नायक भेद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replacement - " महान " to " महान् ")
m (Text replacement - " शृंगार " to " श्रृंगार ")
Line 8: Line 8:
ये भेद नाटक के नायक के हैं। इनमें से प्रथम मृदु स्वभाव वाला और संगीतप्रेमी क्षत्रिय राजा होता है। दूसरा मुख्यतः सामान्य गुणयुक्त ब्राह्मण अथवा वणिक होता है। तीसरा गम्भीर, क्षमावान, निरहंकारी वीर और दृढ़व्रत क्षत्रिय राजा होता है तथा चौथा अहंकारी, आत्मप्रशंसक और ईर्ष्यालु प्रकार का होता है। नायक के ये चार प्रकार चार विभिन्न प्रकृति के पुरुषों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि नायिकाओं के भेद मुख्यतः श्रृंगार-रस के प्रसंग में उनके नायक से सम्बन्ध के आधार पर किये गये हैं। उदाहरण के लिये जिस [[नायिका]] का पति उसके पास हो वह प्रसन्न रहती है और स्वाधीनपतिका कहलाती है। जिस नायिका का पति विदेश में हो वह प्रोषितप्रिया कही जाती है। जिसके पति या प्रेमी ने उससे छल करके किसी और से प्रेम किया हो वह खंडिता कहलाती है आदि।
ये भेद नाटक के नायक के हैं। इनमें से प्रथम मृदु स्वभाव वाला और संगीतप्रेमी क्षत्रिय राजा होता है। दूसरा मुख्यतः सामान्य गुणयुक्त ब्राह्मण अथवा वणिक होता है। तीसरा गम्भीर, क्षमावान, निरहंकारी वीर और दृढ़व्रत क्षत्रिय राजा होता है तथा चौथा अहंकारी, आत्मप्रशंसक और ईर्ष्यालु प्रकार का होता है। नायक के ये चार प्रकार चार विभिन्न प्रकृति के पुरुषों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि नायिकाओं के भेद मुख्यतः श्रृंगार-रस के प्रसंग में उनके नायक से सम्बन्ध के आधार पर किये गये हैं। उदाहरण के लिये जिस [[नायिका]] का पति उसके पास हो वह प्रसन्न रहती है और स्वाधीनपतिका कहलाती है। जिस नायिका का पति विदेश में हो वह प्रोषितप्रिया कही जाती है। जिसके पति या प्रेमी ने उससे छल करके किसी और से प्रेम किया हो वह खंडिता कहलाती है आदि।
==साहित्यिक संदर्भ==
==साहित्यिक संदर्भ==
"[[अग्निपुराण]]" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ। ये भेद स्पष्ट ही शृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। भोज (11वीं शताब्दी) ने "सरस्वतीकंठाभरण" तथा "शृंगारप्रकाश" में इन दो के अतिरिक्त अन्य अनेक वर्गीकरणों का उल्लेख किया है। किंतु उनमें से केवल एक वर्गीकरण ही, जिसका उल्लेख पुरुष के भेदों के रूप में भरत ने भी किया था, परवर्ती लेखकों को मान्य हुआ : उत्तम, मध्यम, अधम। भानुदत्त (1300 ई.) ने "रसमंजरी" में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक। अनुकूल इत्यादि भेद पति और उपपति के अंतर्गत स्वीकार किए गए। भानुदत्त ने प्रोषित नाम के एक और भेद का उल्लेख किया। [[रूप गोस्वामी]] (1500 ई.) ने "उज्ज्वलनीलमणि" में वैशिक स्वीकार नहीं किया। उन्होंने [[कृष्ण]] को एकमात्र नायक माना है। [[हिंदी]] में नायकभेद के प्रमुख लेखकों ने उपर्युक्त वर्गीकरणों में से प्रथम को छोड़कर शेष को प्राय: स्वीकार कर लिया है। पति, उपपति, वैशिक को मुख्य वर्गीकरण मानकर अनुकूल, दक्षिण, शठ, घृष्ठ भेदों को पति के अंतर्गत रखा है।<ref>रहीम : "बरवै नायिकाभेद", 1600 ई.; मतिराम; "रसराज", 1710 ई.; पद्माकर; "जगद्विनोद", 1810 ई.</ref> नायक के उत्तम, मध्यम, अधम भेदों को हिंदी में केवल कुछ लेखकों ने ही स्वीकार किया है, जिनमें सुंदर (1631 ई.), तोप (1634 ई.) और रसलीन (1742 ई.) प्रमुख हैं।
"[[अग्निपुराण]]" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ। ये भेद स्पष्ट ही श्रृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। भोज (11वीं शताब्दी) ने "सरस्वतीकंठाभरण" तथा "शृंगारप्रकाश" में इन दो के अतिरिक्त अन्य अनेक वर्गीकरणों का उल्लेख किया है। किंतु उनमें से केवल एक वर्गीकरण ही, जिसका उल्लेख पुरुष के भेदों के रूप में भरत ने भी किया था, परवर्ती लेखकों को मान्य हुआ : उत्तम, मध्यम, अधम। भानुदत्त (1300 ई.) ने "रसमंजरी" में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक। अनुकूल इत्यादि भेद पति और उपपति के अंतर्गत स्वीकार किए गए। भानुदत्त ने प्रोषित नाम के एक और भेद का उल्लेख किया। [[रूप गोस्वामी]] (1500 ई.) ने "उज्ज्वलनीलमणि" में वैशिक स्वीकार नहीं किया। उन्होंने [[कृष्ण]] को एकमात्र नायक माना है। [[हिंदी]] में नायकभेद के प्रमुख लेखकों ने उपर्युक्त वर्गीकरणों में से प्रथम को छोड़कर शेष को प्राय: स्वीकार कर लिया है। पति, उपपति, वैशिक को मुख्य वर्गीकरण मानकर अनुकूल, दक्षिण, शठ, घृष्ठ भेदों को पति के अंतर्गत रखा है।<ref>रहीम : "बरवै नायिकाभेद", 1600 ई.; मतिराम; "रसराज", 1710 ई.; पद्माकर; "जगद्विनोद", 1810 ई.</ref> नायक के उत्तम, मध्यम, अधम भेदों को हिंदी में केवल कुछ लेखकों ने ही स्वीकार किया है, जिनमें सुंदर (1631 ई.), तोप (1634 ई.) और रसलीन (1742 ई.) प्रमुख हैं।
==नायक के कुछ अन्य भेद==
==नायक के कुछ अन्य भेद==
नायक के कुछ अन्य भेद इस प्रकार हैं। प्रोषित, मानी, चतुर, अनभिज्ञ। मानी के दो भेद हैं : रूपमानी, गुणमानी। चतुर के भेद भी दो हैं: वचन चतुर, क्रिया-चतुर। रसलीन ने इन्हीं के साथ स्वयंदूत नायक का भी कथन किया है। अनभिज्ञ को भानुदत्त के अनुकरण पर [[पद्माकर]] ने भी नायकाभास माना है। [[केशव]] (1591 ई.) ने नायक के प्रछन्न और प्रकाश भेद भी माने हैं। रसलीन के मत से उपपति के तीन तथा वैशिक के दो उपभेद हैं।
नायक के कुछ अन्य भेद इस प्रकार हैं। प्रोषित, मानी, चतुर, अनभिज्ञ। मानी के दो भेद हैं : रूपमानी, गुणमानी। चतुर के भेद भी दो हैं: वचन चतुर, क्रिया-चतुर। रसलीन ने इन्हीं के साथ स्वयंदूत नायक का भी कथन किया है। अनभिज्ञ को भानुदत्त के अनुकरण पर [[पद्माकर]] ने भी नायकाभास माना है। [[केशव]] (1591 ई.) ने नायक के प्रछन्न और प्रकाश भेद भी माने हैं। रसलीन के मत से उपपति के तीन तथा वैशिक के दो उपभेद हैं।

Revision as of 08:52, 17 July 2017

हिन्दी के नायक-नायिका-भेद संबंधी साहित्य का निर्माण अधिकांशत: रीतिकाल में हुआ है। नायक-नायिका-भेद की यह काव्यसरिता दो सशक्त धाराओं के संगम का परिणाम है। इनमें से पहली धारा है साहित्यशास्त्र एवं नायक-नायिका-भेद संबंधी शास्त्रीय ग्रंथों की, जिसका आरंभ भरतमुनि के "नाट्य शास्त्र" से होता है; तथा दूसरी धारा है कृष्ण और गोपियों की श्रृंगार क्रीड़ाओं के वर्णन की, जो "हरिवंश", "पद्म", "विष्णु" "भागवत" तथा "ब्रह्म वैवर्त" पुराणों की उपत्यकाओं में बहती हुई और उमापतिधर, जयदेव, चंडीदास, विद्यापति, मीरा, नरसी मेहता तथा सूरदास आदि अनेक भक्त कवियों की मधुर वाणी से विलसित होती हुई, निंबार्क, वल्लभ तथा चैतन्य जैसे महान् आचार्यों के समर्थन से संपुष्ट हुई है। आचार्यत्वं की दृष्टि से काव्यशास्त्र के इस अंग की हिंदी लेखकों की देन असाधारण है। काव्यसौष्ठव की दृष्टि से भी विद्वानों के मतानुसार इतने ऊँचे स्तर के साहित्य का इतने बड़े परिमाण में निर्माण हिंदी साहित्य के और किसी काल में नहीं हुआ।

नायक के भेद

संस्कृत काव्यशात्रों तथा नाट्‌यशास्त्रों में नायिका भेद और नायक-भेदों का वर्णन श्रृंगार रस के परिप्रेक्ष्य में हुआ है। दशरूपक संस्कृत नाट्‍यशास्त्रों में एक सम्माननीय स्थान रखता है। भरतमुनि के अनुसार नायक के चार भेद होते हैं-

  1. धीरललित
  2. धीरशान्त
  3. धीरोदात्त
  4. धीरोद्धत

ये भेद नाटक के नायक के हैं। इनमें से प्रथम मृदु स्वभाव वाला और संगीतप्रेमी क्षत्रिय राजा होता है। दूसरा मुख्यतः सामान्य गुणयुक्त ब्राह्मण अथवा वणिक होता है। तीसरा गम्भीर, क्षमावान, निरहंकारी वीर और दृढ़व्रत क्षत्रिय राजा होता है तथा चौथा अहंकारी, आत्मप्रशंसक और ईर्ष्यालु प्रकार का होता है। नायक के ये चार प्रकार चार विभिन्न प्रकृति के पुरुषों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि नायिकाओं के भेद मुख्यतः श्रृंगार-रस के प्रसंग में उनके नायक से सम्बन्ध के आधार पर किये गये हैं। उदाहरण के लिये जिस नायिका का पति उसके पास हो वह प्रसन्न रहती है और स्वाधीनपतिका कहलाती है। जिस नायिका का पति विदेश में हो वह प्रोषितप्रिया कही जाती है। जिसके पति या प्रेमी ने उससे छल करके किसी और से प्रेम किया हो वह खंडिता कहलाती है आदि।

साहित्यिक संदर्भ

"अग्निपुराण" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ। ये भेद स्पष्ट ही श्रृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। भोज (11वीं शताब्दी) ने "सरस्वतीकंठाभरण" तथा "शृंगारप्रकाश" में इन दो के अतिरिक्त अन्य अनेक वर्गीकरणों का उल्लेख किया है। किंतु उनमें से केवल एक वर्गीकरण ही, जिसका उल्लेख पुरुष के भेदों के रूप में भरत ने भी किया था, परवर्ती लेखकों को मान्य हुआ : उत्तम, मध्यम, अधम। भानुदत्त (1300 ई.) ने "रसमंजरी" में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक। अनुकूल इत्यादि भेद पति और उपपति के अंतर्गत स्वीकार किए गए। भानुदत्त ने प्रोषित नाम के एक और भेद का उल्लेख किया। रूप गोस्वामी (1500 ई.) ने "उज्ज्वलनीलमणि" में वैशिक स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कृष्ण को एकमात्र नायक माना है। हिंदी में नायकभेद के प्रमुख लेखकों ने उपर्युक्त वर्गीकरणों में से प्रथम को छोड़कर शेष को प्राय: स्वीकार कर लिया है। पति, उपपति, वैशिक को मुख्य वर्गीकरण मानकर अनुकूल, दक्षिण, शठ, घृष्ठ भेदों को पति के अंतर्गत रखा है।[1] नायक के उत्तम, मध्यम, अधम भेदों को हिंदी में केवल कुछ लेखकों ने ही स्वीकार किया है, जिनमें सुंदर (1631 ई.), तोप (1634 ई.) और रसलीन (1742 ई.) प्रमुख हैं।

नायक के कुछ अन्य भेद

नायक के कुछ अन्य भेद इस प्रकार हैं। प्रोषित, मानी, चतुर, अनभिज्ञ। मानी के दो भेद हैं : रूपमानी, गुणमानी। चतुर के भेद भी दो हैं: वचन चतुर, क्रिया-चतुर। रसलीन ने इन्हीं के साथ स्वयंदूत नायक का भी कथन किया है। अनभिज्ञ को भानुदत्त के अनुकरण पर पद्माकर ने भी नायकाभास माना है। केशव (1591 ई.) ने नायक के प्रछन्न और प्रकाश भेद भी माने हैं। रसलीन के मत से उपपति के तीन तथा वैशिक के दो उपभेद हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रहीम : "बरवै नायिकाभेद", 1600 ई.; मतिराम; "रसराज", 1710 ई.; पद्माकर; "जगद्विनोद", 1810 ई.

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख