उत्तर काण्ड वा. रा.: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ") |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | |||
|चित्र=Ramayana.jpg | |||
|चित्र का नाम=वाल्मीकि रामायण | |||
|विवरण='रामायण' लगभग चौबीस हज़ार [[श्लोक|श्लोकों]] का एक अनुपम [[महाकाव्य]] है, जिसके माध्यम से [[रघु वंश]] के [[राम|राजा राम]] की गाथा कही गयी है। | |||
|शीर्षक 1=रचनाकार | |||
|पाठ 1=[[वाल्मीकि|महर्षि वाल्मीकि]] | |||
|शीर्षक 4=मुख्य पात्र | |||
|पाठ 4=[[राम]], [[लक्ष्मण]], [[सीता]], [[हनुमान]], [[सुग्रीव]], [[अंगद]], [[मेघनाद]], [[विभीषण]], [[कुम्भकर्ण]] और [[रावण]]। | |||
|शीर्षक 3=भाषा | |||
|पाठ 3=[[संस्कृत]] | |||
|शीर्षक 5=सात काण्ड | |||
|पाठ 5=[[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]], [[अयोध्या काण्ड वा. रा.|अयोध्याकाण्ड]], [[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकाण्ड]], [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धाकाण्ड]], [[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकाण्ड]], [[युद्ध काण्ड वा. रा.|युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड)]], [[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तराकाण्ड]]। | |||
|शीर्षक 2=रचनाकाल | |||
|पाठ 2=[[त्रेता युग]] | |||
|शीर्षक 6= | |||
|पाठ 6= | |||
|शीर्षक 7= | |||
|पाठ 7= | |||
|शीर्षक 8= | |||
|पाठ 8= | |||
|शीर्षक 9= | |||
|पाठ 9= | |||
|शीर्षक 10= | |||
|पाठ 10= | |||
|संबंधित लेख=[[रामचरितमानस]], [[रामलीला]], [[पउम चरिउ]], [[रामायण सामान्य ज्ञान]], [[भरत मिलाप]]। | |||
|अन्य जानकारी=रामायण के सात काण्डों में कथित सर्गों की गणना करने पर सम्पूर्ण रामायण में 645 सर्ग मिलते हैं। सर्गानुसार श्लोकों की संख्या 23,440 आती है, जो 24,000 से 560 [[श्लोक]] कम है। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
|अद्यतन= | |||
}} | |||
'''उत्तरकाण्ड''' [[वाल्मीकि]] द्वारा रचित प्रसिद्ध [[हिन्दू]] ग्रंथ '[[रामायण]]' और [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]] कृत '[[रामचरितमानस|श्रीरामचरितमानस]]' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। | '''उत्तरकाण्ड''' [[वाल्मीकि]] द्वारा रचित प्रसिद्ध [[हिन्दू]] ग्रंथ '[[रामायण]]' और [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]] कृत '[[रामचरितमानस|श्रीरामचरितमानस]]' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। | ||
==सर्ग तथा श्लोक== | ==सर्ग तथा श्लोक== | ||
Line 12: | Line 41: | ||
"[[ब्रह्मा]] के पुत्र मुनिवर [[पुलस्त्य]] हुए और पुलस्त्य से [[विश्रवा|महर्षि विश्रवा]] का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और [[कैकसी]]। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष [[कुबेर]] का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले [[रावण]] का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम [[कुम्भकर्ण]] और तीसरे का [[विभीषण]] था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन [[शूर्पणखा]] हुई। रावण से [[मेघनाद]] का जन्म हुआ। उसने [[इन्द्र]] को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित' के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने [[लक्ष्मण]] के द्वारा उसका वध करा दिया।" ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये। | "[[ब्रह्मा]] के पुत्र मुनिवर [[पुलस्त्य]] हुए और पुलस्त्य से [[विश्रवा|महर्षि विश्रवा]] का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और [[कैकसी]]। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष [[कुबेर]] का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले [[रावण]] का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम [[कुम्भकर्ण]] और तीसरे का [[विभीषण]] था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन [[शूर्पणखा]] हुई। रावण से [[मेघनाद]] का जन्म हुआ। उसने [[इन्द्र]] को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित' के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने [[लक्ष्मण]] के द्वारा उसका वध करा दिया।" ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये। | ||
====मथुरा नगरी की स्थापना==== | ====मथुरा नगरी की स्थापना==== | ||
[[देवता|देवताओं]] की प्रार्थना से प्रभावित [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] के आदेश से [[शत्रुघ्न]] ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो '[[मथुरा]]' नाम से प्रसिद्ध हुई। | [[देवता|देवताओं]] की प्रार्थना से प्रभावित [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] के आदेश से [[शत्रुघ्न]] ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो '[[मथुरा]]' नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात् [[भरत]] ने [[श्रीराम]] की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया। फिर उस देश के ([[गान्धार]] और [[मद्र]]) दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया। | ||
====श्रीराम का परमधाम गमन==== | ====श्रीराम का परमधाम गमन==== | ||
इसके बाद भरत और शत्रुघ्न [[अयोध्या]] में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली-भाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी [[सीता]] को वन में छोड़ दिया था। वहाँ [[वाल्मीकि|वाल्मीकि मुनि]] के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम [[लव कुश|कुश]] और [[लव कुश|लव]] थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] को भली-भाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। | इसके बाद भरत और शत्रुघ्न [[अयोध्या]] में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली-भाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी [[सीता]] को वन में छोड़ दिया था। वहाँ [[वाल्मीकि|वाल्मीकि मुनि]] के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम [[लव कुश|कुश]] और [[लव कुश|लव]] थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] को भली-भाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात् उन दोनों को कोसल के दो राज्यों पर अभिषिक्त करके, "मैं ब्रह्म हूँ" इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में ग्यारह हज़ार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके बाद [[सीता]] के पुत्र [[कौशल महाजनपद|कोसल जनपद]] के राजा हुए। [[अग्निदेव]] कहते हैं- "[[वसिष्ठ|वसिष्ठ जी]]! [[नारद|देवर्षि नारद]] से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तार पूर्वक '[[रामायण]]' नामक [[महाकाव्य]] की रचना की। जो इस प्रसंग को सुनता है, वह स्वर्ग लोक को जाता है। | ||
Latest revision as of 07:45, 23 June 2017
उत्तर काण्ड वा. रा.
| |
विवरण | 'रामायण' लगभग चौबीस हज़ार श्लोकों का एक अनुपम महाकाव्य है, जिसके माध्यम से रघु वंश के राजा राम की गाथा कही गयी है। |
रचनाकार | महर्षि वाल्मीकि |
रचनाकाल | त्रेता युग |
भाषा | संस्कृत |
मुख्य पात्र | राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, मेघनाद, विभीषण, कुम्भकर्ण और रावण। |
सात काण्ड | बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड), उत्तराकाण्ड। |
संबंधित लेख | रामचरितमानस, रामलीला, पउम चरिउ, रामायण सामान्य ज्ञान, भरत मिलाप। |
अन्य जानकारी | रामायण के सात काण्डों में कथित सर्गों की गणना करने पर सम्पूर्ण रामायण में 645 सर्ग मिलते हैं। सर्गानुसार श्लोकों की संख्या 23,440 आती है, जो 24,000 से 560 श्लोक कम है। |
उत्तरकाण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ 'रामायण' और गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।
सर्ग तथा श्लोक
उत्तरकाण्ड में राम के राज्याभिषेक के अनन्तर कौशिकादि महर्षियों का आगमन, महर्षियों के द्वारा राम को रावण के पितामह, पिता तथा रावण का जन्मादि वृत्तान्त सुनाना, सुमाली तथा माल्यवान के वृत्तान्त, रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण आदि का जन्म-वर्णन, रावणादि सभी भाइयों को ब्रह्मा से वरदान-प्राप्ति, रावण-पराक्रम-वर्णन के प्रसंग में कुबेरादि देवताओं का घर्षण, रावण सम्बन्धित अनेक कथाएँ, सीता के पूर्वजन्म रूप वेदवती का वृत्तान्त, वेदवती का रावण को शाप, सहस्त्रबाहु अर्जुन के द्वारा नर्मदा अवरोध तथा रावण का बन्धन, रावण का बालि से युद्ध और बालि की काँख में रावण का बन्धन, सीता-परित्याग, सीता का वाल्मीकि आश्रम में निवास, निमि, नहुष, ययाति के चरित, शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर वध, शंबूक वध तथा ब्राह्मण पुत्र को जीवन प्राप्ति, भार्गव चरित, वृत्रासुर वध प्रसंग, किंपुरुषोत्पत्ति कथा, राम का अश्वमेध यज्ञ, वाल्मीकि के साथ राम के पुत्र लव कुश का रामायण गाते हुए अश्वमेध यज्ञ में प्रवेश, राम की आज्ञा से वाल्मीकि के साथ आयी सीता का राम से मिलन, सीता का रसातल में प्रवेश, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के पुत्रों का पराक्रम वर्णन, दुर्वासा-राम संवाद, राम का सशरीर स्वर्गगमन, राम के भ्राताओं का स्वर्गगमन, तथा देवताओं का राम का पूजन विशेष आदि वर्णित है।
उत्तरकाण्ड में 111 सर्ग तथा 3,432 श्लोक प्राप्त होते हैं। बृहद्धर्मपुराण के अनुसार इस काण्ड का पाठ आनन्दात्मक कार्यों, यात्रा आदि में किया जाता है-
य: पठेच्छृणुयाद् वापि काण्डमभ्युदयोत्तरम्।
आनन्दकार्ये यात्रायां स जयी परतोऽत्र वा॥[1]
संक्षिप्त कथा
नारद जी कहते हैं- जब रघुनाथ जी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करने के लिये गये। वहाँ उनका भली-भाँति स्वागत-सत्कार हुआ। तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा- "भगवन! आप धन्य हैं, जो लंका में विजयी हुए और इन्द्रजित जैसे राक्षस को मार गिराया। अब हम उनकी उत्पत्ति कथा बतलाते हैं, सुनिये-
"ब्रह्मा के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और कैकसी। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले रावण का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण और तीसरे का विभीषण था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन शूर्पणखा हुई। रावण से मेघनाद का जन्म हुआ। उसने इन्द्र को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित' के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध करा दिया।" ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये।
मथुरा नगरी की स्थापना
देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो 'मथुरा' नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात् भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया। फिर उस देश के (गान्धार और मद्र) दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया।
श्रीराम का परमधाम गमन
इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली-भाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता को वन में छोड़ दिया था। वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचन्द्र जी को भली-भाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात् उन दोनों को कोसल के दो राज्यों पर अभिषिक्त करके, "मैं ब्रह्म हूँ" इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में ग्यारह हज़ार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके बाद सीता के पुत्र कोसल जनपद के राजा हुए। अग्निदेव कहते हैं- "वसिष्ठ जी! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तार पूर्वक 'रामायण' नामक महाकाव्य की रचना की। जो इस प्रसंग को सुनता है, वह स्वर्ग लोक को जाता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहद्धर्मपुराण 26…14