


*इस सम्प्रदाय की स्थापना 17वीं सदी में लौंकाशाह के नेतृत्व में हुई थी, जो पहले 'लुंपाक' या 'लौकागच्छ' कहलाने वाले अमूर्ति पूजक संप्रदाय के सदस्य थे।
*इस सम्प्रदाय की स्थापना 17वीं सदी में लौंकाशाह के नेतृत्व में हुई थी, जो पहले 'लुंपाक' या 'लौकागच्छ' कहलाने वाले अमूर्ति पूजक संप्रदाय के सदस्य थे।

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स्थानकवासी भारत के श्वेतांबर जैनों का एक आधुनिक उपसंप्रदाय। स्थानकवासी मूल समूह से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे मूर्ति पूजा एवं मंदिर के आचार को अस्वीकार करते हैं।[1]

  • इस सम्प्रदाय की स्थापना 17वीं सदी में लौंकाशाह के नेतृत्व में हुई थी, जो पहले 'लुंपाक' या 'लौकागच्छ' कहलाने वाले अमूर्ति पूजक संप्रदाय के सदस्य थे।
  • 'लुंपाक' तथा 'लौकागच्छ' दोनों समूहों की आस्था इस तर्क पर आधारित थी कि जैन धर्मशास्त्र में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं है।
  • स्थानकवासी संज्ञा मंदिर के बजाय मुनियों के ठहरने के स्थान (स्थानक), जैसे- लौकिक स्थलों पर धार्मिक कर्तव्यों के निष्पादन को प्राथमिकता देने के कारण आई है।
  • इस समूह को कभी-कभी 'ढूंढिया' (खोजने वाला) भी कहते है।
  • स्थानकवासीयों से एक और समूह 'तेरापंथी' (जो 15 नियमों के मार्ग का अनुसरण करते हैं) निकला, जिसकी स्थापना 18वीं सदी में आचार्य भिक्कु ने की थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारत ज्ञानकोश, खण्ड-6 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 127 |

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