भगीरथ: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "॰" to ".") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "==सम्बंधित लिंक==" to "==संबंधित लेख==") |
||
Line 18: | Line 18: | ||
<references/> | <references/> | ||
== | ==संबंधित लेख== | ||
{{गंगा नदी}} | {{गंगा नदी}} | ||
{{रामायण}} | {{रामायण}} |
Revision as of 16:36, 14 September 2010
राजा सगर के बाद अंशुमान राजा हुए। उनके पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप को राज्य-भार सौंप, गंगा को पृथ्वी पर लाने की चिंता में ग्रस्त उन्होंने तपस्या करते हुए शरीर त्याग किया। दिलीप गंगा को पृथ्वी पर लाने का कोई मार्ग न सोच पाये और बीमार होकर स्वर्ग सिधार गये। दिलीप के घर भगीरथ नामक पुत्र का जन्म हुआ। भगीरथ के सामने बाबा का वचन और पिता का तप था। उन्होंने तप में मन लगा दिया।
ब्रह्मा द्वारा प्राप्त वर
भगीरथ पुत्रहीन थे। उन्होंने राज्यभार अपने मन्त्रियों को सौंपा और स्वयं गौकर्ण तीर्थ में जाकर घोर तपस्या करने लगे। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर उन्होंने दो वर माँगे—एक तो यह कि गंगा जल चढ़ाकर भस्मीभूत पितरों को स्वर्ग प्राप्त करवा पायें और दूसरा यह कि उनको कुल की सुरक्षा करने वाला पुत्र प्राप्त हो। ब्रह्मा ने उन्हें दोनों वर दिये, साथ ही यह भी कहा कि गंगा का वेग इतना अधिक है कि पृथ्वी उसे संभाल नहीं सकती। शंकर भगवान की सहायता लेनी होगी। ब्रह्मा के देवताओं सहित चले जाने के उपरान्त भगीरथ ने पैर के अंगूठों पर खड़े होकर एक वर्ष तक तपस्या की। शंकर ने प्रसन्न होकर गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया। गंगा को अपने वेग पर अभिमान था। उन्होंने सोचा था कि उनके वेग से शिव पाताल में पहुँच जायेंगे। शिव ने यह जानकर उन्हें अपनी जटाओं में ऐसे समा लिया कि उन्हें वर्षों तक शिव-जटाओं से निकलने का मार्ग नहीं मिला।
धरती पर गंगा का अवतरण
भगीरथ ने फिर से तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर उसे बिंदुसर की ओर छोड़ा। वे सात धाराओं के रूप में प्रवाहित हुईं। ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व दिशा की ओर; सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु पश्चिम की ओर बढ़ी। सातवीं धारा राजा भगीरथ की अनुगामिनी हुई। राजा भगीरथ गंगा में स्नान करके पवित्र हुए और अपने दिव्य रथ पर चढ़कर चल दिये। गंगा उनके पीछे-पीछे चलीं। मार्ग में अभिमानिनी गंगा के जल से जह्नुमुनि की यज्ञशाला बह गयी। क्रुद्ध होकर मुनि ने सम्पूर्ण गंगा जल पी लिया। इस पर चिंतित समस्त देवताओं ने जह्नुमुनि का पूजन किया तथा गंगा को उनकी पुत्री कहकर क्षमा-याचना की। जह्नु ने कानों के मार्ग से गंगा को बाहर निकाला। तभी से गंगा जह्नुसुता जान्हवी भी कहलाने लगीं। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुँच गयीं। भगीरथ उन्हें रसातल ले गये तथा पितरों की भस्म को गंगा से सिंचित कर उन्हें पाप-मुक्त कर दिया। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा—“हे भगीरथ, जब तक समुद्र रहेगा, तुम्हारे पितर देववत माने जायेंगे तथा गंगा तुम्हारी पुत्री कहलाकर भागीरथी नाम से विख्यात होगी। साथ ही वह तीन धाराओं में प्रवाहित होगी, इसलिए त्रिपथगा कहलायेगी।’’[1]
महाभारत के अनुसार
भगीरथ अंशुमान का पौत्र तथा दिलीप का पुत्र था। उसे जब विदित हुआ कि उसके पितरों को (सगर के साठ हज़ार पुत्रों को) सदगति तब मिलेगी जब वे गंगाजल का स्पर्श प्राप्त कर लेंगे, तो अत्यंत अधीरता से अपना राज्य मन्त्री को सौंपकर वह हिमालय पर चला गया। वहाँ तपस्या से उसने गंगा को प्रसन्न किया। गंगा ने कहा कि वह तो सहर्ष पृथ्वी पर अवतरित हो जायेगी, पर उसके पानी के वेग को शिव ही थाम सकते हैं, अन्य कोई नहीं। अत: भगीरथ ने पुन: तपस्या प्रारम्भ की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा का वेग थामने की स्वीकृति दे दी। गंगा भूतल पर अवतरित होने से पूर्व हिमालय में शिव की जटाओं पर उतरी, वहाँ वेग शान्त होने पर वह पृथ्वी पर अवतरित हुई तथा भगीरथ का अनुसरण करते हुए सूखे समुद्र तक पहुँची, जिसका जल अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। उस समुद्र को भरकर गंगा ने पाताल स्थित सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार किया। गंगा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का स्पर्श करने के कारण त्रिपथगा कहलायी। गंगा को भगीरथ ने अपनी पुत्री बना लिया।
राजा भगीरथ ने सौ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उनके महान यज्ञ में इन्द्र सोमपान कर मदमस्त हो गये थे। भगीरथ ने गंगा के किनारे दो स्वर्ण घाट बनवाये थे। उन्होंने रथ में बैठी अनेक सुन्दर कन्याएँ धन-धान्य सहित, ब्राह्मणों को दानस्वरूप दी थी। गंगा उनकी पुत्री होने के कारण भागीरथी कहलायी। राजा भगीरथ के संकल्प कालिक जलप्रवाह से आक्रांत होकर गंगा राजा की गोद में जा बैठी। भगीरथ की पुत्री होने के नाते जो गंगा भागीरथी कहलायी थी, वही गंगा राजा के उरु (जंघा) पर बैठने के कारण उर्वशी नाम से विख्यात हुई।[2]
शिव पुराण के अनुसार
राजा सगर की दो रानियाँ थीं—सुमति तथा केशिनी। दोनों ने अर्जमुनि को प्रसन्न किया। सुमति ने साठ हज़ार पुत्र माँगे और केशिनी ने एक पुत्र माँगा। इस प्रकार केशिनी के पुत्र का नाम पंचजन्य (असमंजस) पड़ा। उससे क्रमश: अंशुमान, दिलीप, भगीरथ-पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र का जन्म हुआ। भगीरथ ने तप से गंगा को प्रसन्न किया। फिर प्तपस्या से सदाशिव को प्रसन्न किया कि वे पृथ्वी पर उतरती हुई गंगा का वेग ग्रहण कर लें। शिव की जटाओं में गंगा विलीन हो गयी। तपस्या से सदाशिव को प्रसन्न किया तो उन्होंने अपनी जटाओं को निचोड़ा जिससे तीन बूंद जल दिखलायी दिया। एक बूंद धारा बनकर पाताल की ओर चली गयी, दूसरी आकाश की ओर और तीसरी भागीरथी के रूप में भगीरथ के पीछे-पीछे वहाँ पहुँची, जहाँ सगर के साठ सहस्त्र पुत्रों की भस्म थी। जल के स्पर्श से वे मुक्त हो गये। दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे किन्तु वे तपोभूमि में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। उनकी आकांक्षा की पूर्ति उनके पुत्र भगीरथ ने की।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख