किरातार्जुनीयम्: Difference between revisions
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वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥30॥<ref>महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयम्, द्वितीय सर्ग</ref></poem> | वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥30॥<ref>महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयम्, द्वितीय सर्ग</ref></poem> | ||
अर्थात् "किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता आपदाओं का आश्रय स्थान होती है। अच्छी प्रकार से गुणों की लोभी संपदाएं विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, उसके पास चली आती हैं"। | |||
उपरोक्त [[श्लोक]] में कहा गया है कि संपदाएं गुणी व्यक्ति का वरण करती हैं। यहाँ गुण शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नीतिकार का इशारा उन गुणों से है, जिनके माध्यम से व्यक्ति किसी कार्य के लिए समुचित अवसर तलाशता है, उसे कब और कैसे सिद्ध करें, इसका निर्णय लेता है और तदर्थ संसाधन जुटाता है। यहाँ गुण शब्द का अर्थ सद्गुणों से नहीं है। परिणामों का सही आकलन करके कार्य करने का कौशल ही गुण है। | उपरोक्त [[श्लोक]] में कहा गया है कि संपदाएं गुणी व्यक्ति का वरण करती हैं। यहाँ गुण शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नीतिकार का इशारा उन गुणों से है, जिनके माध्यम से व्यक्ति किसी कार्य के लिए समुचित अवसर तलाशता है, उसे कब और कैसे सिद्ध करें, इसका निर्णय लेता है और तदर्थ संसाधन जुटाता है। यहाँ गुण शब्द का अर्थ सद्गुणों से नहीं है। परिणामों का सही आकलन करके कार्य करने का कौशल ही गुण है। | ||
<poem>अभिवर्षति | <poem>अभिवर्षति यो9नुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा । | ||
स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इव अधितिष्ठति ॥31॥<ref>महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयम्, द्वितीय सर्ग</ref></poem> | स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इव अधितिष्ठति ॥31॥<ref>महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयम्, द्वितीय सर्ग</ref></poem> | ||
अर्थात् "जो कृत्य या करने योग्य कार्य रूपी बीजों को विवेक रूपी जल से धैर्य के साथ सींचता है, वह मनुष्य फलदायी [[शरद ऋतु]] की भांति कर्म की सफलता को प्राप्त करता है"। इस [[श्लोक]] में नीतिकार ने कार्य को फ़सल के बीज को, बुद्धिमत्ता के पौधे को सींचने हेतु [[जल]] तथा फल की प्राप्ति को शरद-ऋतु में तैयार फ़सल की उपमा दी है। | |||
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किरातार्जुनीयम् प्रसिद्ध प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में से एक है। इसे एक उत्कृष्ट काव्य रचना माना जाता है। इसके रचनाकार महाकवि भारवि हैं, जिनका समय छठी-सातवीं शताब्दी माना जाता है। यह रचना 'किरात' रूपधारी शिव एवं पांडु पुत्र अर्जुन के बीच हुए धनुर्युद्ध तथा वार्तालाप पर आधारित है। 'महाभारत' में वर्णित किरातवेशी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघु कथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति, युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत है।
कथावस्तु
भारवि की कीर्ति का आधार-स्तम्भ उनकी एकमात्र रचना ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य है, जिसकी कथावस्तु महाभारत से ली गई है। इसमें अर्जुन तथा 'किरात' वेशधारी शिव के बीच युद्ध का वर्णन है। अन्ततोगत्वा शिव प्रसन्न होकर अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्रदान करते हैं।
वीर रस प्रधान
किरातार्जुनीयम् एक वीर रस प्रधान 18 सर्गों का महाकाव्य है। इनका प्रारम्भ 'श्री' शब्द से होता है तथा प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में ‘लक्ष्मी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यह कृति अपने अर्थगौरव के लिए प्रसिद्ध है।[1] कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। प्राकृतिक दृश्यों तथा ऋतुओं का वर्णन भी रमणीय है।
काव्य चातुर्य और भाषा
भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है। कहीं-कहीं कविता में कठिनता भी आ गई है। इस कारण विद्वानों ने इनकी कविता को ‘नारिकेल फल के समान’ बताया है। किरात में राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी अत्यन्त उत्कृष्टता के साथ में किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। कवि में कोमल तथा उग्र दोनों प्रकार के भावों को प्रकट करने की समान शक्ति एवं सामर्थ्य थी। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है।
कथा
'किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य की कथा इस प्रकार है-
जब युधिष्ठिर कौरवों के साथ हुई द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गये तो वह अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ 13 वर्ष के लिए वनवास चले गये। उन्होंने अधिकांश समय द्वैतवन में व्यतीत किया। वनवास के कष्टों से परेशान होकर और कौरवों द्वारा चली गयी चालों को याद करके द्रौपदी युधिष्ठिर को प्रेरित करती थीं कि वे युद्ध की तैयारी करें और युद्ध करके कौरवों से अपना राजपाट वापस ले लें। भीम भी द्रौपदी का पक्ष लेते हैं। संभावित युद्ध की तैयारी के लिए महर्षि व्यास उन्हें परामर्श देते हैं कि अर्जुन तपस्या करके शिव को प्रसन्न करे और उनसे 'अमोघ आयुध' प्राप्त करें । महर्षि व्यास अर्जुन के साथ एक यक्ष को भेजते हैं, जो अर्जुन को हिमालय पर छोड़ आता है, जहां अर्जुन को तप करना है। 'एक जंगली सुअर को तुमने नहीं मैंने मार गिराया' इस दावे को लेकर अर्जुन का किरात (वनवासी एक जन जाति) रूपधारी शिव के साथ पहले विवाद और फिर युद्ध होता है। अंत में शिव अपने असली रूप में प्रकट होकर आयुधों से अर्जुन को उपकृत करते हैं।
नीति वचन
इस पूरे प्रकरण में द्रौपदी की बातों के समर्थन में भीम द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कुछ एक नीति वचन कहे गये हैं -
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥30॥[2]
अर्थात् "किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता आपदाओं का आश्रय स्थान होती है। अच्छी प्रकार से गुणों की लोभी संपदाएं विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, उसके पास चली आती हैं"।
उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि संपदाएं गुणी व्यक्ति का वरण करती हैं। यहाँ गुण शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नीतिकार का इशारा उन गुणों से है, जिनके माध्यम से व्यक्ति किसी कार्य के लिए समुचित अवसर तलाशता है, उसे कब और कैसे सिद्ध करें, इसका निर्णय लेता है और तदर्थ संसाधन जुटाता है। यहाँ गुण शब्द का अर्थ सद्गुणों से नहीं है। परिणामों का सही आकलन करके कार्य करने का कौशल ही गुण है।
अभिवर्षति यो9नुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा ।
स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इव अधितिष्ठति ॥31॥[3]
अर्थात् "जो कृत्य या करने योग्य कार्य रूपी बीजों को विवेक रूपी जल से धैर्य के साथ सींचता है, वह मनुष्य फलदायी शरद ऋतु की भांति कर्म की सफलता को प्राप्त करता है"। इस श्लोक में नीतिकार ने कार्य को फ़सल के बीज को, बुद्धिमत्ता के पौधे को सींचने हेतु जल तथा फल की प्राप्ति को शरद-ऋतु में तैयार फ़सल की उपमा दी है।
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