एकादशी: Difference between revisions
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प्रत्येक मास में दो एकादशी होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा के दस दिन बाद ग्यारहवीं तिथि एकादशी कहलाती है। एकादशी का व्रत पुण्य संचय करने में सहायक होता है। प्रत्येक पक्ष की एकादशी का अपना महत्व है। एकादशी व्रत का अर्थ विस्तार यह भी कहा जाता है कि एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य का अर्चन-वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत ही एकादशी है। इस व्रत में स्वाध्याय की सहज वृत्ति अपनाकर ईश आराधना में लगना और दिन-रात केवल ईश चितंन की स्थिति में रहने का यत्न एकादशी का व्रत करना माना जाता है। स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान, गौ दान, कन्यादान आदि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है एवं ग्रहण के समय स्नान-दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, कठिन तपस्या, तीर्थयात्रा एवं अश्वमेधादि यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, इन सबसे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से प्राप्त होता है। | प्रत्येक मास में दो एकादशी होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा के दस दिन बाद ग्यारहवीं तिथि एकादशी कहलाती है। एकादशी का व्रत पुण्य संचय करने में सहायक होता है। प्रत्येक पक्ष की एकादशी का अपना महत्व है। एकादशी व्रत का अर्थ विस्तार यह भी कहा जाता है कि एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य का अर्चन-वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत ही एकादशी है। इस व्रत में स्वाध्याय की सहज वृत्ति अपनाकर ईश आराधना में लगना और दिन-रात केवल ईश चितंन की स्थिति में रहने का यत्न एकादशी का व्रत करना माना जाता है। स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान, गौ दान, कन्यादान आदि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है एवं ग्रहण के समय स्नान-दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, कठिन तपस्या, तीर्थयात्रा एवं अश्वमेधादि यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, इन सबसे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से प्राप्त होता है। | ||
==पद्म पुराण के अनुसार== | ==पद्म पुराण के अनुसार== |
Revision as of 11:53, 13 May 2010
एकादशी / Ekadashi
प्रत्येक मास में दो एकादशी होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा के दस दिन बाद ग्यारहवीं तिथि एकादशी कहलाती है। एकादशी का व्रत पुण्य संचय करने में सहायक होता है। प्रत्येक पक्ष की एकादशी का अपना महत्व है। एकादशी व्रत का अर्थ विस्तार यह भी कहा जाता है कि एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य का अर्चन-वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत ही एकादशी है। इस व्रत में स्वाध्याय की सहज वृत्ति अपनाकर ईश आराधना में लगना और दिन-रात केवल ईश चितंन की स्थिति में रहने का यत्न एकादशी का व्रत करना माना जाता है। स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान, गौ दान, कन्यादान आदि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है एवं ग्रहण के समय स्नान-दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, कठिन तपस्या, तीर्थयात्रा एवं अश्वमेधादि यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, इन सबसे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से प्राप्त होता है।
पद्म पुराण के अनुसार
देवाधिदेव महादेव ने नारद को उपदेश देते हुए कहा- 'एकादशी महान पुण्य देने वाली है। श्रेष्ठ मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए।' विशेष नक्षत्रों के योग से यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी नाम से जानी जाती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी यदि पुनर्वसु नक्षत्र के सुयोग से हो तो 'जया' कहलाती है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष की ही द्वादशी को श्रवण नक्षत्र हो तो 'विजया' कहलाती है और रोहिणी नक्षत्र होने पर तिथि 'जयन्ती' कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का सुयोग होने पर 'पापनाशिनी' तिथि बनती है। एकादशी व्रतों का जहाँ ज्योतिष गणना के अनुसार समय-दिन निर्धारित होता है, वहीं उनका नक्षत्र आगे-पीछे आने वाली अन्य तिथियों के साथ संबध व्रत की महत्ता बढ़ाता है।
एकादशी का भोजन
एकादशी के व्रत में अन्न खाने का निषेध है, केवल एक समय फलाहारी भोजन ही किया जाता है। इस व्रत में कोई भी अनाज सामान्य नमक, लाल मिर्च और अन्य मसाले व्रती को नहीं खाने चाहिए। सामान्य नमक की जगह सेंधा नमक और काली मिर्च प्रयोग किए जाते हैं। साथ ही कुटू और सिंघाड़े का आटा, रामदाना, खोए से बनी मिठाईयाँ, दूध-दही और फलों का प्रयोग इस व्रत में किया जाता है और दान भी इन्हीं वस्तुओं का किया जाता है। एकादशी का व्रत करने के पश्चात दूसरे दिन द्वादशी को एक व्यक्ति के भोजन योग्य आटा, दाल, नमक,घी आदि और कुछ धन रखकर सीधे के रूप में दान करने का विधान इस व्रत का अविभाज्य अंग है।
एकादशी का फल
एकादशी व्रत करने वाले के पितृ कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं। एकादशी व्रत करने वाले के दस पुरुषा पितृ पक्ष के, दस पुरुषा मातृ पक्ष के और दस पुरुषा पत्नी पक्ष के बैकुण्ठ को जाते हैं। दूध, पुत्र, धन और कीर्ति को बढ़ाने वाला एकादशी का व्रत है।
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