त्रिपुण्ड्र: Difference between revisions

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त्रिपुण्ड्र शैव संप्रदाय का धार्मिक चिह्न है, जो भौंहों के समानांतर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। 'कालाग्निरुद्रोपनिषद' में त्रिपुण्ड्र पर ध्यान केंद्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है। यह सांकेतिक चिह्न शाक्तों द्वारा भी अपनाया गया है। यह शिव एवं शक्ति के एकत्व (सायुज्य) का निर्देशक है।[1]

देवताओं का वास

हिन्दू धर्म में त्रिपुण्ड्र का बड़ा ही महत्त्व है। भगवान शिव मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करते हैं। त्रिपुण्ड्र अर्थात् 'तीन आड़ी रेखाएँ'। शिवपुराण और अन्य शास्त्रों के अनुसार इन तीनों रेखाओं में 27 देवताओं का वास है। हर रेखा में नौ-नौ देवता विराजमान हैं। शिवलिंग के विधिवत पूजन के बाद भक्तों को भी इस प्रकार त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिए।

महत्त्व

त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाएँ भगवान शिव के रूप को दर्शाती हैं तथा हर एक रेखा में देवताओं का वास है। यह 'ॐ' का स्वरूप हैं। प्रथम रेखा में 'अ' की ध्वनि है, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा जाता है। इसमें रजोगुण, पृथ्वी, बाहरी आत्मन, धर्म, अभिनय क्षमता, ऋग्वेद, सोम रस, प्रात:स्वन तथा महादेव हैं। यह त्रिपुण्ड की पहली रेखा के देवत्व हैं। दूसरी रेखा में 'ऊं' की ध्वनि है, जो दक्षिणाग्नि रूप है। इसमें सत्वगुण, वातावरण, अंतरात्मा, इच्छाशक्ति, आकाश, यजुर्वेद, सोमा और महेश्वर हैं, जो त्रिपुण्ड की दूसरी रेखा के देव तत्व हैं। तीसरी रेखा 'म' की ध्वनी देती है। यह आहवनीय अग्नि है। तमोगुण, स्वर्ग, परमात्म, सामवेद, ज्ञानशक्ति, सांय सवन तथा महेश्वर इस तीसरी रेखा के त्रिपुण्ड देव हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 305 |
  2. त्रिपुण्ड्र महत्त्व (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 दिसम्बर, 2012।

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