त्रिपुण्ड्र: Difference between revisions
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'''त्रिपुण्ड्र''' [[शैव संप्रदाय]] का धार्मिक चिह्न है, जो भौंहों के समानांतर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं [[मानव शरीर|शरीर]] के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। '[[कालाग्निरुद्रोपनिषद]]' में त्रिपुण्ड्र पर [[ध्यान]] केंद्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है। यह सांकेतिक चिह्न [[शाक्त सम्प्रदाय|शाक्तों]] द्वारा भी अपनाया गया है। यह [[शिव]] एवं शक्ति के एकत्व (सायुज्य) का निर्देशक है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=305|url=}}</ref> | {{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | ||
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त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाएँ भगवान शिव के रूप को दर्शाती हैं तथा हर एक रेखा में देवताओं का वास है। यह 'ॐ' का स्वरूप हैं। प्रथम रेखा में 'अ' की ध्वनि है, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा जाता है। इसमें रजोगुण, [[पृथ्वी]], बाहरी आत्मन, [[धर्म]], अभिनय क्षमता, [[ऋग्वेद]], [[सोम रस]], प्रात:स्वन तथा महादेव हैं। यह | |पाठ 1=[[शैव सम्प्रदाय]] | ||
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'''त्रिपुण्ड्र''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Tripundra'') अथवा 'त्रिपुण्ड' '[[शैव संप्रदाय]]' का धार्मिक चिह्न है, जो भौंहों के समानांतर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं [[मानव शरीर|शरीर]] के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। '[[कालाग्निरुद्रोपनिषद]]' में त्रिपुण्ड्र पर [[ध्यान]] केंद्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है। यह सांकेतिक चिह्न [[शाक्त सम्प्रदाय|शाक्तों]] द्वारा भी अपनाया गया है। यह [[शिव]] एवं शक्ति के एकत्व (सायुज्य) का निर्देशक है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=305|url=}}</ref> | |||
==देवताओं का निवास== | |||
ललाट अर्थात् माथे पर भस्म या [[चंदन]] से तीन रेखाएं बनाई जाती हैं, उसे त्रिपुण्ड्र कहते हैं। भस्म या चंदन को हाथों की बीच की तीन अंगुलियों से लेकर सावधानीपूर्वक माथे पर तीन तिरछी रेखाओं जैसा आकार दिया जाता है। 'शैव संप्रदाय' के लोग इसे धारण करते हैं। '[[शिवपुराण|शिवमहापुराण]]' के अनुसार त्रिपुंड की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ [[देवता]] निवास करते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं<ref name="aa">{{cite web |url=http://www.ajabgjab.com/2015/06/how-to-apply-tripund-tilak.html |title=कहाँ, कैसे और क्यों धारण करें त्रिपुण्ड्र |accessmonthday= 20 मई|accessyear= 2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=ajabgjab.com|language= हिन्दी}}</ref>- | |||
;पहली रेखा के देवता | |||
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मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन, [[शिव]] | |||
==कैसे और कहाँ धारण करें त्रिपुण्ड्र== | |||
#मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, [[हृदय]], दोनों पार्श्व भाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों अरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर। इन बत्तीस अंगों में [[अग्निदेव|अग्नि]], [[जल देवता|जल]], [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[वायु देव|वायु]], दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल और आठ [[वसु|वसुओं]] का वास है। इन सभी का नाम लेकर इनके उचित स्थानों में ही त्रिपुण्ड्र लगना चाहिए।<ref name="aa"/> | |||
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#मस्तक, दोनों भुजाओं, हृदय और नाभि। इन पांच स्थानों को भस्म और [[चंदन]] त्रिपुण्ड्र लगाने के लिए उत्तम माना गया है। | |||
अत: देशकाल व परिस्थिति को देखते हुए मनुष्य पवित्र मन व शुद्ध शरीर से त्रिपुण्ड्र धारण करें। त्रिपुण्ड्र धारण करते समय 'ऊं नम: शिवायं' [[मंत्र]] का लगातार जप करते रहें। | |||
==शीतलता प्रदायक== | |||
त्रिपुण्ड्र धारण करने के पीछे वैज्ञानिक तथ्य भी है। त्रिपुण्ड्र चंदन या भस्म का लगाया जाता है। दोनों ही मस्तक को शीतलता प्रदान करते हैं। जब हम ज्यादा मानसिक श्रम करते हैं तो हमारे विचारक केंद्र में दर्द होने लगता है। यह त्रिपुण्ड्र ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है। इससे मस्तिष्क पर अधिक दबाब नहीं पड़ता।<ref name="aa"/> | |||
==महत्त्व== | |||
त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाएँ भगवान शिव के रूप को दर्शाती हैं तथा हर एक रेखा में देवताओं का वास है। यह 'ॐ' का स्वरूप हैं। प्रथम रेखा में 'अ' की ध्वनि है, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा जाता है। इसमें रजोगुण, [[पृथ्वी]], बाहरी आत्मन, [[धर्म]], अभिनय क्षमता, [[ऋग्वेद]], [[सोम रस]], प्रात:स्वन तथा महादेव हैं। यह त्रिपुण्ड्र की पहली रेखा के देवत्व हैं। दूसरी रेखा में 'ऊं' की [[ध्वनि]] है, जो दक्षिणाग्नि रूप है। इसमें सत्वगुण, वातावरण, अंतरात्मा, इच्छाशक्ति, [[आकाश तत्त्व|आकाश]], [[यजुर्वेद]], सोमा और महेश्वर हैं, जो त्रिपुण्ड्र की दूसरी रेखा के देव तत्व हैं। तीसरी रेखा 'म' की ध्वनी देती है। यह आहवनीय अग्नि है। तमोगुण, स्वर्ग, परमात्म, [[सामवेद]], ज्ञानशक्ति, सांय सवन तथा महेश्वर इस तीसरी रेखा के त्रिपुण्ड्र देव हैं।<ref>{{cite web |url=http://astrobix.com/hindudharm/post/kalam-agni-rudra-upanishad-kalagni-rudra-upanishad-veda-kalam-agni-rudra-upanishad-knowledge.aspx|title=त्रिपुण्ड्र महत्त्व|accessmonthday=20 दिसम्बर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | |||
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त्रिपुण्ड्र
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विवरण | 'त्रिपुण्ड्र' शैव अनुयायियों द्वारा धारण किया जाने वाला धार्मिक चिह्न है। 'शिवमहापुराण' के अनुसार त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ देवता निवास करते हैं। |
सम्प्रदाय | शैव सम्प्रदाय |
सम्बंधित देव | शिव |
धारण स्थान | त्रिपुण्ड्र का चिह्न ललाट के अतिरिक्त छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। |
विशेष | त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाएँ भगवान शिव के रूप को दर्शाती हैं तथा हर एक रेखा में देवताओं का वास है। यह 'ॐ' का स्वरूप हैं। |
संबंधित लेख | शैव सम्प्रदाय, शिव |
अन्य जानकारी | भस्म या चंदन से त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाएं बनाई जाती हैं। भस्म या चंदन को हाथ के बीच की तीन अंगुलियों से लेकर सावधानीपूर्वक माथे पर तीन तिरछी रेखाओं जैसा आकार दिया जाता है। |
त्रिपुण्ड्र (अंग्रेज़ी: Tripundra) अथवा 'त्रिपुण्ड' 'शैव संप्रदाय' का धार्मिक चिह्न है, जो भौंहों के समानांतर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। 'कालाग्निरुद्रोपनिषद' में त्रिपुण्ड्र पर ध्यान केंद्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है। यह सांकेतिक चिह्न शाक्तों द्वारा भी अपनाया गया है। यह शिव एवं शक्ति के एकत्व (सायुज्य) का निर्देशक है।[1]
देवताओं का निवास
ललाट अर्थात् माथे पर भस्म या चंदन से तीन रेखाएं बनाई जाती हैं, उसे त्रिपुण्ड्र कहते हैं। भस्म या चंदन को हाथों की बीच की तीन अंगुलियों से लेकर सावधानीपूर्वक माथे पर तीन तिरछी रेखाओं जैसा आकार दिया जाता है। 'शैव संप्रदाय' के लोग इसे धारण करते हैं। 'शिवमहापुराण' के अनुसार त्रिपुंड की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ देवता निवास करते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं[2]-
- पहली रेखा के देवता
अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रिया शक्ति, प्रात:स्वन, महादेव
- दूसरी रेखा के देवता
ऊंकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा, महेश्वर
- तीसरी रेखा के देवता
मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन, शिव
कैसे और कहाँ धारण करें त्रिपुण्ड्र
- मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्व भाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों अरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर। इन बत्तीस अंगों में अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल और आठ वसुओं का वास है। इन सभी का नाम लेकर इनके उचित स्थानों में ही त्रिपुण्ड्र लगना चाहिए।[2]
- मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, हृदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषिकन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं। इन सोलह स्थानों पर भी त्रिपुण्ड्र धारण करने चाहिए।
- गुह्र स्थान, ललाट, कर्णयुगल, दोनों कंधे, हृदय और नाभि। ये आठों स्थान ब्रह्मा और सप्तर्षि के निवास स्थान हैं। इन आठों स्थानों पर पवित्र मन से त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिए।
- मस्तक, दोनों भुजाओं, हृदय और नाभि। इन पांच स्थानों को भस्म और चंदन त्रिपुण्ड्र लगाने के लिए उत्तम माना गया है।
अत: देशकाल व परिस्थिति को देखते हुए मनुष्य पवित्र मन व शुद्ध शरीर से त्रिपुण्ड्र धारण करें। त्रिपुण्ड्र धारण करते समय 'ऊं नम: शिवायं' मंत्र का लगातार जप करते रहें।
शीतलता प्रदायक
त्रिपुण्ड्र धारण करने के पीछे वैज्ञानिक तथ्य भी है। त्रिपुण्ड्र चंदन या भस्म का लगाया जाता है। दोनों ही मस्तक को शीतलता प्रदान करते हैं। जब हम ज्यादा मानसिक श्रम करते हैं तो हमारे विचारक केंद्र में दर्द होने लगता है। यह त्रिपुण्ड्र ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है। इससे मस्तिष्क पर अधिक दबाब नहीं पड़ता।[2]
महत्त्व
त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाएँ भगवान शिव के रूप को दर्शाती हैं तथा हर एक रेखा में देवताओं का वास है। यह 'ॐ' का स्वरूप हैं। प्रथम रेखा में 'अ' की ध्वनि है, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा जाता है। इसमें रजोगुण, पृथ्वी, बाहरी आत्मन, धर्म, अभिनय क्षमता, ऋग्वेद, सोम रस, प्रात:स्वन तथा महादेव हैं। यह त्रिपुण्ड्र की पहली रेखा के देवत्व हैं। दूसरी रेखा में 'ऊं' की ध्वनि है, जो दक्षिणाग्नि रूप है। इसमें सत्वगुण, वातावरण, अंतरात्मा, इच्छाशक्ति, आकाश, यजुर्वेद, सोमा और महेश्वर हैं, जो त्रिपुण्ड्र की दूसरी रेखा के देव तत्व हैं। तीसरी रेखा 'म' की ध्वनी देती है। यह आहवनीय अग्नि है। तमोगुण, स्वर्ग, परमात्म, सामवेद, ज्ञानशक्ति, सांय सवन तथा महेश्वर इस तीसरी रेखा के त्रिपुण्ड्र देव हैं।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 305 |
- ↑ 2.0 2.1 2.2 कहाँ, कैसे और क्यों धारण करें त्रिपुण्ड्र (हिन्दी) ajabgjab.com। अभिगमन तिथि: 20 मई, 2016।
- ↑ त्रिपुण्ड्र महत्त्व (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 दिसम्बर, 2012।