चौहान वंश: Difference between revisions
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चौहान वंश की अनेक शाखाओं में शाकंभरी चौहान (सांभर-[[अजमेर]] के आस पास का क्षेत्र) | '''चौहान वंश''' [[राजपूत|राजपूतों]] के प्रसिद्ध वशों में से एक है। 'चव्हाण' या 'चौहान' [[उत्तर भारत]] की [[आर्य]] जाति का एक वंश है। चौहान गोत्र राजपूतों में आता है। कई विद्वानों का कहना है कि चौहान [[सांभर झील जयपुर|सांभर झील]], [[पुष्कर]], [[आमेर]] और वर्तमान [[जयपुर]] ([[राजस्थान]]) में होते थे, जो अब सारे उत्तर भारत में फैले चुके हैं। इसके अतिरिक्त [[मैनपुरी]] ([[उत्तर प्रदेश]]) एवं [[अलवर ज़िला|अलवर ज़िले]] में भी इनकी अच्छी-ख़ासी संख्या है। | ||
{{tocright}} | |||
==प्रसिद्ध शासक== | |||
चौहान वंश की अनेक शाखाओं में 'शाकंभरी चौहान' (सांभर-[[अजमेर]] के आस-पास का क्षेत्र) की स्थापना लगभग 7वीं [[शताब्दी]] में वासुदेव ने की। वासुदेव के बाद पूर्णतल्ल, जयराज, विग्रहराज प्रथम, चन्द्रराज, गोपराज जैसे अनेक सामंतों ने शासन किया। शासक [[अजयदेव चौहान|अजयदेव]] ने ‘अजमेर’ नगर की स्थापना की और साथ ही यहाँ पर सुन्दर महल एवं मन्दिर का निर्माण करवाया। 'चौहान वंश' के मुख्य शासक इस प्रकार थे- | |||
#[[अजयदेव चौहान]] | |||
#[[अर्णोराज]] (लगभग 1133 से 1153 ई.) | |||
#[[विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव]] (लगभग 1153 से 1163 ई.) | |||
#[[पृथ्वीराज तृतीय]] (1178-1192 ई.) | |||
==राजस्थान के चौहान वंश== | |||
[[राजस्थान]] में चौहानों के कई वंश हुए, जिन्होंने समय-समय पर यहाँ शासन किया और यहाँ की मिट्टी को गौरवांवित किया। 'चौहान' व 'गुहिल' शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना किसी अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। [[चित्तौड़]], बाड़ौली तथा [[आबू]] के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं। चौहान वंश की शाखाओं में निम्न शाखाएँ मुख्य थीं- | |||
#सांभर के चौहान | |||
#रणथम्भौर के चौहान | |||
#जालौर के चौहान | |||
#चौहान वंशीय हाड़ा राजपूत | |||
==सांभर के चौहान== | |||
चौहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस-पास रहते थे। उनकी राजधानी 'अहिच्छत्रपुर' ([[नागौर]]) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदिपुरुष 'वासुदेव' था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को [[सांभर झील जयपुर|सांभर झील]] का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानों को 'वत्सगौत्रीय' ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त थे, परन्तु गुवक प्रथम, जिसने 'हर्षनाथ मन्दिर' (सीकर के पास) का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह [[पुष्कर झील]] में प्रतिदिन एक हज़ार [[दीपक]] जलाकर [[महादेव]] की उपासना करती थी।<ref name="aa">{{cite web |url=http://rajasthanstudy.blogspot.in/2013/09/blog-post_3336.html|title=राजस्थान के विविध रंग|accessmonthday=19 अप्रैल|accessyear=2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
{{लेख प्रगति | [[अजयराज चौहान]] ने 1113 ई. में [[अजमेर]] नगर की स्थापना की। उसके पुत्र [[अर्णोराज]] (आनाजी) ने अजमेर में [[आनासागर झील अजमेर|आनासागर झील]] का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। चौहान शासक [[विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव|विग्रहराज चतुर्थ]] का काल सपादलक्ष का स्वर्ण युग कहलाता है। उसे 'वीसलदेव' और 'कवि बान्धव' भी कहा जाता था। उसने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान् सोमदेव ने 'ललित विग्रहराज’ नामक [[नाटक]] की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। विग्रहराज ने अजमेर में एक [[संस्कृत]] पाठशाला का निर्माण करवाया, जिस पर आगे चलकर [[क़ुतुबुद्दीन ऐबक|क़ुतुबुद्दीन ऐबक]] ने '[[ढाई दिन का झोपड़ा अजमेर|ढाई दिन का झोपड़ा]]' नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने [[तोमर|तोमरों]] को पराजित कर 'ढिल्लिका' ([[दिल्ली]]) को जीता। | ||
|आधार= | ====पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद ग़ोरी==== | ||
|प्रारम्भिक= | इसी वंशक्रम में [[पृथ्वीराज चौहान तृतीय]] [[राजस्थान]] और [[उत्तरी भारत]] का प्रतिभाशाली राजा था। बारहवीं [[शताब्दी]] के अन्तिम चरण में शाकम्भरी के इस चौहान शासक ने अपनी विजयों से उत्तरी भारत की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया था। उसने [[चन्देल वंश|चन्देल]] शासक परमार्दीदेव के देशभक्त सेनानी 'आल्हा' और 'ऊदल' को मारकर 1182 को [[महोबा उत्तर प्रदेश|महोबा]] को जीत लिया। [[कन्नौज]] के [[गहड़वाल वंश|गहड़वाल]] शासक [[जयचन्द्र|जयचन्द]] का दिल्ली को लेकर चौहानों से वैमनस्य था। हालांकि पृथ्वीराज चौहान तृतीय भी अपनी दिग्विजय में कन्नौज को शामिल करना चाहता था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान तृतीय और जयचन्द की महत्त्वाकांक्षा दोनों के वैमनस्य का कारण बन गई। '[[पृथ्वीराजरासो]]' दोनों के मध्य शत्रुता का कारण जयचन्द की पुत्री [[संयोगिता]] को बताता है। पृथ्वीराज तृतीय ने 1191 में [[तराइन का प्रथम युद्ध|तराइन के प्रथम युद्ध]] में [[मुहम्मद ग़ोरी]] को परास्त कर वीरता का समुचित परिचय दिया तथा [[भारत]] में [[तुर्क]] आक्रमण को धक्का पहुंचाया।<ref name="aa"/> | ||
|माध्यमिक= | |||
|पूर्णता= | {| width="40%" align="right" class="bharattable-pink" | ||
|शोध= | |+चौहान वंश की शाखाएँ<ref>{{cite web |url=http://rchauhanms.com/index.php?option=com_content&task=view&id=40&Itemid=70|title=चौहान वंश की शाखाएँ|accessmonthday=12 अप्रैल|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
}} | |- | ||
[[Category: | ! क्रम संख्या | ||
! वंश का नाम | |||
! शाखा की संख्या | |||
|- | |||
|1. | |||
|चौहान राजपूत | |||
|14 शाखा | |||
|- | |||
|2. | |||
|राठौर राजपूत | |||
|12 शाखा | |||
|- | |||
|3. | |||
|परमार या पंवार राजपूत | |||
|16 शाखा | |||
|- | |||
|4. | |||
|सोलंकी राजपूत | |||
|6 शाखा | |||
|- | |||
|5. | |||
|परिहार राजपूत | |||
|6 शाखा | |||
|- | |||
|6. | |||
|गहलोत राजपूत | |||
|12 शाखा | |||
|- | |||
|7. | |||
|चन्द्रवंशी राजपूत | |||
|4 शाखा | |||
|- | |||
|8. | |||
|सेनवंशी या पाल राजपूत | |||
|1 शाखा | |||
|- | |||
|9. | |||
|मकवान या झाला राजपूत | |||
|3 शाखा | |||
|- | |||
|10. | |||
|भाटी या यदुवंशी राजपूत | |||
|5 शाखा | |||
|- | |||
|11. | |||
|[[कछवाहा वंश|कछवाहा]] या कुशवाहा राजपूत | |||
|1 शाखा | |||
|- | |||
|12. | |||
|तंवर या तोमर राजपूत | |||
|1 शाखा | |||
|- | |||
|13. | |||
|र्भूंयार या कौशिक राजपूत | |||
|1 शाखा | |||
|} | |||
====गौरवपूर्ण अध्याय==== | |||
तुर्कों के विरुद्ध लड़े गए युद्धों में तराइन का प्रथम युद्ध चौहानों की विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु [[पृथ्वीराज चौहान]] द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा न किया जाना, इस युद्ध में की गई भूल के रूप में एक कलंकित पृष्ठ माना जाता है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में मुहम्मद ग़ोरी ने [[तराइन का द्वितीय युद्ध|तराइन के द्वितीय युद्ध]] में पृथ्वीराज चौहान तृतीय को पराजित कर दिया। तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की ग़ोरी से हार हो गई, तो उसने आत्मसम्मान को ध्यान में रखते हुए आश्रित शासक बनने की अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता दी। इस हार का कारण राजपूतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चौहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा, जो उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने को प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के वह सभी युद्धों में विजेता रहा था। | |||
====साहित्य तथा विद्वान् संरक्षण==== | |||
पृथ्वीराज स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करने वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और [[कवि]] थे, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाए हुए हैं। जयानक ने '[[पृथ्वीराज विजय]]' की रचना की थी। '[[पृथ्वीराजरासो]]' का लेखक [[चन्दबरदाई]] भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था। 'पृथ्वीराज विजय' के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने जीवनपर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चौहान राज्य की प्रतिभा को [[साहित्य]] और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया। तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक [[शताब्दी]] तक चौहानों की शाखाएँ [[रणथम्भौर]], [[जालौर]], हाड़ौती, नाडौल तथा चन्द्रावती और [[आबू]] में शासन करती रहीं और [[राजपूत]] शक्ति की धुरी बनी रहीं। इन्होंने [[दिल्ली]] के सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया। पूर्व मध्य काल में पराभवों के बावजूद [[राजस्थान]] बौद्धिक उन्नति में नहीं पिछड़ा। चौहान व गुहिल शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा।<ref name="aa"/> | |||
==रणथम्भौर के चौहान== | |||
[[रणथम्भौर]] के चौहान वंश की स्थापना [[पृथ्वीराज चौहान]] के पुत्र गोविन्द राज ने की थी। यहाँ के प्रतिभा सम्पन्न शासकों में [[हम्मीर देव|हम्मीर]] का नाम सर्वोपरि है। [[दिल्ली]] के सुल्तान [[जलालुद्दीन ख़िलजी]] ने हम्मीर के समय रणथम्भौर पर असफल आक्रमण किया था। [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने 1301 में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। इसका मुख्य कारण हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन ख़िलजी के विरुद्ध [[मंगोल]] शरणार्थियों को आश्रय देना था। क़िला न जीत पाने के कारण अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनानायक 'रणमल' और 'रतिपाल' को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। हम्मीर ने आगे बढ़कर शत्रु सेना का सामना किया, पर वह वीरगति को प्राप्त हुआ। हम्मीर की रानी रंगादेवी और पुत्री ने जौहर व्रत द्वारा अपने धर्म की रक्षा की। यह [[राजस्थान]] का प्रथम जौहर माना जाता है। हम्मीर के साथ ही रणथम्भौर के चौहानों का राज्य समाप्त हो गया। हम्मीर के बारे में प्रसिद्ध है- "तिरिया-तेल, हम्मीर हठ, चढे न दूजी बार"। | |||
==जालौर की चौहान शाखा== | |||
जालौर की चौहान शाखा का संस्थापक कीर्तिपाल था। प्राचीन [[शिलालेख|शिलालेखों]] में [[जालौर]] का नाम 'जाबालिपुर' और क़िले का 'सुवर्णगिरि' मिलता है, जिसको [[अपभ्रंश]] में 'सोनगढ़' कहते हैं। इसी [[पर्वत]] के नाम से चौहानों की यह शाखा ’सोनगरा’कहलाई। इस शाखा का प्रसिद्ध शासक कान्हड़दे चौहान था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने जालौर को जीतने से पूर्व 1308 में सिवाना पर आक्रमण किया। उस समय चौहानों के एक सरदार, जिसका नाम सातलदेव था, दुर्ग का रक्षक था। उसने अनेक स्थानों पर तुर्कों को छकाया। इसलिए उसके शौर्य की धाक [[राजस्थान]] में जम चुकी थी। परन्तु एक राजद्रोही भावले नामक सैनिक द्वारा विश्वासघात करने के कारण सिवाना का पतन हो गया और अलाउद्दीन ने [[सिवाना]] जीतकर उसका नाम खैराबाद रख दिया। इस विजय के पश्चात् 1311 में जालौर का भी पतन हो गया और वहाँ का शासक कान्हड़देव वीरगति को प्राप्त हुआ। वह शूरवीर योद्धा, देशाभिमानी तथा चरित्रवान व्यक्ति था। उसने अपने अदम्य साहस तथा सूझबूझ से क़िले के निवासियों, सामन्तों तथा [[राजपूत]] जाति का नेतृत्व कर एक अपूर्व ख्याति अर्जित की थी। | |||
==हाड़ा राजपूत== | |||
वर्तमान हाड़ौती क्षेत्र पर चौहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का अधिकार था। प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर [[मीणा|मीणाओं]] का अधिकार था। ऐसा माना जाता है कि बून्दा मीणा के नाम पर ही [[बूँदी राजस्थान|बूँदी]] का नामकरण हुआ। कुंभाकालीन राणपुर के लेख में बूँदी का नाम ‘वृन्दावती’ मिलता है। राव देवा ने मीणाओं को पराजित कर 1241 में बूँदी राज्य की स्थापना की थी। बूँदी के प्रसिद्ध क़िले तारागढ़ का निर्माण बरसिंह हाड़ा ने करवाया था। तारागढ़ ऐतिहासिक काल में भित्ति चित्रों के लिए विख्यात रहा है। बूँदी के सुर्जनसिंह ने 1569 में [[अकबर]] की अधीनता स्वीकार की थी। बूँदी की प्रसिद्ध चौरासी खंभों की छतरी शत्रुसाल हाड़ा का स्मारक है, जो 1658 में [[सामूगढ़ का युद्ध|सामूगढ़ के युद्ध]] में [[औरंगज़ेब]] के विरुद्ध शाही सेना की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बुद्धसिंह के शासन काल में [[मराठा|मराठों]] ने बूँदी रियासत पर आक्रमण किया था।<ref name="aa"/> | |||
प्रारम्भ में [[कोटा राजस्थान|कोटा]] बूँदी राज्य का ही भाग था, जिसे [[शाहजहाँ]] ने बूँदी से अलग कर माधोसिंह को सौंपकर 1631 ई. में नए राज्य के रूप में मान्यता दी थी। कोटा राज्य का दीवान [[झाला जालिमसिंह]] इतिहास चर्चित व्यक्ति रहा है। कोटा रियासत पर उसका पूर्ण नियन्त्रण था। कोटा में ऐतिहासिक काल से आज तक [[कृष्ण]] की भक्ति का प्रभाव रहा है। इसलिए कोटा का नाम नन्दग्राम भी मिलता हैं। बूँदी-कोटा में सांस्कृतिक उपागम के रूप में यहाँ की चित्र शैलियाँ विख्यात रही हैं। बूँदी में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ अंकन हुआ है, वहीं कोटा शैली शिकार के चित्रों के लिए विख्यात रही है।<ref>संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक</ref> | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
<references/> | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{चौहान वंश}} | |||
{{भारत के राजवंश}} | |||
[[Category:भारत के राजवंश]][[Category:इतिहास कोश]][[Category:चौहान वंश]] | |||
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Latest revision as of 14:27, 6 July 2017
चौहान वंश राजपूतों के प्रसिद्ध वशों में से एक है। 'चव्हाण' या 'चौहान' उत्तर भारत की आर्य जाति का एक वंश है। चौहान गोत्र राजपूतों में आता है। कई विद्वानों का कहना है कि चौहान सांभर झील, पुष्कर, आमेर और वर्तमान जयपुर (राजस्थान) में होते थे, जो अब सारे उत्तर भारत में फैले चुके हैं। इसके अतिरिक्त मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) एवं अलवर ज़िले में भी इनकी अच्छी-ख़ासी संख्या है।
प्रसिद्ध शासक
चौहान वंश की अनेक शाखाओं में 'शाकंभरी चौहान' (सांभर-अजमेर के आस-पास का क्षेत्र) की स्थापना लगभग 7वीं शताब्दी में वासुदेव ने की। वासुदेव के बाद पूर्णतल्ल, जयराज, विग्रहराज प्रथम, चन्द्रराज, गोपराज जैसे अनेक सामंतों ने शासन किया। शासक अजयदेव ने ‘अजमेर’ नगर की स्थापना की और साथ ही यहाँ पर सुन्दर महल एवं मन्दिर का निर्माण करवाया। 'चौहान वंश' के मुख्य शासक इस प्रकार थे-
- अजयदेव चौहान
- अर्णोराज (लगभग 1133 से 1153 ई.)
- विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव (लगभग 1153 से 1163 ई.)
- पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)
राजस्थान के चौहान वंश
राजस्थान में चौहानों के कई वंश हुए, जिन्होंने समय-समय पर यहाँ शासन किया और यहाँ की मिट्टी को गौरवांवित किया। 'चौहान' व 'गुहिल' शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना किसी अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली तथा आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं। चौहान वंश की शाखाओं में निम्न शाखाएँ मुख्य थीं-
- सांभर के चौहान
- रणथम्भौर के चौहान
- जालौर के चौहान
- चौहान वंशीय हाड़ा राजपूत
सांभर के चौहान
चौहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस-पास रहते थे। उनकी राजधानी 'अहिच्छत्रपुर' (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदिपुरुष 'वासुदेव' था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानों को 'वत्सगौत्रीय' ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त थे, परन्तु गुवक प्रथम, जिसने 'हर्षनाथ मन्दिर' (सीकर के पास) का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हज़ार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी।[1]
अजयराज चौहान ने 1113 ई. में अजमेर नगर की स्थापना की। उसके पुत्र अर्णोराज (आनाजी) ने अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल सपादलक्ष का स्वर्ण युग कहलाता है। उसे 'वीसलदेव' और 'कवि बान्धव' भी कहा जाता था। उसने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान् सोमदेव ने 'ललित विग्रहराज’ नामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। विग्रहराज ने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया, जिस पर आगे चलकर क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने 'ढाई दिन का झोपड़ा' नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने तोमरों को पराजित कर 'ढिल्लिका' (दिल्ली) को जीता।
पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद ग़ोरी
इसी वंशक्रम में पृथ्वीराज चौहान तृतीय राजस्थान और उत्तरी भारत का प्रतिभाशाली राजा था। बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में शाकम्भरी के इस चौहान शासक ने अपनी विजयों से उत्तरी भारत की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया था। उसने चन्देल शासक परमार्दीदेव के देशभक्त सेनानी 'आल्हा' और 'ऊदल' को मारकर 1182 को महोबा को जीत लिया। कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचन्द का दिल्ली को लेकर चौहानों से वैमनस्य था। हालांकि पृथ्वीराज चौहान तृतीय भी अपनी दिग्विजय में कन्नौज को शामिल करना चाहता था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान तृतीय और जयचन्द की महत्त्वाकांक्षा दोनों के वैमनस्य का कारण बन गई। 'पृथ्वीराजरासो' दोनों के मध्य शत्रुता का कारण जयचन्द की पुत्री संयोगिता को बताता है। पृथ्वीराज तृतीय ने 1191 में तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी को परास्त कर वीरता का समुचित परिचय दिया तथा भारत में तुर्क आक्रमण को धक्का पहुंचाया।[1]
क्रम संख्या | वंश का नाम | शाखा की संख्या |
---|---|---|
1. | चौहान राजपूत | 14 शाखा |
2. | राठौर राजपूत | 12 शाखा |
3. | परमार या पंवार राजपूत | 16 शाखा |
4. | सोलंकी राजपूत | 6 शाखा |
5. | परिहार राजपूत | 6 शाखा |
6. | गहलोत राजपूत | 12 शाखा |
7. | चन्द्रवंशी राजपूत | 4 शाखा |
8. | सेनवंशी या पाल राजपूत | 1 शाखा |
9. | मकवान या झाला राजपूत | 3 शाखा |
10. | भाटी या यदुवंशी राजपूत | 5 शाखा |
11. | कछवाहा या कुशवाहा राजपूत | 1 शाखा |
12. | तंवर या तोमर राजपूत | 1 शाखा |
13. | र्भूंयार या कौशिक राजपूत | 1 शाखा |
गौरवपूर्ण अध्याय
तुर्कों के विरुद्ध लड़े गए युद्धों में तराइन का प्रथम युद्ध चौहानों की विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु पृथ्वीराज चौहान द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा न किया जाना, इस युद्ध में की गई भूल के रूप में एक कलंकित पृष्ठ माना जाता है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में मुहम्मद ग़ोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तृतीय को पराजित कर दिया। तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की ग़ोरी से हार हो गई, तो उसने आत्मसम्मान को ध्यान में रखते हुए आश्रित शासक बनने की अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता दी। इस हार का कारण राजपूतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चौहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा, जो उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने को प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के वह सभी युद्धों में विजेता रहा था।
साहित्य तथा विद्वान् संरक्षण
पृथ्वीराज स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करने वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थे, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाए हुए हैं। जयानक ने 'पृथ्वीराज विजय' की रचना की थी। 'पृथ्वीराजरासो' का लेखक चन्दबरदाई भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था। 'पृथ्वीराज विजय' के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने जीवनपर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चौहान राज्य की प्रतिभा को साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया। तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक शताब्दी तक चौहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, हाड़ौती, नाडौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं और राजपूत शक्ति की धुरी बनी रहीं। इन्होंने दिल्ली के सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया। पूर्व मध्य काल में पराभवों के बावजूद राजस्थान बौद्धिक उन्नति में नहीं पिछड़ा। चौहान व गुहिल शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा।[1]
रणथम्भौर के चौहान
रणथम्भौर के चौहान वंश की स्थापना पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविन्द राज ने की थी। यहाँ के प्रतिभा सम्पन्न शासकों में हम्मीर का नाम सर्वोपरि है। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हम्मीर के समय रणथम्भौर पर असफल आक्रमण किया था। अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1301 में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। इसका मुख्य कारण हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन ख़िलजी के विरुद्ध मंगोल शरणार्थियों को आश्रय देना था। क़िला न जीत पाने के कारण अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनानायक 'रणमल' और 'रतिपाल' को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। हम्मीर ने आगे बढ़कर शत्रु सेना का सामना किया, पर वह वीरगति को प्राप्त हुआ। हम्मीर की रानी रंगादेवी और पुत्री ने जौहर व्रत द्वारा अपने धर्म की रक्षा की। यह राजस्थान का प्रथम जौहर माना जाता है। हम्मीर के साथ ही रणथम्भौर के चौहानों का राज्य समाप्त हो गया। हम्मीर के बारे में प्रसिद्ध है- "तिरिया-तेल, हम्मीर हठ, चढे न दूजी बार"।
जालौर की चौहान शाखा
जालौर की चौहान शाखा का संस्थापक कीर्तिपाल था। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम 'जाबालिपुर' और क़िले का 'सुवर्णगिरि' मिलता है, जिसको अपभ्रंश में 'सोनगढ़' कहते हैं। इसी पर्वत के नाम से चौहानों की यह शाखा ’सोनगरा’कहलाई। इस शाखा का प्रसिद्ध शासक कान्हड़दे चौहान था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने जालौर को जीतने से पूर्व 1308 में सिवाना पर आक्रमण किया। उस समय चौहानों के एक सरदार, जिसका नाम सातलदेव था, दुर्ग का रक्षक था। उसने अनेक स्थानों पर तुर्कों को छकाया। इसलिए उसके शौर्य की धाक राजस्थान में जम चुकी थी। परन्तु एक राजद्रोही भावले नामक सैनिक द्वारा विश्वासघात करने के कारण सिवाना का पतन हो गया और अलाउद्दीन ने सिवाना जीतकर उसका नाम खैराबाद रख दिया। इस विजय के पश्चात् 1311 में जालौर का भी पतन हो गया और वहाँ का शासक कान्हड़देव वीरगति को प्राप्त हुआ। वह शूरवीर योद्धा, देशाभिमानी तथा चरित्रवान व्यक्ति था। उसने अपने अदम्य साहस तथा सूझबूझ से क़िले के निवासियों, सामन्तों तथा राजपूत जाति का नेतृत्व कर एक अपूर्व ख्याति अर्जित की थी।
हाड़ा राजपूत
वर्तमान हाड़ौती क्षेत्र पर चौहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का अधिकार था। प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर मीणाओं का अधिकार था। ऐसा माना जाता है कि बून्दा मीणा के नाम पर ही बूँदी का नामकरण हुआ। कुंभाकालीन राणपुर के लेख में बूँदी का नाम ‘वृन्दावती’ मिलता है। राव देवा ने मीणाओं को पराजित कर 1241 में बूँदी राज्य की स्थापना की थी। बूँदी के प्रसिद्ध क़िले तारागढ़ का निर्माण बरसिंह हाड़ा ने करवाया था। तारागढ़ ऐतिहासिक काल में भित्ति चित्रों के लिए विख्यात रहा है। बूँदी के सुर्जनसिंह ने 1569 में अकबर की अधीनता स्वीकार की थी। बूँदी की प्रसिद्ध चौरासी खंभों की छतरी शत्रुसाल हाड़ा का स्मारक है, जो 1658 में सामूगढ़ के युद्ध में औरंगज़ेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बुद्धसिंह के शासन काल में मराठों ने बूँदी रियासत पर आक्रमण किया था।[1]
प्रारम्भ में कोटा बूँदी राज्य का ही भाग था, जिसे शाहजहाँ ने बूँदी से अलग कर माधोसिंह को सौंपकर 1631 ई. में नए राज्य के रूप में मान्यता दी थी। कोटा राज्य का दीवान झाला जालिमसिंह इतिहास चर्चित व्यक्ति रहा है। कोटा रियासत पर उसका पूर्ण नियन्त्रण था। कोटा में ऐतिहासिक काल से आज तक कृष्ण की भक्ति का प्रभाव रहा है। इसलिए कोटा का नाम नन्दग्राम भी मिलता हैं। बूँदी-कोटा में सांस्कृतिक उपागम के रूप में यहाँ की चित्र शैलियाँ विख्यात रही हैं। बूँदी में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ अंकन हुआ है, वहीं कोटा शैली शिकार के चित्रों के लिए विख्यात रही है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 राजस्थान के विविध रंग (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 अप्रैल, 2014।
- ↑ चौहान वंश की शाखाएँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 अप्रैल, 2014।
- ↑ संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक