स्वामी करपात्री: Difference between revisions

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धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज एक प्रख्यात भारतीय संत, सन्यासी राजनेता थे। धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनैतिक पार्टी के संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को "हिन्दू धर्म सम्राट" की उपाधि मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व [[हिन्दू धर्म]] प्रवर्तक थे। इनका वास्तविक नाम 'हर नारायण ओझा' था।  
'''धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Swami Karpatri'', जन्म- [[1907]] ई., मृत्यु- [[1982]] ई.) एक प्रख्यात भारतीय संत एवं संन्यासी राजनेता थे। धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक पार्टी के संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को "हिन्दू धर्म सम्राट" की उपाधि मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व [[हिन्दू धर्म]] प्रवर्तक थे। इनका वास्तविक नाम 'हर नारायण ओझा' था।  
==जन्म==
==जन्म==
स्वामी श्री का जन्म [[संवत्]] [[1964]] विक्रमी (सन् [[1907]] ईस्वी) में [[श्रावण मास]], [[शुक्ल पक्ष]], [[द्वितीया]] को ग्राम भटनी, जिला [[प्रतापगढ़ ज़िला|प्रतापगढ़]] [[उत्तर प्रदेश]] में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम 'हरि नारायण' रखा गया।   
स्वामी श्री का जन्म [[संवत्]] [[1964]] विक्रमी (सन् [[1907]] ईस्वी) में [[श्रावण मास]], [[शुक्ल पक्ष]], [[द्वितीया]] को ग्राम भटनी, ज़िला [[प्रतापगढ़ ज़िला|प्रतापगढ़]] [[उत्तर प्रदेश]] में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम 'हरि नारायण' रखा गया।   
==बचपन==  
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नैष्ठिक ब्रह्म्चारिय पंडित श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्क्रिताध्याय्न षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, [[दर्शन शास्त्र]], [[भागवत]], [[न्यायशास्त्र]], [[वेदांत]] अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।  
नैष्ठिक ब्रह्म्चारिय पंडित श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्क्रिताध्याय्न षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, [[दर्शन शास्त्र]], [[भागवत]], [[न्यायशास्त्र]], [[वेदांत]] अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।  
==तपो जीवन==
==तपो जीवन==
17 वर्ष की आयु से [[हिमालय]] गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, संन्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। [[गंगा|गंगातट]] नखर में प्रत्येक [[प्रतिपदा]] को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब [[सूर्य]] की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण "करपात्री" कहलाए।  
17 वर्ष की आयु से [[हिमालय]] गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, सन्न्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। [[गंगा|गंगातट]] नखर में प्रत्येक [[प्रतिपदा]] को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब [[सूर्य]] की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण "करपात्री" कहलाए।  
==दण्ड ग्रहण==
==दण्ड ग्रहण==
24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी [[ब्रह्मानंद सरस्वती]] जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर "अभिनवशंकर" के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए।  
24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी [[ब्रह्मानंद सरस्वती]] जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर "अभिनवशंकर" के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए।  
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'''अखिल भारतीय राम राज्य परिषद''' [[भारत]] की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: [[राजस्थान]]) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
'''अखिल भारतीय राम राज्य परिषद''' [[भारत]] की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: [[राजस्थान]]) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
==धर्मसंघ की स्थापना==
==धर्मसंघ की स्थापना==
सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते [[धर्म]] प्रचार के लिए सन [[1940]] ई० में "अखिल भारतीए धर्म संघ" की स्थापना की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, सर्वोधिश्थान भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।
सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते [[धर्म]] प्रचार के लिए सन [[1940]] ई० में "अखिल भारतीए धर्म संघ" की स्थापना की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।
 
==मृत्यु==
==मृत्यु==
[[माघ]] शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 ([[7 फरवरी]] [[1962]]) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधी दी गई|
सन [[1982]] को केदारघाट, [[वाराणसी]] में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर को केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधी दी गई।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.swamisridindayaluji.in/karpatri.php स्वामी करपात्री जी]
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 11:44, 3 August 2017

250px|thumb|right|स्वामी करपात्री धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज (अंग्रेज़ी: Swami Karpatri, जन्म- 1907 ई., मृत्यु- 1982 ई.) एक प्रख्यात भारतीय संत एवं संन्यासी राजनेता थे। धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक पार्टी के संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को "हिन्दू धर्म सम्राट" की उपाधि मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व हिन्दू धर्म प्रवर्तक थे। इनका वास्तविक नाम 'हर नारायण ओझा' था।

जन्म

स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम 'हरि नारायण' रखा गया।

बचपन

250px|thumb|right|स्वामी करपात्री स्वामी श्री 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन करते रहे। वस्तुतः 9 वर्ष की आयु में सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न होने के पशचात 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया। उसी वर्ष स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली। हरि नारायण से ' हरिहर चैतन्य ' बने।

शिक्षा

नैष्ठिक ब्रह्म्चारिय पंडित श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्क्रिताध्याय्न षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।

तपो जीवन

17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, सन्न्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण "करपात्री" कहलाए।

दण्ड ग्रहण

24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर "अभिनवशंकर" के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए।

अखिल भारतीय राम राज्य परिषद

अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।

धर्मसंघ की स्थापना

सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते धर्म प्रचार के लिए सन 1940 ई० में "अखिल भारतीए धर्म संघ" की स्थापना की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।

मृत्यु

सन 1982 को केदारघाट, वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर को केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधी दी गई।


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