सांकाश्य: Difference between revisions

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Revision as of 12:50, 7 September 2014

सांकाश्य
विवरण गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। महाभारत काल में सांकाश्य की स्थिति पूर्व पंचाल देश में थी और यह नगर पंचाल की राजधानी कांपिल्य से अधिक दूर नहीं था।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला एटा ज़िला
प्रसिद्धि चीनी यात्री युवानच्वांग ने सांकाश्य का नाम 'कपित्थ' भी लिखा है। संकिसा के उत्तर की ओर एक स्थान 'कारेवर' तथा 'नागताल' नाम से प्रसिद्ध हैं।
अन्य जानकारी जैन मतावलंबी सांकाश्य को तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ की ज्ञान-प्राप्ति का स्थान मानते हैं। यह ग्राम आजकल एक ऊँचे टीले पर स्थित है।

सांकाश्य अथवा 'संकश्या' प्राचीन भारत में पंचाल जनपद का प्रसिद्ध बौद्ध कालीन नगर, जो वर्तमान 'बसंतपुर' (ज़िला एटा, उत्तर प्रदेश) है। यह फ़र्रुख़ाबाद के निकट स्थित है। सांकाश्य का सर्वप्रथम उल्लेख संभवत: वाल्मीकि रामायण[1] में है।

सुधन्वा का वध

यहाँ सांकाश्य नरेश 'सुधन्वा' का जनक की राजधानी मिथिला पर आक्रमण करने का उल्लेख है। सुधन्वा सीता से विवाह करने का इच्छुक था। जनक के साथ युद्ध में सुधन्वा मारा गया तथा सांकाश्य के राज्य का शासक जनक ने अपने भाई कुशध्वज को बना दिया। उर्मिला इन्हीं कुशध्वज की पुत्री थी-

'कस्यचित्त्वथ कालस्य सांकाश्यादागत: पुरात्, सुधन्व्रा वीर्यवान् राजा मिथिलामवरोधक:। निहत्य तं मुनिश्रेष्ठ सुधन्वानं नराधिपम् सांकाश्ये भ्रातरं शूरमभ्यषिञ्चं कुशध्वजम्।'

बुद्ध का आगमन

गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। इस स्वर्ग में वे अपनी माता तथा तैंतीस देवताओं को अभिधम्म की शिक्षा देने गए थे। पाली दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध तीन सीढ़ियों द्वारा स्वर्ग से उतरे थे और उनके साथ ब्रह्मा और शक भी थे। इस घटना से संबन्ध होने के कारण बौद्ध, सांकाश्य को पवित्र तीर्थ मानते थे और इसी कारण यहाँ अनेक स्तूप एवं विहार आदि का निर्माण हुआ था। यह उनके जीवन की चार आश्चर्यजनक घटनाओं में से एक मानी जाती है।

सांकाश्य ही में बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आनन्द के कहने से स्त्रियों की प्रव्रज्या पर लगाई हुई रोक को तोड़ा था और भिक्षुणी उत्पलवर्णा को दीक्षा देकर स्त्रियों के लिए भी बौद्ध संघ का द्वार खोल दिया था। पालि ग्रंथ 'अभिधानप्पदीपिका' में संकस्स (सांकाश्य) की उत्तरी भारत के बीस प्रमुख नगरों में गणना की गई है। पाणिनी ने[2] में सांकाश्य की स्थिति इक्षुमती नदी पर कहीं है, जो संकिसा के पास बहने वाली ईखन है।

फ़ाह्यान द्वारा उल्लेख

5वीं शती में चीनी यात्री फ़ाह्यान ने संकिसा के जनपद के संख्यातीत बौद्ध विहारों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि यहाँ इतने अधिक विहार थे कि कोई मनुष्य एक-दो दिन ठहर कर तो उनकी गिनती भी नहीं कर सकता था। संकिसा के संघाराम में उस समय छ: या सात सौ भिक्षुओं का निवास था। युवानच्वांग ने 7वीं शती में सांकाश्य में स्थित एक 70 फुट ऊँचे स्तम्भ का उल्लेख किया है, जिसे राजा अशोक ने बनवाया था। इसका रंग बैंजनी था। यह इतना चमकदार था कि जल से भीगा सा जान पड़ता था। स्तम्भ के शीर्ष पर सिंह की विशाल प्रतिमा जटित थी, जिसका मुख राजाओं द्वारा बनाई हुई सीढ़ियों की ओर था। इस स्तम्भ पर चित्र-विचित्र रचनायें बनी थीं, जो बौद्धों के विश्वास के अनुसार केवल साधु पुरुषों को ही दिखलाई देती थीं। चीनी-यात्री ने इस स्तम्भ का जो वर्णन किया है, वह वास्तव में अद्भुत है। यह स्तम्भ सांकाश्य की खुदाई में अभी तक नहीं मिला है।

स्तम्भ-शीर्ष

विषहरी देवी के मन्दिर के पास जो स्तम्भ-शीर्ष रखा है, वह सम्भवत: एक विशाल हाथी की प्रतिमा है न कि सिंह की। इस प्रकार इसका अशोक स्‍तम्‍भ का शीर्ष होना संदिग्ध है। युवांगच्वांग ने सांकाश्य का नाम 'कपित्थ' भी लिखा है। संकिसा के उत्तर की ओर एक स्थान 'कारेवर' तथा 'नागताल' नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन किंवदंती के अनुसार कारेवर एक विशाल सर्प का नाम था। लोग उसकी पूजा करते थे और इस प्रकार उसकी कृपा से आसपास का क्षेत्र सुरक्षित रहता था। ताल के चिह्न आज भी हैं। इसकी परिक्रमा बौद्ध यात्री करते हैं।

ज्ञान-प्राप्ति का स्थान

जैन मतावलंबी सांकाश्य को तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ की ज्ञान-प्राप्ति का स्थान मानते हैं। संकिसा ग्राम आजकल एक ऊँचे टीले पर स्थित है। इसके आसपास अनेक टीले हैं, जिन्हें 'कोटपाकर', 'कोटमुझा', 'कोटद्वारा', 'ताराटीला', 'गौंसरताल' आदि नामों से अभिहित किया जाता है। इसका उत्खनन होने पर इस स्थान से अनेक बहुमूल्य प्राचीन अवशेषों के प्राप्त होने की आशा है। प्राचीन सांकाश्य पर्याप्त बड़ा नगर रहा होगा, क्योंकि इसकी नगर-भित्ति के अवशेष जो आज भी वर्तमान हैं, प्राय: 4 मील के घेरे में हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाल्मीकि आदि. 71, 16-19
  2. पाली कथाओं 4,2,80

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