Difference between revisions of "रसखान का कला-पक्ष"

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'''रसखान का काव्य-रूप'''<br />
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{{Main|रसखान}}
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[[हिन्दी]] [[साहित्य]] में [[कृष्ण]] भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में [[रसखान]] का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं।
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====रसखान का काव्य-रूप====
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[[चित्र:raskhan-1.jpg|[[रसखान]] की समाधि, [[महावन]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
 
काव्य के भेद के संबंध में विद्वानों के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं।  
 
काव्य के भेद के संबंध में विद्वानों के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं।  
 
*आचार्य विश्वनाथ ने श्रव्य काव्य के पद्यमय स्वरूप को लिया है। उनके अनुसार पद्यात्मक काव्य वह है जिसके पद छंदोबद्ध हुआ करते हैं। यह पद्यात्मक काव्य भी कई प्रकार का हुआ करता है, जैसे-  
 
*आचार्य विश्वनाथ ने श्रव्य काव्य के पद्यमय स्वरूप को लिया है। उनके अनुसार पद्यात्मक काव्य वह है जिसके पद छंदोबद्ध हुआ करते हैं। यह पद्यात्मक काव्य भी कई प्रकार का हुआ करता है, जैसे-  
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जिस रचना में कोई कथा क्रमबद्ध रूप से कही जाती है वह 'प्रबंध काव्य' कहलाता है। प्रबंध काव्य तीन प्रकार का होता है-  
 
जिस रचना में कोई कथा क्रमबद्ध रूप से कही जाती है वह 'प्रबंध काव्य' कहलाता है। प्रबंध काव्य तीन प्रकार का होता है-  
 
#एक तो ऐसी रचना जिसमें पूर्ण जीवन वृत्त विस्तार के साथ वर्णित होता है। ऐसी रचना को 'महाकाव्य' कहते हैं।  
 
#एक तो ऐसी रचना जिसमें पूर्ण जीवन वृत्त विस्तार के साथ वर्णित होता है। ऐसी रचना को 'महाकाव्य' कहते हैं।  
#जिस रचना में खंड जीवन महाकाव्य की ही शैली में वर्णित होता है, ऐसी रचना को 'खंड काव्य' कहते हैं।  
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#जिस रचना में खंड जीवन महाकाव्य की ही शैली में वर्णित होता है, ऐसी रचना को 'खंड काव्य' कहते हैं।
 
#हिन्दी में कुछ ऐसी रचनाएं भी देखी जाती हैं, जिनमें जीवन वृत्त तो पूर्ण लिया जाता है, किंतु महाकाव्य की भांति कथा विस्तार नहीं दिखाई देता। ऐसी रचनाओं में जीवन का कोई एक पक्ष विस्तार के साथ प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया जाता है। एकार्थ की ही अभिव्यक्ति के कारण ऐसी रचनाएं महाकाव्य और खंडकाव्य के बीच की रचनाएं होती हैं। इन्हें 'एकार्थ' या केवल 'काव्य' कहना चाहिए। '''रसखान''' ने इस प्रकार की कोई रचना नहीं की।<br />  
 
#हिन्दी में कुछ ऐसी रचनाएं भी देखी जाती हैं, जिनमें जीवन वृत्त तो पूर्ण लिया जाता है, किंतु महाकाव्य की भांति कथा विस्तार नहीं दिखाई देता। ऐसी रचनाओं में जीवन का कोई एक पक्ष विस्तार के साथ प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया जाता है। एकार्थ की ही अभिव्यक्ति के कारण ऐसी रचनाएं महाकाव्य और खंडकाव्य के बीच की रचनाएं होती हैं। इन्हें 'एकार्थ' या केवल 'काव्य' कहना चाहिए। '''रसखान''' ने इस प्रकार की कोई रचना नहीं की।<br />  
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{{tocright}}
 
'''मुक्तक'''<br />
 
'''मुक्तक'''<br />
मुक्तक काव्य तारतम्य के बंधन से मुक्त होने के कारण (मुक्तेन मुक्तकम्) मुक्तक कहलाता है और उसका प्रत्येक पद स्वत: पूर्ण होता है। 'मुक्तक' वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं।<ref>आधुनिक हिन्दी काव्य में छंद योजना, पृ0 21</ref> वास्तव में मुक्तक काव्य का महत्त्वपूर्ण रूप है, जिसमें काव्यकार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक काव्य के प्रणेता को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए अन्य सहायक छंदों की आवश्यकता अधिक नहीं होती। प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक रचना के लिए कथा की आवश्यकता अधिक होती है, क्योंकि काव्य रूप की दृष्टि से मुक्तक में न तो किसी वस्तु का वर्णन ही होता है और न वह गेय है। यह जीवन के किसी एक पक्ष का अथवा किसी एक दृश्य का या प्रकृति के किसी पक्ष विशेष का चित्र मात्र होता है। इसी से काव्यकार को प्रबंध काव्य की अपेक्षा सफल मुक्तकों की सृष्टि के लिए अधिक कौशल की आवश्यकता पड़ती है। पूर्वा पर प्रसंगों की परवाह किये बिना सूक्ष्म एवं मार्मिक खंड दृश्य अथवा अनुभूति को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करने वाली उस रचना को मुक्तक काव्य के नाम से अभिहित किया जाता है- जिसमें न तो कथा का व्यापक प्रवाह रहता है और न ही उसमें क्रमानुसार किसी कथा को सजाकर वर्णन करने का आग्रह होता है, बल्कि मुक्तक काव्य में सूक्ष्मातिसूक्ष्म मार्मिक भावों की अभिव्यक्ति होती है जो स्वयं में पूर्ण तथा अपेक्षाकृत लघु रचना होती है।<br />
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{{Main|रसखान के मुक्तक}}
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मुक्तक काव्य तारतम्य के बंधन से मुक्त होने के कारण (मुक्तेन मुक्तकम्) मुक्तक कहलाता है और उसका प्रत्येक पद स्वत: पूर्ण होता है। 'मुक्तक' वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का [[उद्रेक]] करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं।<ref>आधुनिक हिन्दी काव्य में छंद योजना, पृ0 21</ref> वास्तव में मुक्तक काव्य का महत्त्वपूर्ण रूप है, जिसमें काव्यकार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक काव्य के प्रणेता को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए अन्य सहायक छंदों की आवश्यकता अधिक नहीं होती। प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक रचना के लिए कथा की आवश्यकता अधिक होती है, क्योंकि काव्य रूप की दृष्टि से मुक्तक में न तो किसी वस्तु का वर्णन ही होता है और न वह गेय है। यह जीवन के किसी एक पक्ष का अथवा किसी एक दृश्य का या प्रकृति के किसी पक्ष विशेष का चित्र मात्र होता है।  
  
 
'''मुक्तक के प्रकार'''<br />
 
'''मुक्तक के प्रकार'''<br />
 
विषय के आधार पर मुक्तक को तीन वर्गों में बांटा गया है- श्रृंगार परक, वीर रसात्मक तथा नीति परक। स्वरूप के आधार पर मुक्तक के गीत, प्रबंध मुक्तक, विषयप्रधान, संघात मुक्तक, एकार्थ प्रबंध तथा मुक्तक प्रबंध आदि भेद किये जा सकते हैं।<ref>दरबारी संस्कृति और हिन्दी मुक्तक, पृ0 42</ref>
 
विषय के आधार पर मुक्तक को तीन वर्गों में बांटा गया है- श्रृंगार परक, वीर रसात्मक तथा नीति परक। स्वरूप के आधार पर मुक्तक के गीत, प्रबंध मुक्तक, विषयप्रधान, संघात मुक्तक, एकार्थ प्रबंध तथा मुक्तक प्रबंध आदि भेद किये जा सकते हैं।<ref>दरबारी संस्कृति और हिन्दी मुक्तक, पृ0 42</ref>
 
'''रसखान द्वारा प्रयुक्त मुक्तक'''<br />
 
[[रसखान]] का उद्देश्य किसी खंड काव्य या महाकाव्य की रचना न था। प्रेमोमंग के इस कवि को तो अपने मार्मिक उद्गारों की अभिव्यक्ति करनी थी। उसके लिए मुक्तक से अच्छा माध्यम और क्या हो सकता था। रसखान ने अपने कोमल मार्मिक भावों-रूपी पुष्पों से मुक्तक-रूपी गुलदस्ते को सजा दिया। रसखान ने श्रृंगार मुक्तक तथा स्वतंत्र मुक्तक के रूप में ही काव्य की रचना की।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 275</ref>
 
  
 
'''श्रृंगार मुक्तक'''<br />
 
'''श्रृंगार मुक्तक'''<br />
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रसखानि लही इनि चातुरता रही जब लौं घर आयौ।<br />  
 
रसखानि लही इनि चातुरता रही जब लौं घर आयौ।<br />  
 
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।<ref>सुजान रसखान 101</ref>
 
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।<ref>सुजान रसखान 101</ref>
 
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[[चित्र:raskhan-2.jpg|[[रसखान]] के दोहे, [[महावन]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
अखियाँ अखियाँ सौं सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।<br />
 
बतियाँ चित चौरन चेटक सी रस चारू चरित्रन ऊचरिबौ।<br />
 
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पै त्यों अधरा अधिबौ।<br />
 
इतने सब मैन के मोहनी जंत्र पै मन्त्र बसीकर सी करिबौ॥<ref>सुजान रसखान 120</ref>
 
 
 
नवरंग अनंग भरी छबि सों वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।<br />
 
बतियां मन की मन ही में रहै, घतिया उन बीच अड़ी ही रहै।<br />
 
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनी दल बूँद पड़ी ही रहै।<br />
 
जिय की नहिं जानत हौं सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।<ref>सुजान रसखान 127</ref>
 
  
 
'''स्वतन्त्र मुक्तक'''<br />
 
'''स्वतन्त्र मुक्तक'''<br />
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या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी॥<ref>सुजान रसखान 86</ref>
 
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी॥<ref>सुजान रसखान 86</ref>
  
रसखान द्वारा रचित कवित्त सवैये मुक्तक रचना की विभिन्न कसौटियों पर पूर्णंरूप से खरे उतरते हैं। प्रत्येक छंद अपने में एक इकाई है। चार पंक्तियों में संपूर्ण चित्र का निर्माण बड़ी कुशलता से किया गया है। चित्रात्मकता, भावातिरेक और उक्ति वैदग्ध का यह सामंजस्य अत्यंत दुर्लभ है।<br />
 
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।<br />
 
खेलत खात फिरै अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछोटी।<br />
 
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।<br />
 
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथसों ले गयौ माखन रोटी॥<ref>सुजान रसखान, 21</ref>
 
 
रसखान की रचनाओं के अनुशीलन से यह स्पष्टतया सिद्ध होता है कि वे मुक्तक रचनाओं के कवि हैं। वस्तुत: कृष्ण-भक्त कवियों की यह एक अवेक्षणीय विशेषता रही है कि उन्होंने प्रबंध रचना में रूचि नहीं दिखाई। इसका मूल कारण यह था कि उनकी दृष्टि भगवान [[कृष्ण]] की सौंदर्य मूर्ति पर ही केन्द्रित थी, शक्ति और शील पर नहीं। रसखान स्वभाव से ही सौंदर्योपासक और प्रेमी जीव थे। अत: उनमें भी इस प्रवृत्ति का पाया जाना सर्वथा स्वाभाविक था। अपने प्रेम विह्वल चित्र के भावों की प्रवाहमयी और प्रेमोत्पादक व्यंजना के लिए मुक्तक का माध्यम ही अधिक उपयुक्त था। रसखान में अपनी स्वानुभूति की मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए मुक्तक के इस माध्यम का असाधारण सफलता के साथ प्रयोग किया है। मुक्तक के लिए प्रौढ़, प्रांजल तथा समासयुक्त भाषा आवश्यक है। मुक्तक के छोटे से कलेवर में भावों का सागर भरने के लिए इस प्रकार की भाषा को उत्तम कहा गया है। रसखान की भाषा मृदुल, मंजुल, और गति पूर्ण होते हुए भी बोझिल नहीं है। उसमें व्यक्त एक-एक चित्र अमर है। सानुप्रास शब्दों से भाषा की गतिपूर्ण लय में आंतरिक संगीत ध्वनित होता है। आवेग की तीव्रता के द्वारा कोमल प्रभाव की अभिव्यंजना होती है। साधारण मुक्तक काव्य की गीतात्मकता में हृदय को झंकृत कर देने की शक्ति है। रसखान के मुक्तकों की सबसे बड़ी विशेषता है, भाव एवं अभिव्यंजना की एकतानता, जो उन्हें गीति काव्य के निकट ला देती है।
 
 
==छंदोयोजना==
 
==छंदोयोजना==
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{{Main|रसखान की छंद योजना}}
 
छंद वह बेखरी (मानवोच्चरित ध्वनि) है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर तरंग भंगिमा से आह्लाद के साथ भाव और अर्थ को अभिव्यंजना कर सके। भाषा के जन्म के साथ-साथ ही कविता और छंदो का संबंध माना गया है। छंदों द्वारा अनियंत्रित वाणी नियंत्रित तथा ताल युक्त हो जाती है। गद्य की अपेक्षा छंद अधिक काल तक सजाज  में प्रचलित रहता है। जो भाव छंदोबद्ध होता है उसे अपेक्षाकृत अधिक अमरत्व मिलता है। भाव को प्रेषित करने के साथ-साथ छंद में मुग्ध करने की शक्ति होती है। छंद के द्वारा कल्पना का रूप सजग होकर मन के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है।  
 
छंद वह बेखरी (मानवोच्चरित ध्वनि) है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर तरंग भंगिमा से आह्लाद के साथ भाव और अर्थ को अभिव्यंजना कर सके। भाषा के जन्म के साथ-साथ ही कविता और छंदो का संबंध माना गया है। छंदों द्वारा अनियंत्रित वाणी नियंत्रित तथा ताल युक्त हो जाती है। गद्य की अपेक्षा छंद अधिक काल तक सजाज  में प्रचलित रहता है। जो भाव छंदोबद्ध होता है उसे अपेक्षाकृत अधिक अमरत्व मिलता है। भाव को प्रेषित करने के साथ-साथ छंद में मुग्ध करने की शक्ति होती है। छंद के द्वारा कल्पना का रूप सजग होकर मन के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है।  
छंद की व्यंजना शक्ति भी गद्य की अपेक्षा अधिक होती है। उसके माध्यम से थोड़े शब्दों में बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं। छंद की सीमा में बंधकर भाव उसी प्रकार अधिक वेगवान और प्रभावशाली हो जाता है जिस प्रकार तटों के बंधन से सरिता। छंद के आवर्तन में ऐसा आह्लाद होता है, जो तुरंत मर्म को स्पर्श करता है। स्थिर कथा को वेग देकर चित्त में प्रवेश कराने का श्रेय छंद को ही है। छंद भावों का परिष्कार कर कोमलता का निर्माण करता है। छंदों के अनेक भेदोपभेद मिलते हैं। रसखान ने भक्तिकाल की गेय-पद परंपरा से हटकर सवैया, कवित्त और दोहों को ही अपनी रचना के उपयुक्त समझकर अपनाया।<br />
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'''सवैया छंद'''<br />
 
'''सवैया छंद'''<br />
इस छंद की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डा. नगेन्द्र का विचार है कि सवैया शब्द सपाद का अपभ्रंश रूप है। इसमें छंद के अंतिम चरण को सबसे पूर्व तथा अंत में पढ़ा जाता था अर्थात एक पंक्ति दो बार और तीन पंक्तियां एक बार पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार वस्तुत: चार पंक्तियों का पाठ पांच पंक्तियों का-सा हो जाता था। पाठ में 'सवाया' होने से यह छंद सवैया कहलाया। [[संस्कृत]] के किसी छंद से भी इसका मेल नहीं हे। अत: यह जनपद-साहित्य का ही छंद बाद के कवियों ने अपनाया होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है।<ref>रीति काव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता, पृ0 236</ref> यदि यह अनुमान सत्य हो तो [[प्राकृत]], अपभ्रंश आदि में यह छंद अवश्य मिलना चाहिए जो हिन्दी में रूपांतरित हो गया है। किन्तु ऐसे किसी छंद के दर्शन नहीं होते। यह संभव है कि तेईस वर्णों वाले संस्कृत के उपजाति छंद के 14 भेदों में से किसी एक का परिवर्तित रूप सवैया बन गया हो। सवैया 22 अक्षरों से लेकर 28 अक्षरों तक का होता है। उपजाति भी 22 अक्षरों का छंद है। अक्षरों का लघु-गुरु भाव-सवैया में भी परिवर्तन ग्रहण करता है। वैदिक छंदों का भी लौकिक संस्कृत छंदों तक आते बड़ा रूप परिवर्तन हुआ। हो सकता है कि उपजाति का परिवर्तित रूप सवैया हो जो सवाया बोलने से सवैया कहलाया। 'प्राकृतपेंगलम्' में भी सवैयों का रूप मिलता है किन्तु वहां उसे सवैया संज्ञा नहीं दी गई। 'प्राकृतपेंगलम्' का रचनाकाल संवत 1300 के आस-पास माना जाता है। अत: सवैया के प्रयोग का अनुमान 13वीं शताब्दी से लगाया जा सकता है। भक्तिकाल में गेय पदों का व्यवहार विशेष रूप से होने लगा।
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इस छंद की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. नगेन्द्र का विचार है कि सवैया शब्द सपाद का अपभ्रंश रूप है। इसमें छंद के अंतिम चरण को सबसे पूर्व तथा अंत में पढ़ा जाता था अर्थात एक पंक्ति दो बार और तीन पंक्तियां एक बार पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार वस्तुत: चार पंक्तियों का पाठ पांच पंक्तियों का-सा हो जाता था। पाठ में 'सवाया' होने से यह छंद सवैया कहलाया। [[संस्कृत]] के किसी छंद से भी इसका मेल नहीं हे। अत: यह जनपद-साहित्य का ही छंद बाद के कवियों ने अपनाया होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है।<ref>रीति काव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता, पृ0 236</ref> यदि यह अनुमान सत्य हो तो [[प्राकृत]], अपभ्रंश आदि में यह छंद अवश्य मिलना चाहिए जो हिन्दी में रूपांतरित हो गया है। किन्तु ऐसे किसी छंद के दर्शन नहीं होते। यह संभव है कि तेईस वर्णों वाले संस्कृत के उपजाति छंद के 14 भेदों में से किसी एक का परिवर्तित रूप सवैया बन गया हो। सवैया 22 अक्षरों से लेकर 28 अक्षरों तक का होता है। उपजाति भी 22 अक्षरों का छंद है। अक्षरों का लघु-गुरु भाव-सवैया में भी परिवर्तन ग्रहण करता है। वैदिक छंदों का भी लौकिक संस्कृत छंदों तक आते बड़ा रूप परिवर्तन हुआ। हो सकता है कि उपजाति का परिवर्तित रूप सवैया हो जो सवाया बोलने से सवैया कहलाया। 'प्राकृतपेंगलम्' में भी सवैयों का रूप मिलता है किन्तु वहां उसे सवैया संज्ञा नहीं दी गई। 'प्राकृतपेंगलम्' का रचनाकाल संवत 1300 के आस-पास माना जाता है।  
*[[सूरदास]] के आविर्भाव तक हिन्दी में सवैयों का प्रचलन नहीं हुआ।
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*[[जगनिक]] के [[आल्हाखण्ड|आल्हा]] खंड में कुछ सवैये अवश्य प्राप्त हैं, किन्तु उनकी भाषा से यही अनुमान होता है किये बाद में क्षेपक रूप में आए। प्रामाणिक रूप से इस छंद का प्रयोग [[अकबर]] के काल से प्रारंभ होता है।
 
*पं. नरोत्तमदास का 'सुदामा चरित्र' सवैयों और दोहों में ही लिखा गया है।
 
*[[तुलसीदास]] ने '[[कवितावली]]' में इन्हीं छंदों का आश्रय लिया है।
 
*[[केशव कवि|केशवदास]] की 'रामचंद्रिका' में भी सवैये काफ़ी मिलते हैं।
 
*इस प्रकार रसखान ने भक्ति काल की पद परंपरा से हटकर सवैया छंद को अपनाया।<br />
 
 
'''घनाक्षरी'''<br />
 
'''घनाक्षरी'''<br />
 
घनाक्षरी या कवित्त के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में होते हैं। हिन्दी में घनाक्षरी वृत्तों का प्रचलन कब से हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कहना कठिन है।  
 
घनाक्षरी या कवित्त के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में होते हैं। हिन्दी में घनाक्षरी वृत्तों का प्रचलन कब से हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कहना कठिन है।  
*[[चंदबरदाई]] के [[पृथ्वीराज रासों]] में दोहा तथा छप्पय छंदों की प्रचुरता है। सवैया और घनाक्षरी का वहां भी प्रयोग नहीं मिलता। प्रामाणिक रूप से घनाक्षरी का प्रयोग [[अकबर]] के काल में मिलता है। घनाक्षरी छंद में मधुर भावों की अभिव्यक्ति उतनी सफलता के साथ नहीं हो सकती जितनी ओजपूर्ण भावों की।
+
*[[चंदबरदाई]] के [[पृथ्वीराज रासों]] में दोहा तथा छप्पय छंदों की प्रचुरता है। सवैया और घनाक्षरी का वहां भी प्रयोग नहीं मिलता। प्रामाणिक रूप से घनाक्षरी का प्रयोग [[अकबर]] के काल में मिलता है।  
*रसखान ने छंद की प्रवृत्ति का विचार न करते हुए श्रृंगार तथा भक्ति रस के लिए इस छंद का प्रयोग किया और लय तथा शब्दावली के आधार पर इसे भावानुकूल बना लिया।
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'''सोरठा'''<br />
 
'''सोरठा'''<br />
 
यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा छंद का उलटा होता है। इसमें 25-23 मात्राएं होती हैं। रसखान के काव्य में चार<ref>सुजान रसखान, 77,98,123,152</ref> सोरठे मिलते हैं।  
 
यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा छंद का उलटा होता है। इसमें 25-23 मात्राएं होती हैं। रसखान के काव्य में चार<ref>सुजान रसखान, 77,98,123,152</ref> सोरठे मिलते हैं।  
 
प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन ते नैननि लग्यौ।<br />  
 
प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन ते नैननि लग्यौ।<br />  
 
मनभावन चित चोर, पलक औट नहि सहि सकौं॥<ref>सुजान रसखान, 77</ref>
 
मनभावन चित चोर, पलक औट नहि सहि सकौं॥<ref>सुजान रसखान, 77</ref>
*इस प्रकार रसखान के काव्य में कवित्त, सवैया, दोहा, सोरठा आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं।
 
*इनके अतिरिक्त एक धमार सारंग, राग पद में भी मिलता है।
 
*रसखान के छंद कोमल कांत पदावली से युक्त हैं। उनमें संगीतात्मकता है। दोहा जैसे छोटे छंद में गूढ़ तथ्यों का निरूपण उनकी प्रतिभा का परिचायक है। छंदों में अंत्यानुप्रास का सफल निर्वाह हुआ है। साथ ही छंद, भाव तथा रसानुकूल हैं।
 
  
==छंद और शब्द स्वरूप विपर्यय==
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====छंद और शब्द स्वरूप विपर्यय====
 
काव्य में सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए तथा छंदानुरोध पर प्राय: कवि शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा करते हैं रसखान ने भी काव्य चमत्कार एवं छंद की मात्राओं के अनुरोध पर शब्दों के स्वरूप को बदला है—<br />
 
काव्य में सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए तथा छंदानुरोध पर प्राय: कवि शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा करते हैं रसखान ने भी काव्य चमत्कार एवं छंद की मात्राओं के अनुरोध पर शब्दों के स्वरूप को बदला है—<br />
 
#झलकैयत, तुलैयत, ललचैयत, लैयत<ref>सुजान रसखान, 61</ref>- छंदाग्रह से झलकाना, तुलाना, ललचाना, लाना शब्दों से।  
 
#झलकैयत, तुलैयत, ललचैयत, लैयत<ref>सुजान रसखान, 61</ref>- छंदाग्रह से झलकाना, तुलाना, ललचाना, लाना शब्दों से।  
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#मोल छला के लला ने बिकेहौं<ref>सुजान रसखान, 44</ref>- लला के आग्रह से छला।  
 
#मोल छला के लला ने बिकेहौं<ref>सुजान रसखान, 44</ref>- लला के आग्रह से छला।  
 
#मीन सी आंखि मेरी अंसुवानी रहैं<ref>सुजान रसखान, 74</ref>- आंसुओं से भरी रहने के अर्थ में माधुर्य लाने के लिए आंसू से अंसुवानी।  
 
#मीन सी आंखि मेरी अंसुवानी रहैं<ref>सुजान रसखान, 74</ref>- आंसुओं से भरी रहने के अर्थ में माधुर्य लाने के लिए आंसू से अंसुवानी।  
#मान की औधि घरी<ref>सुजान रसखान, 115</ref>- छंद की मात्रा के आग्रह से अवधि से औधि।
 
#पांवरिया, भांवरिया, डांवरिया, सांवरिया, बावरिया<ref>सुजान रसखान, 141</ref>- पौरी, भौंरी, सांवरे, बावरी आदि से छंदानुरोध पर पांवरिया, भांवरिया बना लिया गया।
 
#लकुट्टनि, भृकुट्टनि, उघुट्टनि, मुकुट्टनि<ref>सुजान रसखान, 165</ref>- छंदाग्रह से लकुटी, भृकुटी, मुकुट आदि शब्दों से बनाया।
 
#हम हैं वृषभानपुरा की लली<ref>दानलीला, 3</ref>- लला (पुत्र) के जोड़ पर पुत्री के अर्थ में लली शब्द का प्रयोग हुआ है।
 
#फोरि हौ मटूकी माट<ref> दानलीला, 6</ref>- छंदानुरोध पर मटुकी से मटूकी।
 
#ज्ञानकर्म 'रु'<ref>प्रेम वाटिका, 12</ref> उपासना, सब अहमिति को मूल- यहाँ छंदानुरोध पर अरु से 'रु' किया गया है।
 
  
रसखान के काव्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहां उन्होंने छांदिक सौंदर्य के लिए शब्दों के रूप में परिवर्तन किया है। किंतु इस शब्द-विपर्यय में कहीं भी अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते। न ही शब्द नट की कला की भांति रूप बदलते हैं। कहीं-कहीं तो उन्होंने शब्दों को इस प्रकार संजोया है कि स्वाभाविकता के दर्शनों के साथ भाव-सौंदर्य भी दिखाई देता है। '''मोर, पंखा, मुरली, बनमाल लखें हिय को हियरा उमह्यौरी''', यहाँ मसृणता लाने के लिए '''हियरा''' शब्द का प्रयोग किया गया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि रसखान छंद योजना में पूर्ण सफल हैं। अंत्यानुप्रास के सुंदर स्वरूप को भी उन्होंने अपने छंदों में स्थान दिया है। साथ ही उनमें संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है।
 
 
==अलंकार-योजना==
 
==अलंकार-योजना==
 +
{{Main|रसखान की अलंकार योजना}}
 
*अलंकार शब्द का अर्थ है जो दूसरी वस्तु को अलंकृत करे- '''अलंकरोति इति अलंकार:'''।  
 
*अलंकार शब्द का अर्थ है जो दूसरी वस्तु को अलंकृत करे- '''अलंकरोति इति अलंकार:'''।  
 
*आचार्य दण्डी ने कहा है कि काव्य के सभी शोभाकारक धर्म अलंकार हैं।<ref>काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रवक्षते। ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान् कात्स्यैन वक्ष्यति॥ -काव्यादर्श, 2।1</ref> उनकी इस परिभाषा में चमत्कार उत्पन्न करने वाले सभी काव्य तत्त्वों की विशेषताओं को अलंकार मान लिया गया है।  
 
*आचार्य दण्डी ने कहा है कि काव्य के सभी शोभाकारक धर्म अलंकार हैं।<ref>काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रवक्षते। ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान् कात्स्यैन वक्ष्यति॥ -काव्यादर्श, 2।1</ref> उनकी इस परिभाषा में चमत्कार उत्पन्न करने वाले सभी काव्य तत्त्वों की विशेषताओं को अलंकार मान लिया गया है।  
*अलंकार से भामह का अभिप्राय ऐसी शब्द उक्ति से है जो वक्र अर्थात विचित्र अर्थ का विधान करने वाली हो।<ref>वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्टावाचामलंकृति:। -काव्यालंकार, 1। 36</ref> अलंकार शब्द और अर्थ में विद्यमान कवि प्रतिभोत्थित ऐसे वैचित्र्य को अलंकार कह सकते हैं, जो वाक्य-सौंदर्य को अतिशयता प्रदान करता है। इसी से सभी भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य में अलंकार के महत्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है।
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*अलंकार से भामह का अभिप्राय ऐसी शब्द उक्ति से है जो वक्र अर्थात विचित्र अर्थ का विधान करने वाली हो।<ref>वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्टावाचामलंकृति:। -काव्यालंकार, 1। 36</ref> अलंकार शब्द और अर्थ में विद्यमान कवि प्रतिभोत्थित ऐसे वैचित्र्य को अलंकार कह सकते हैं, जो वाक्य-सौंदर्य को अतिशयता प्रदान करता है। इसी से सभी भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य में अलंकार के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है।
*अलंकारों के विधिवत प्रयोग से ही काव्य अलंकृत होता है। नीरस काव्य में अलंकार-योजना उक्ति वैचित्र्य मात्र हैं। अलंकार-प्रयोग में औचित्य का पूर्ण निर्वाह होना चाहिए। रसखान ने इसका ध्यान रखा है। कविवर रसखान की गणना भक्त कवियों में की जाती है। भक्ति काव्यधारा के कवियों ने अलंकारों का सन्निवेश बहुतायत से किया है। परन्तु उन्होंने अलंकारों की अपेक्षा अलंकार्य-भाव-रस को ही अधिक गौरव दिया है। रसखान की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। उन्होंने भाव पर अधिक बल दिया है। बाहरी तड़क-भड़क और अलंकारों के बरबस विधान का प्रयास नहीं किया। उनकी रचना में आये हुए अलंकार स्वाभाविक और अभिव्यक्ति को प्रांजल बनाने में सहायक हैं। अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप आदि अलंकारों का सफल प्रयोग हुआ है।<br />
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'''शब्दालंकार'''
 
'''शब्दालंकार'''
  
 
'''अनुप्रास'''
 
'''अनुप्रास'''
केवल भारतीय कवियों ने ही नहीं बल्कि पाश्चात्य कवियों ने भी अनुप्रास अलंकार का बहुत अधिक रुचि के साथ प्रयोग किया है। अनुप्रास की परिभाषा एवं स्वरूप के विषय में भी आचार्य मूलत: एकमत हैं। स्थूल रूप से, वर्णसाम्य को 'अनुप्रास' कहा गया है। आचार्य भामह के अनुसार स्वरों की विषमता होने पर भी व्यंजनों की ऐसी आवृत्ति जिसमें बहुत व्यवधान न हो और जो रस एवं भाव के अनुकूल हो, उसे 'अनुप्रास' कहते हैं।<ref>स्वरवैसादृश्ये पि व्यंजनसदृशत्वं वर्णसाम्यम्। रसाद्यनुगत: प्रकृष्टो न्यासोनुप्रास: -काव्यप्रकाश, 9।2 परवृति</ref> अनुप्रास के प्रधानत: दो भेद हैं-
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*केवल भारतीय कवियों ने ही नहीं बल्कि पाश्चात्य कवियों ने भी अनुप्रास अलंकार का बहुत अधिक रुचि के साथ प्रयोग किया है।  
 
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*अनुप्रास की परिभाषा एवं स्वरूप के विषय में भी आचार्य मूलत: एकमत हैं।  
'''छेकानुप्रास'''
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*स्थूल रूप से, वर्णसाम्य को 'अनुप्रास' कहा गया है।  
जहां एक या अनेक वर्णों की क्रमानुसार आवृत्ति केवल एक बार हो अर्थात एक या अनेक वर्णों का प्रयोग केवल दो बार हो, वहां छेकानुप्रास होता है। छेकानुप्रास का एक उदाहरण द्रष्टव्य है—
 
*देखौ दुरौ वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत राधिका पायन।<ref>सुजान रसखान, 17</ref>
 
*मैन मनोहर बैन बजै सुसजै तन सोहत पीत पटा है।<ref>सुजान रसखान, 172</ref><br />
 
उपर्युक्त पहली पंक्ति में 'द' और 'क' का तथा दूसरी पंक्ति में 'म' और 'ब' का प्रयोग दो बार हुआ है। इन वर्णों की आवृत्ति एक बार होने से यहाँ छेकानुप्रास है।  
 
  
'''वृत्यानुप्रास'''
 
जहां वृत्तियों (उपनागरिका, परुषा और कोमला) के अनुसार एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति क्रमपूर्वक अनेक बार हो। रसखान के काव्य में अनुप्रास की बड़ी चित्ताकर्षक योजना हुई है। अनुप्रास की नियोजना से कविता सुनने में भली लगती है। उससे कविता का प्रभाव परिवर्धित हो जाता है। रसखान के कवित्त और सवैयों की वर्णयोजना भावक के मन को तरंगित करती रहती है। भावानुकूल अनुप्रास का प्रयोग सफल कवि ही कर सकते हैं। रसखान ने अपने को इस कला में पारंगत सिद्ध किया है। रसखान की कविता में वृत्यानुप्रासयुक्त अनेकानेक सुंदर सवैये और कवित्त हैं। ऐसा लगता है कि कवि शब्दों को नचाता हुआ चल रहा है।<br />
 
सेष गनेस महेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।<br />
 
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सु बेद बतावैं।<ref>सुजान रसखान, 13</ref>
 
 
अथवा
 
 
छकि छैल छबीली छटा छहराइ के कौतुक कोटि दिखाइ रही।<ref>सुजान रसखान, 154</ref><br />
 
 
'''यमक'''<br />   
 
'''यमक'''<br />   
जहां भिन्नार्थक वर्णों (निरर्थक या सार्थक) की क्रमश: पुनरावृत्ति हो, वहां 'यमक' अलंकार होता है।<ref>सुजान रसखान, 1,2,5,6,7,8,9,10,11,12, 14,37,78</ref> 'यमक' का शाब्दिक अर्थ है जोड़ा। इस अलंकार का नाम 'यमक' इसलिए रखा गया है क्योंकि इसमें एक जैसे दो शब्द प्रयुक्त होते हैं। सार्थक वर्ण समूह की अपेक्षा निरर्थक वर्णसमूह की आवृत्ति यमक के चमत्कार में विशेष वृद्धि करती है। यमक में कहीं दोनों वर्ण समूह सार्थक होते हैं, कहीं दोनों निरर्थक एवं कहीं एक सार्थक होता है और एक निरर्थक।
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*जहां भिन्नार्थक वर्णों (निरर्थक या सार्थक) की क्रमश: पुनरावृत्ति हो, वहां 'यमक' अलंकार होता है।<ref>सुजान रसखान, 1,2,5,6,7,8,9,10,11,12, 14,37,78</ref>
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*'यमक' का शाब्दिक अर्थ है जोड़ा।  
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*इस अलंकार का नाम 'यमक' इसलिए रखा गया है क्योंकि इसमें एक जैसे दो शब्द प्रयुक्त होते हैं।  
  
 
'''श्लेष'''<br />
 
'''श्लेष'''<br />
*जहां श्लिष्ट पदों द्वारा अनेक अर्थों का कथन किया जाय वहां श्लेष अलंकार होता है।<ref>श्लिष्टै, पदेरनेकार्थाभिधाने श्लेष ईष्यते॥ - साहित्यदर्पण, 10 । 11</ref> श्लेष प्राय: अन्य अलंकारों का सहयोगी होकर ही काव्य में योजित होता है। भावुक कवियों के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत सीमित रूप में हुआ है। इसका कारण यह है कि श्लेष में ऐसे शब्दों का विधान होता है जो अनेक अर्थों को प्रकट करते हैं। अनेकार्थक शब्दों की योजना में प्रयास करना पड़ता है। श्लेष के द्वारा काव्य का बाह्य आवरण ही अधिक अलंकृत होता है।
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*जहां श्लिष्ट पदों द्वारा अनेक अर्थों का कथन किया जाय वहां श्लेष अलंकार होता है।<ref>श्लिष्टै, पदेरनेकार्थाभिधाने श्लेष ईष्यते॥ - साहित्यदर्पण, 10 । 11</ref>  
*रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत ही कम हुआ है। रसखान निश्छल भावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि हैं। और श्लेष भावोत्कर्ष में बहुत अधिक सहयोगी नहीं होता। फिर भी कहीं-कहीं उसकी योजना सुंदर रूप में हुई है—<br />
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*श्लेष प्राय: अन्य अलंकारों का सहयोगी होकर ही काव्य में योजित होता है।  
मन लीनो प्यारे पै छटांक नहिं देत।<br />
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*भावुक कवियों के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत सीमित रूप में हुआ है।  
यहै कहा पाटी पढ़ी दल को पीछो लेत॥<ref>सुजान रसखान, 150</ref>
 
*इस दोहे में 'मन' और 'छटांक' शब्द में स्पष्ट रूप से श्लेष है। 'मन' का अर्थ है चित्त और दूसरा अर्थ है 'चालीस सेर'। इसी तरह 'छटांक' का एक अर्थ है झलक या कटांछ (कटाक्ष) और दूसरा अर्थ है सेर का सोलहवां भाग।
 
  
 
'''वक्रोक्ति'''
 
'''वक्रोक्ति'''
  
किसी एक अभिप्राय वाले कहे हुए वाक्य का, किसी अन्य द्वारा श्लेष अथवा काकु से, अन्य अर्थ लिए जाने को 'वक्रोक्ति' अलंकार कहते हैं।<ref>यदुक्तामन्यथावाक्यमन्यथा न्येन योज्यते। श्लेषेण काक्वा वा ज्ञैया सा वक्रोक्तिरतथा द्विधा॥ - काव्यप्रकाश 9।78</ref> वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति और काकु बक्रोक्ति। श्लेष वक्रोक्ति में किसी शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण वक्ता के अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है और काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है। वक्रोक्ति अलंकार का नियोजन एक कष्टसाध्य कर्म है, जिसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है। भावुक कवियों ने इसका प्रयोग कम ही किया है। रसखान की रचनाओं में वक्रोक्ति की योजना नाममात्र को है, परंतु जो है, वह सहृदय के चित्त को प्रसन्न करने वाली है। दानलीला के प्रसंग में कवि की कला का चमत्कार द्रष्टव्य है—<br />
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किसी एक अभिप्राय वाले कहे हुए वाक्य का, किसी अन्य द्वारा श्लेष अथवा काकु से, अन्य अर्थ लिए जाने को 'वक्रोक्ति' अलंकार कहते हैं।<ref>यदुक्तामन्यथावाक्यमन्यथा न्येन योज्यते। श्लेषेण काक्वा वा ज्ञैया सा वक्रोक्तिरतथा द्विधा॥ - काव्यप्रकाश 9।78</ref> वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति और काकु बक्रोक्ति। श्लेष वक्रोक्ति में किसी शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण वक्ता के अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है और काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है। वक्रोक्ति अलंकार का नियोजन एक कष्टसाध्य कर्म है, जिसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है।  
छीर जौ चाहत चीर गहैं अजू लेउ न केतिक छीर अचैहौ। <br />
 
चाखन के मिस माखन माँगत खाउ न माखन केतिक खैड़ौ।<br />
 
जानति हौं जिय की रसखानि सु काहेकौं एतिक बात बढ़ैहौ।<br />
 
गौरस के मिस जो रस चाहत सौ रस कान्हजू नेकु न पैहौ॥<ref>सुजान रसखान, 42</ref>
 
*'कान्हजू' ने गोपी के प्रति जो चेष्टा की उसका उत्तर वह बड़े वक्रतापूर्ण ढंग से देती है। यदि 'चीर' गहने से 'छीर' चाहते हो, तो लो कितना पीओगे, चखने के बहाने मक्खन मांगते हो तो लो खाओं, कितना खाओगे। परंतु [[गोपी]] [[कृष्ण]] की इन चेष्टाओं का दूसरा अर्थ लेती हुई कहती है कि मैं तुम्हारे मन की बात जानती हूं, तुम गौरस (दूध, दही, घी) के बहाने 'गौरस' (इन्द्रियों का रस) चाहते हो, तो लो सुन लो कि वह रस तुम जरा-सा भी नहीं पाओगे। सवैया की अंतिम पंक्ति में वक्रोक्ति की सरस एवं नाट्यमय व्यंजना हुई है।  
 
  
 
'''रूपक'''
 
'''रूपक'''
 
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[[चित्र:raskhan-3.jpg|[[रसखान]] की समाधि, [[महावन]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
उपमेय पर उपमान के निषेध-रहित अभेद आरोप को रूपक कहते हैं।<ref>अभेदप्राधान्ये आरोपे आरोपविषयानपह्नवे रूपकम्।  -अलंकारसर्वस्व, पृ0 34</ref> 'आरोप' का अर्थ है- रूप देना अर्थात् दूसरे के रूप में रंग देना। यह 'आरोप' कल्पित होता है। रूपक में उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है। उपमा में उपमेय और उपमान में सादृश्य होते हुए भी भिन्नता होती है जबकि रूपक में दोनों एक से जान पड़ते हैं। उनमें एकरूपता होती है। रूपक के तीन मुख्य भेद हैं-
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उपमेय पर उपमान के निषेध-रहित अभेद आरोप को रूपक कहते हैं।<ref>अभेदप्राधान्ये आरोपे आरोपविषयानपह्नवे रूपकम्।  -अलंकारसर्वस्व, पृ0 34</ref> 'आरोप' का अर्थ है- रूप देना अर्थात् दूसरे के रूप में रंग देना। यह 'आरोप' कल्पित होता है। रूपक में उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है। उपमा में उपमेय और उपमान में सादृश्य होते हुए भी भिन्नता होती है जबकि रूपक में दोनों एक से जान पड़ते हैं।  
#सांगरूपक- जहां उपमेय में उपमान का अंगों के सहित आरोप हो वहां सांगरूपक होता है।
 
#निरंगरूपक- अंगों से रहित उपमान का जहां उपमेय में आरोप होता है वहां निरंगरूपक होता है।
 
#परंपरितरूपक- जहां एक आरोप दूसरे आरोप का कारण हो वहां परंपरितरूपक होता है।
 
 
 
रूपक अलंकार की निबंधना में भारतीय महाकवियों की विशेष प्रवृत्ति रही है। यह रसखान का भी प्रिय अलंकार है। उनके काव्य में स्थल-स्थल पर रूपकों की सुन्दर नियोजना की गई है। वे स्वाभाविक रूप से आए हैं तथा उनके द्वारा भावों की मार्मिक व्यंजना हुई है। रूपक चित्तविधायक अलंकार है। रसखान ने इसका सफल प्रयोग किया है। प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। नायिका ने नायक को देखा और उसका मन उसके हाथ से निकल गया। वह प्रियतम के प्रति बेबस हो गई—<br />
 
नैन दलालनि चौहटैं, मन-मानिक पिय हाथ।<br />
 
रसखाँ ढोल बजाइ कै, बैच्यौ हिय जिय साथ॥<ref>सुजान रसखान, 71</ref>
 
*उपरिलिखित दोहे में सांगरूपक की योजना दर्शनीय है। नैन रूपी दलालों ने मन रूपी मानिक को ढोल बजाकर बीच बाज़ार में हृदय और प्राण के सहित प्रियतम के हाथ बेच दिया। इसी से मिलती-जुलती बात [[बिहारी]] ने भी कही है-<br />
 
लोभ लगे हरि-रूप के, करी साँटि जुरि जाइ।<br />
 
हौं इन बेची बीच ही, लौइन बड़ी बलाइ॥<ref>बिहारी रत्नाकर, दोहा 195</ref>
 
*शरीर का रूपक बाग के रूप में बांधती हुई नायिका के कथन में शुद्ध श्रृंगारपरक सांगरूपक की योजना चित्ताकर्षक है-<br />
 
बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग लगाय दिखाऊँ।<br />
 
एड़ी अनार सी मौरि रही, बहियाँ दोउ चंपे की डार नवाऊँ।<br />
 
छातिन में रस के निबुआ अरु घूंघट खोलि कै दाख चखाऊँ।<br />
 
ढांगन के रस के चसकै रति फूलन की रसखानि लुटाऊँ॥<ref>सुजान रसखान, 122</ref>
 
*इस सवैये में बाहों पर चंपा की झुकी हुई डाल का, स्तनों पर सरस नीबू का और ओठों पर अंगूर का आरोप अंग-रूप से करके बाग-रूपी शरीर के मुख्य रूपक को पूर्ण किया है। इस प्रकार यहाँ पर सांगरूपक की नियोजना की गई है। निरंगरूपक के अंकन में भी रसखान ख़ूब सफल रहे हैं। नायक पर मोहित हुई नायिका कहती है—
 
खंजन नैन फंदे पिंजरा छबि, नाहि रहै थिर कैसे हूँ माई।<ref>सुजान रसखान, 81</ref>
 
*यहाँ पर नायिका के खंजन रूपी नेत्रों का नायक के छवि रूपी पिंजड़े में फंस जाने का वर्णन है। 'नैन' उपमेय पर 'खंजन' उपमान का आरोप हुआ है। इसमें 'नैन' उपमेय के अंगों में खंजन उपमान के अंगों का आरोप नहीं हुआ है। यही स्थिति 'पिंजरा' और 'छवि' की भी है। निरंग रूपक का एक उदाहरण और लीजिए। नन्दकुमार को देखने के लिए [[नन्द]] के घर गई हुई [[गोपी]] लौटकर अपनी सखी से अपने अनुभव का वर्णन करती है—<br />
 
जोहन नन्दकुमार कौं गई नन्द के गेह।<br />
 
मौहिं देखि मुसकाइ कै बरस्यौ मेह सनेह॥<ref>सुजान रसखान, 93,रूपक अलंकार के और उदाहरण के लिए देखिए- सुजान रसखान, 1,16,72,74 आदि</ref>
 
*यहाँ 'मेह सनेह' में रूपक हे, अर्थात मेह-रूपी स्नेह की वर्षा हो गई। स्नेह की अतिशयता सूचित करने के लिए उसे मेह के रूप में चित्रित किया गया है। उपर्युक्त उद्धरणों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि रूपक अलंकार की योजना में रसखान को अतीव सफलता मिली है।
 
  
 
'''उत्प्रेक्षा'''
 
'''उत्प्रेक्षा'''
  
जहां प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना की जाय, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।<ref>संसभावनमर्थोत्प्रेक्ष प्रकृतस्य समेन यत्।  -काव्यप्रकाश, 10 । 9</ref> 'उत्प्रेक्षा' (उत्+प्र+ईक्षा) का शाब्दिक अर्थ है, ऊंचा देखना अर्थात् उड़ान लेना। उपमेय और उपमान को परस्पर भिन्न जानते हुए भी इस अलंकार में कल्पना की ऊंची उड़ान के सहारे उपमेय को उपमान समझने का प्रयत्न किया जाता है। 'संभावना' का तात्पर्य 'एक कोटि का प्रबल' ज्ञान है। इसमें ज्ञान पूरा निश्चायात्मक नहीं होता, बल्कि थोड़ा कम होता है। उत्प्रेक्षा रसखान के सबसे प्रिय अलंकारों में से एक है। इसके अनेक प्रयोग उनके काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं। इसका कारण यह हे कि उत्प्रेक्षा का प्रयोग करते हुए कवि-कल्पना को उड़ान भरने की अधिक गुंजाइश रहती है। रसखान ने अपनी कवि-कल्पना का सदुपयोग करते हुए उत्प्रेक्षा अलंकार का विविध प्रसंगों में रमणीय विधान किया है।
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जहां प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना की जाय, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।<ref>संसभावनमर्थोत्प्रेक्ष प्रकृतस्य समेन यत्।  -काव्यप्रकाश, 10 । 9</ref> 'उत्प्रेक्षा' (उत्+प्र+ईक्षा) का शाब्दिक अर्थ है, ऊंचा देखना अर्थात् उड़ान लेना। उपमेय और उपमान को परस्पर भिन्न जानते हुए भी इस अलंकार में कल्पना की ऊंची उड़ान के सहारे उपमेय को उपमान समझने का प्रयत्न किया जाता है। 'संभावना' का तात्पर्य 'एक कोटि का प्रबल' ज्ञान है। इसमें ज्ञान पूरा निश्चायात्मक नहीं होता, बल्कि थोड़ा कम होता है। उत्प्रेक्षा रसखान के सबसे प्रिय अलंकारों में से एक है। इसके अनेक प्रयोग उनके काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं। इसका कारण यह हे कि उत्प्रेक्षा का प्रयोग करते हुए कवि-कल्पना को उड़ान भरने की अधिक गुंजाइश रहती है।  
*[[गोपी]] [[गोकुल]] में दहीं बेचने के लिए निकली। रास्ते में [[कृष्ण]] से उसकी भेंट हो गई। आंखें चार हुईं। वह कामाभिभूत हो गई। दान मांगते हुए कृष्ण अपनी अड़ पर डट गए। सात्विक भाव 'कंप' और संचारी भाव भय से युक्त गोपी के उस रूप की कितनी हृदयस्पर्शी उत्प्रेक्षा रसखान ने निम्नलिखित सवैये में की है—<br />
 
पहले दधि लै गइ गोकुल में चख चारि भए नटनागर पै।<br />
 
रसखानि करी उनि मैनमई कहें दान दै दान खरै अर पै।<br />
 
नख तैं सिख नील निचोल लपेटे सखी सम भांति कँपै डरपै।<br />
 
मनौ दामिनि सावन के घन मैं निकसैं नहीं भीतर ही तरपै।<ref>सुजान रसखान, 39</ref>
 
*नख से शिख तक नीला वस्त्र लपेटे हुए भय से कांपती हुई गोपी इस प्रकार शोभित हो रही है मानो सावन के बादल के बीच में बिजली घिर गई हो और बाहर न निकल पाने के कारण वह भीतर ही भीतर चमक रही हो। नील वस्त्र से आच्छादित गौर वर्ण युवती के बिजली के समान अंगों की ऐसी ही सुन्दर कल्पना 'कामायनी' में जयशंकर प्रसाद ने भी की है—<br />
 
नील परिधान बीच सुकुमार<br />
 
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,<br />
 
खिला हो ज्यौं बिजली का फूल<br />
 
मेघ-वन-बीच गुलाबी रंग।<ref>कामायनी, पृ0 46</ref>
 
  
 
'''अपह्नुति'''<br />
 
'''अपह्नुति'''<br />
जहां प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का स्थापन किया जाय वहां 'अपह्नुति' अलंकार होता है। अपह्नुति केवल सादृश्य-सम्बन्ध में ही होती है। 'अपह्नुति' का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना या निषेध करना। इसमें किसी सत्य बात को छिपाकर या निषेध करके उसके स्थान पर कोई झूठी बात स्थापित की जाती है। अपह्नुति की योजना में प्राय: कृत्रिमता आने की आशंका रहती हैं रसखान के काव्य में यह अलंकार बहुत ही विरल रूप में आया है। एकाध स्थलों पर इसकी चित्ताकर्षक व्यंजना हुई है। [[बांसुरी]] बजाते हुए, गौचरण का गीत गाते हुए, ग्वालों के साथ श्रीकृष्ण गोपिका की गली में आ गए। गोपिका उनकी बांसुरी की टेर को सुनकर कहती है—<br />
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जहां प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का स्थापन किया जाय वहां 'अपह्नुति' अलंकार होता है। अपह्नुति केवल सादृश्य-सम्बन्ध में ही होती है। 'अपह्नुति' का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना या निषेध करना। इसमें किसी सत्य बात को छिपाकर या निषेध करके उसके स्थान पर कोई झूठी बात स्थापित की जाती है। अपह्नुति की योजना में प्राय: कृत्रिमता आने की आशंका रहती हैं रसखान के काव्य में यह अलंकार बहुत ही विरल रूप में आया है।  
बांसुरी में उनि मेरोई नांव सुग्वालिनि के मिस टेरि सुनायौ।<br />
 
उपर्युक्त पंक्ति में अपह्नुति अलंकार की सुन्दर छटा है। यहाँ पर कृष्ण वंशी से गोपी-नाम-ध्वनि नहीं करते। वे 'सुग्वालिनि' की ध्वनि टेरते हैं। यहाँ गोपी के नाम का निषेध किया गया है और अप्रकृत 'सुग्वालिनि' नाम की स्थापना की गई है। लेकिन गोपी इस सत्य को समझती है कि उन्होंने बांसुरी में 'सुग्वालिनि' के मिस से मेरे नाम को ही सुनाया है।<br />
 
  
 
'''अतिशयोक्ति'''<br />
 
'''अतिशयोक्ति'''<br />
 
जहां उपमान द्वारा उपमेय का निगरण, असम्बन्ध में मैं सम्बन्ध की कल्पना, उपमेय का अन्यत्व अथवा कारण और कार्य का पौवपिर्य- विपर्यय वर्णित हो, वहां 'अतिशयोक्ति' अलंकार होता है।<ref>निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतरू परेण यत्। प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं पद्यर्थोकौ च कल्पनम्॥ कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्यय: विज्ञेया तिशयोक्ति: सा....॥ -काव्यप्रकाश, 10 । 100-101</ref> अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिकान्त अथवा उल्लंघन अर्थात किसी वस्तु के विषय में लोकसीमा से बढ़ा-चढ़ाकर कथन करना। काव्य में अतिशयोक्ति के आधार पर ही कवि कल्पना की मधुर उड़ानें भरते हैं। सामान्य जीवन के व्यवहार में भी अतिशयोक्ति का प्रयोग बहुलता से किया जाता है। अत: उसे मानव की स्वभाव-जन्य विशेषता कहा जा सकता है।  
 
जहां उपमान द्वारा उपमेय का निगरण, असम्बन्ध में मैं सम्बन्ध की कल्पना, उपमेय का अन्यत्व अथवा कारण और कार्य का पौवपिर्य- विपर्यय वर्णित हो, वहां 'अतिशयोक्ति' अलंकार होता है।<ref>निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतरू परेण यत्। प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं पद्यर्थोकौ च कल्पनम्॥ कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्यय: विज्ञेया तिशयोक्ति: सा....॥ -काव्यप्रकाश, 10 । 100-101</ref> अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिकान्त अथवा उल्लंघन अर्थात किसी वस्तु के विषय में लोकसीमा से बढ़ा-चढ़ाकर कथन करना। काव्य में अतिशयोक्ति के आधार पर ही कवि कल्पना की मधुर उड़ानें भरते हैं। सामान्य जीवन के व्यवहार में भी अतिशयोक्ति का प्रयोग बहुलता से किया जाता है। अत: उसे मानव की स्वभाव-जन्य विशेषता कहा जा सकता है।  
  
अतिशयोक्ति कवियों की परंपरा से प्राप्त अलंकार है। रसखान ने भी काव्य परंपरागत रूप में ही उसको ग्रहण किया है, जिससे उसमें नवीनता और कथन में सुंदर चमत्कार आ गया है। उनकी अतिशयोक्ति-योजना केवल वैचित्र्य-प्रदर्शन बनकर ही नहीं रह गई है, बल्कि अभिप्रेत वर्ण्य विषय में उत्कर्ष लाने को पूर्णत: समर्थ है। कवि सौन्दर्य-निकेतन [[राधा]] की अनिंद्य रूप-छटा का चित्रण करता हुआ अतिशयोक्ति करता है—
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अतिशयोक्ति कवियों की परंपरा से प्राप्त अलंकार है। रसखान ने भी काव्य परंपरागत रूप में ही उसको ग्रहण किया है, जिससे उसमें नवीनता और कथन में सुंदर चमत्कार आ गया है। उनकी अतिशयोक्ति-योजना केवल वैचित्र्य-प्रदर्शन बनकर ही नहीं रह गई है, बल्कि अभिप्रेत वर्ण्य विषय में उत्कर्ष लाने को पूर्णत: समर्थ है।
<poem>बासर तूँ जु कहूँ निकरै रबि को रथ माँझ अकास अरैरी।
 
रैन यहै गति है रसखानि छपाकर आँगन तें न टरे री।
 
द्यौस निस्वास चल्यौई करै निसि द्यौंस की आसन पाय धरै री।
 
तेरो न जात कछू दिन राति बिचारे बटोही की बाट परै री॥<ref>सुजान रसखान, 48</ref></poem>
 
*नायिका गोरे रंग की है। उसके सौन्दर्य में अप्रतिम आभा ही दर्शनीय है। सखी उसे बरजती हुई कहती है कि तू दिन में घर से बाहर न निकल अन्यथा तेरे रूप को देखने के लिए [[सूर्य देवता|सूर्य]] का रथ आकाश में ही रुक जाएगा। यही स्थिति रात में भी होगी- [[चन्द्रमा]] आंगन में आकर तुझे टकटकी बांधकर देखता रहेगा, वहां से 'टरेगा' नहीं (शायद यह सोचकर कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी कहां से आ गया)। (तू पद्मगंधा है अत:) दिन में [[वायु देव|वायु]] तेरी सुगन्ध लेने आती है। रात में भी वह दिन की सी आशा से पीछे लगा है। (तुम्हारे बाहर निकलने से) तुम्हारा तो कुछ नहीं जाएगा, हां पथिक बेचारे का रास्ता रुक जाएगा। (क्योंकि समय सूचक ये [[ग्रह]] रुक जाएंगे, अपना कार्य करना बन्द कर देंगे
 
 
 
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस सवैये में कवि ने राधा की सौन्दर्य गरिमा का लोकसीमा से बढ़ा चढ़ाकर कथन किया है। अत: यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है। रसखान ने अतिशयोक्ति का परंपरागत रूपों में प्रयोग किया है।
 
  
 
'''व्यतिरेक'''<br />
 
'''व्यतिरेक'''<br />
जहां उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहां 'व्यतिरेक' अलंकार होता है। व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना अनिवार्य है। रसखान के काव्य में व्यतिरेक की योजना कहीं कहीं ही हुई है। किन्तु जो है, वह आकर्षक है। नायिका अपनी सखी से कह रही है कि ऐसी कोई स्त्री नहीं है जो [[कृष्ण]] के सुन्दर रूप को देखकर अपने को संभाल सके। हे सखी, मैंने 'ब्रजचन्द्र' के सलौने रूप को देखते ही लोकलाज को 'तज' दिया है क्योंकि—<br />
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जहां उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहां '[[व्यतिरेक अलंकार]]' होता है। व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना अनिवार्य है। रसखान के काव्य में व्यतिरेक की योजना कहीं कहीं ही हुई है। किन्तु जो है, वह आकर्षक है। नायिका अपनी सखी से कह रही है कि ऐसी कोई स्त्री नहीं है जो [[कृष्ण]] के सुन्दर रूप को देखकर अपने को संभाल सके। हे सखी, मैंने 'ब्रजचन्द्र' के सलौने रूप को देखते ही लोकलाज को 'तज' दिया है क्योंकि—<br />
 
<poem>खंजन मील सरोजनि की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।  
 
<poem>खंजन मील सरोजनि की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।  
 
भौंह कमान सो जोहन को सर बेधन प्राननि नंद को छोनो।<ref>सुजान रसखान, 72</ref></poem>
 
भौंह कमान सो जोहन को सर बेधन प्राननि नंद को छोनो।<ref>सुजान रसखान, 72</ref></poem>
*यहाँ नन्दलाल के दिन दिन होनहार नयन खंजन, मीन और सरोज (कमल) से भी अधिक छवि वाले बतलाए गए हैं। किन्तु उनमें एक विशिष्टता और भी हे। वह यह कि कृष्ण 'भौंह कमान' से कटाक्ष का बाण छोड़कर प्राणों को बेधते हैं। यहाँ उपमेय में उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण व्यतिरेक अलंकार है। एक अन्य उदाहरण लीजिए- नायिका में यौवनागम हो गया है। उसकी भौंहो में बांकापन तथा चितवन में तिरछापन आ गया है। साथ ही 'टाँक सी लाँक भई रसखानि सुदामिनि ते दुति दूनी हिया की।'<ref>सुजान रसखान</ref>
 
*यहाँ 'सुदामिनि तें दुति दूनी हिया की' में व्यतिरेक अलंकार है। क्योंकि, उपनेय नायिका के उभरे हुए वक्षस्थल की दुति बिजली से भी दूनी है- ऐसा कहा गया है।
 
  
 
'''पर्याय'''<br />
 
'''पर्याय'''<br />
 
जहां एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।<ref>एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन्कमेण पर्याय:। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 189</ref>  
 
जहां एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।<ref>एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन्कमेण पर्याय:। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 189</ref>  
*निम्नांकित पंक्तियों में कृष्ण की अनेक चेष्टाओं का वर्णन है—
 
<poem>काहू को माखन चाखि गयौ अरु काहू को दूध दही ढरकायौ।
 
काहूँ को चीर ले रूख चढ़यौ अरु काहू को गुंजछरा छहरायौ।<ref>सुजान रसखान, 104</ref></poem>
 
*'जसोमति' के 'छोहरा' (कृष्ण) किसी का मक्खन खा गए तो किसी का दही ढरका दिया, किसी का 'चीर' लेकर वृक्ष पर चढ़ गए तो किसी की गुंजाफल की माला को बिखेर दिया। यहाँ कृष्ण के द्वारा की जाने वाली अनेक क्रियाओं का वर्णन है। अत यहाँ पर्याय अलंकार है।
 
  
 
'''विरोधमूलक अलंकार, विरोधाभास'''
 
'''विरोधमूलक अलंकार, विरोधाभास'''
  
वस्तुत: विरोध न होने पर जहां विरोध का आभास हो वहां 'विरोधाभास' अलंकार होता है।<ref>विरुद्धाभासत्वं विरोध:।  -काव्यालंकारसूत्र, 4।3।12</ref> विरोध के कारण सामान्य उक्ति में भी अनोखा चमत्कार आ जाता है। इस अलंकार में विरोध केवल आभासित होता है। लेकिन विचार करने पर उसका परिहार हो जाता है। ऐसी उक्तियों के कारण काव्य-सौन्दर्य में उत्कर्ष आता है। रसखान के काव्य में विरोधाभास अलंकार की योजना नाममात्र को हुई है। इसका कारण यह है कि वे भक्त थे, काव्य उनकी तीव्र भावाभिव्यक्ति का साधन था। वह बात को बेलाग कहते थे- बहुत अधिक घुमा फिरा कर नहीं। वचन-विदग्धता के प्रदर्शन की चेष्टा उन्होंने कहीं नहीं की है। प्रेम-पन्थ बड़ा विचित्र है- कमल नाल से भी क्षीण और खड्ग की धार से भी तीक्ष्ण। अनिवार प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का 'विरोधाभास' चमत्कार देखिए—
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वस्तुत: विरोध न होने पर जहां विरोध का आभास हो वहां 'विरोधाभास' अलंकार होता है।<ref>विरुद्धाभासत्वं विरोध:।  -काव्यालंकारसूत्र, 4।3।12</ref> विरोध के कारण सामान्य उक्ति में भी अनोखा चमत्कार आ जाता है। इस अलंकार में विरोध केवल आभासित होता है। लेकिन विचार करने पर उसका परिहार हो जाता है। ऐसी उक्तियों के कारण काव्य-सौन्दर्य में उत्कर्ष आता है। रसखान के काव्य में विरोधाभास अलंकार की योजना नाममात्र को हुई है। इसका कारण यह है कि वे भक्त थे, काव्य उनकी तीव्र भावाभिव्यक्ति का साधन था। वह बात को बेलाग कहते थे- बहुत अधिक घुमा फिरा कर नहीं। वचन-विदग्धता के प्रदर्शन की चेष्टा उन्होंने कहीं नहीं की है।  
<poem>कमलतंतु से हीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
 
अतिसूधौ टेढ़ौ बहुरि, प्रेम पंथ अनिवार॥<ref>प्रेमवाटिका, दोहा 6</ref></poem> जो सीधा है वह टेढ़ा कैसे हो सकता है? यहीं तो विरोधाभास है। प्रत्यक्षत: दोनों (सूधौ, टेढ़ौ) में विरोध दृष्टिगत होता है, परन्तु तत्त्वत विरोध है नहीं। प्रेम हो जाता है, उसमें छल-छंद रंचमात्र भी नहीं हे। वह निश्छल हृदय का प्रवाह है- इस दृष्टि से 'सूधौ' (सीधा) है। लेकिन प्रेम मार्ग पर चलना टेढ़ी खीर है, दुनिया का व्यंग्य और उपहास साथ रहता है, कठिनाइयाँ जीवन को अस्थिर कर देती हैं। इस दृष्टि से 'टेढ़ौ' (टेढ़ा) है। एक अन्य उदाहरण भी अवलोकनीय है। [[गोपी]] [[कृष्ण]] के अप्रतिम सौन्दर्य पर मुग्ध है। उनके नेत्र कटाक्ष को देखते ही उसकी लाज की गांठ खुल जाती है—
 
<poem>सुनि री सजनी अलबेलो लला वह कुंजनि कुंजनि डोलत है।
 
रसखानि लखें मन बूड़ि गयौ मधि रूप के सिंधु कलोलत है।<ref>सुजान रसखान, 157</ref></poem>
 
  
 
'''विसंगति'''
 
'''विसंगति'''
  
जहां आपातत: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरण्य वर्णित हो, वहां असंगति अलंकार होता है।<ref>विरुद्धत्वेनापाततो भासमानं हेतुकार्यपोर्वेयधिकरण्यमसंगति:॥ -रसगंगाधर, पृ0 589</ref> इसमें दो वस्तुओं का वर्णन होता है- जिनमें कारण कार्यसम्बन्ध होता है। इन वस्तुओं की एकदेशीय स्थिति आवश्यक है, लेकिन वर्णन भिन्नदेशत्व का किया जाता है। रसखान के साहित्य में असंगति की योजना अत्यन्त सीमित रूप में हुई है। एक प्रभाव-व्यंजक उदाहरण अवलोकनीय है। [[गोकुल]] के ग्वाल (कृष्ण) की मनोहर चेष्टाओं पर मुग्ध हुई [[गोपी]] कहती है—
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जहां आपातत: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरण्य वर्णित हो, वहां [[असंगति अलंकार]] होता है।<ref>विरुद्धत्वेनापाततो भासमानं हेतुकार्यपोर्वेयधिकरण्यमसंगति:॥ -रसगंगाधर, पृ0 589</ref> इसमें दो वस्तुओं का वर्णन होता है- जिनमें कारण कार्यसम्बन्ध होता है।  
<poem>पिचका चलाइ और जुवती भिजाइ नेह,
 
लोचन नचाइ मेरे अंगहि नचाइ गौ।<ref>सुजान रसखान, 194</ref></poem> यहाँ क्रिया कृष्ण के नेत्रों में होती है परन्तु प्रभाव गोपी के अंग पर होता है। उसका अंग अंग उसके लोल लोचनों के कटाक्ष में नाच उठता है।  
 
  
 
'''एकावली'''
 
'''एकावली'''
 
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{{main|एकावली अलंकार}}
जहां श्रृंखलारूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध हो वहां एकावली अलंकार होता है।<ref>सैव श्रृंखला संसर्गस्य विशेष्यविशेषणभावरूपत्वे एकावली। -रसगंगाधर, पृ0 623</ref> इस अलंकार की योजना कवि लोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है। निम्नांकित पंक्ति में कवि ने एकावली अलंकार का नियोजन किया है—
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जहां श्रृंखलारूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध हो वहां एकावली अलंकार होता है।<ref>सैव श्रृंखला संसर्गस्य विशेष्यविशेषणभावरूपत्वे एकावली। -रसगंगाधर, पृ0 623</ref> इस अलंकार की योजना कवि लोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है।  
<poem>वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अंखियां अनुमानै।
 
चंद पै बिम्ब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै।<ref>सुजान रसखान, 119</ref></poem> यहाँ पर नायिका के मुख, अधर और नेत्रों के अंगों का एक के बाद एक करके श्रृंखला रूप में वर्णन हुआ है। रात भर जागरण के कारण नायिका की आँख लाल हो गई हैं। उसके मुख पर चन्द्र पर बिंब (कुन्दरू- लाल आंखों की ललाई) है, बिंब पर कैरव (आंखों में सफेद कौए) हैं और 'कैरव' पर मुक्ताएं (रात भर जागने से जंभाई लेने पर स्वत: निकल पड़ने वाली आंसू की बूँदें) हैं। रसखान ने 'एकावली' का प्रयोग एकाध स्थलों पर ही किया है।  
 
  
 
'''अन्य संसर्ग मूलक अलंकार, उदाहरण'''  
 
'''अन्य संसर्ग मूलक अलंकार, उदाहरण'''  
  
सामान्य रूप से ही हुई बात को स्पष्ट करने के लिए जहां उसी सामान्य में एक अंश को उदाहरण के रूप में रखा जाता है, वहां उदाहरण अलंकार होता है।<ref>अलंकार प्रदीप, पृ0 189</ref> उदाहरण अलंकार की योजना रसखान ने अल्प मात्रा में की है। उनके उदाहरण सामान्य जीवन से ग्रहण किए गए हैं और सुन्दर बन पड़े हैं 'उदाहरण' के कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं— रसखानि गुबिंदहि यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागरि मैं।<ref>सुजान रसखान, 8</ref> कवि कहता है कि गोविन्द का भजन एकाग्र चित्त से करना चाहिए। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वह एक उदाहरण देता है कि मन को भगवान में उसी प्रकार केन्द्रित रखना चाहिए जिस प्रकार सिर पर कई घड़े रखकर चलने वाली नागरी संतुलन बनाये रखने के लिए अपने मन को घड़े पर केन्द्रित रखती है। यहाँ कवि ने सामान्य जीवन से रमणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
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सामान्य रूप से ही हुई बात को स्पष्ट करने के लिए जहां उसी सामान्य में एक अंश को उदाहरण के रूप में रखा जाता है, वहां उदाहरण अलंकार होता है।<ref>अलंकार प्रदीप, पृ0 189</ref> उदाहरण अलंकार की योजना रसखान ने अल्प मात्रा में की है। उनके उदाहरण सामान्य जीवन से ग्रहण किए गए हैं और सुन्दर बन पड़े हैं 'उदाहरण' के कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं— रसखानि गुबिंदहि यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागरि मैं।<ref>सुजान रसखान, 8</ref>  
<poem>प्रेम हरी कौ रूप है, त्यों हरि प्रेम सरूप।
 
एक होय द्वै यौं लसैं, ज्यों सूरज औ' धूप।<ref>प्रेमवाटिका, 124</ref></poem> इस दोहे में कवि को इष्ट है 'प्रेम' और 'हरि' (ईश्वर) की एकरूपता प्रतिपादित करना। एक होते हुए ये दोनों कैसे शोभित होते हैं- इसको स्पष्ट करने के लिए उसने सूरज और धूप का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
 
  
 
'''अन्य अलंकार, अनुमान'''
 
'''अन्य अलंकार, अनुमान'''
  
साधन के द्वारा साध्य के चमत्कारपूर्ण ज्ञान के वर्णन को अनुमान अलंकार कहते हैं।<ref>अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात। --साहित्यदर्पण, पृ0 10। 63</ref> अनुमान अलंकार में हेतु के द्वारा साध्य का अनुमान कराया जाता है और यह ज्ञान कवि के द्वारा कल्पित चमत्कार से पूर्ण होता है। रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत कम हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
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साधन के द्वारा साध्य के चमत्कारपूर्ण ज्ञान के वर्णन को अनुमान अलंकार कहते हैं।<ref>अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात। --साहित्यदर्पण, पृ0 10। 63</ref> अनुमान अलंकार में हेतु के द्वारा साध्य का अनुमान कराया जाता है और यह ज्ञान कवि के द्वारा कल्पित चमत्कार से पूर्ण होता है। रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत कम हुआ है।
<poem>मोहनलाल कौ हाल बिलौकियै नैकु कछू किनि छवै कर सौं कर।
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ना करिबे पर बारें हैं प्रान कहा करि हैं अब हाँ करिबे पर।<ref>सुजान रसखान, 115</ref></poem> नायिका मान कर रही है और नायक उसे प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहा है। सखी नायिका को समझाती है कि मान करने की अवधि तो घड़ी भर की होती है और तुम इतनी देर से तीक्ष्ण नेत्रों से देख देखकर नायक के हृदय को बेध रही हो। मोहन लाला तुमसे प्रेम करने के लिए बेहाल हो रहे हैं। जरा अनुमान तो करो कि तुम्हारे 'ना' करने पर जब उनकी यह हालत है तो 'हां' करने पर क्या स्थिति होगी।
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;लोकोक्ति
==लोकोक्ति==
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जहां वर्णित प्रसंग में लोक-प्रसिद्ध प्रवाद ([[कहावत लोकोक्ति मुहावरे]] आदि) का कथन किया जाय, वहां 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। रसखान के काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है। कवि ने उन्हें भावों के भूषण में चमकते हुए नगीनों की तरह स्थान स्थान पर जड़ दिया है। इसके अनेक सरस उदाहरण द्रष्टव्य हैं। नायक और नायिका दोनों कालिन्दी के तीर पर मिलते हैं, मुड़-मुड़कर मुस्कराते हैं, एक दूसरे की बलैयां लेते हैं।  
जहां वर्णित प्रसंग में लोक-प्रसिद्ध प्रवाद ([[कहावत लोकोक्ति मुहावरे]] आदि) का कथन किया जाय, वहां 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। रसखान के काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है। कवि ने उन्हें भावों के भूषण में चमकते हुए नगीनों की तरह स्थान स्थान पर जड़ दिया है। इसके अनेक सरस उदाहरण द्रष्टव्य हैं। नायक और नायिका दोनों कालिन्दी के तीर पर मिलते हैं, मुड़-मुड़कर मुस्कराते हैं, एक दूसरे की बलैयां लेते हैं। इसे लक्ष्य करके कोई सखी कहती हे कि दोनों ने आजकल लोक-लाज को त्याग दिया है, केवल स्नेह को 'सरसा' रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि आगे क्या होगा-
 
<poem>यह रसखानि दिना द्वै में बात फैलि जैहै,
 
कहाँ लौं सयानी चंदा हाथन छिपाइबौ।<ref>सुजान रसखान, 100</ref></poem> दो दिन में बात फैल जाती है। [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]] को हाथ से नहीं छिपाया जा सकता। यह लोक-प्रसिद्धि है। लोकोक्ति अलंकार की सहायता से लक्षणा द्वारा सखी यह कहना चाहती है कि [[गोपी]] और [[कृष्ण]] की इस प्रेम-लीला को गुप्त रखना असम्भव है। [[ब्रज]] में इसकी चर्चा फैलते देर नहीं लगेगी। इसी तरह निम्नांकित उद्धरण में भी कवि ने 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी' लोकोक्ति का बड़ा ही रमणीय प्रयोग किया है—
 
<poem>करियै उपाय बाँस डारियै कटाय,
 
नहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजै फेरि बांसुरी।<ref>सुजान रसखान, 54</ref></poem>
 
कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियां तन्मय होकर व्याकुल हो जाती हैं। उन्हें न तो पानी का घड़ा भरने की सुधि रहती है और न पग धरने की। वे घर का ध्यान की भूलकर लम्बी-लम्बी उसांसें भरने लगती हैं। कोइर बेहाल होकर भूमि पर गिर जाती है तो कोई-कोई आंसुओं से पूरित आंखों वाली हो जाती है। कवि कहता है कि ब्रज-बनिताओं के मन का वध करने वाली बंशी कुलीनता का ध्वंस करने वाली है। इसका तो एक ही उपाय है कि बांस की कटा दिए जाएँ, इससे यह होगा कि न तो बांस उपजेंगे और न ही फिर बंशी बजेगी। कवि ने अलंकार का कितना प्रभावशाली प्रयोग किया है।
 
  
 
'''मानवीकरण'''  
 
'''मानवीकरण'''  
  
पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रभाव से हिन्दी में कुछ आधुनिक अलंकारों की चर्चा भी होने लगी है। उन्हीं में से एक अलंकार 'मानवीकरण' है। यह शब्द अंग्रेज़ी के 'परसोनिफिकेशन' का हिन्दी अनुवाद है। 'अमानव' में 'मानव' गुणों के आरोप करने की साधारण प्रवृत्ति या प्रक्रिया को 'मानवीकरण' कहा जाता है।<ref>साहित्य कोष (सं0- डा. धीरेन्द्र वर्मा) पृ0 589</ref> मानवीकरण के द्वारा वर्णनीय विषय में मार्तिकता और प्रेषणीयता लाई जाती है। हिन्दी की छायावादी कविता में मानवीकरण का बड़ा ही मनोहर एवं सशक्त प्रयोग हुआ है। प्राचीन कवियों के काव्य में भी मानवीकरण की विशेषताएं उपलब्ध हैं। सहज भावुक कवि रसखान ने भी 'मानवीकरण' अलंकार की सुन्दर योजना की है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं-
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पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रभाव से हिन्दी में कुछ आधुनिक अलंकारों की चर्चा भी होने लगी है। उन्हीं में से एक अलंकार '[[मानवीकरण अलंकार|मानवीकरण]]' है। यह शब्द अंग्रेज़ी के 'परसोनिफिकेशन' का हिन्दी अनुवाद है। 'अमानव' में 'मानव' गुणों के आरोप करने की साधारण प्रवृत्ति या प्रक्रिया को 'मानवीकरण' कहा जाता है।<ref>साहित्य कोष (सं0- डॉ. धीरेन्द्र वर्मा) पृ0 589</ref> मानवीकरण के द्वारा वर्णनीय विषय में मार्तिकता और [[प्रेषणीयता]] लाई जाती है। हिन्दी की छायावादी कविता में मानवीकरण का बड़ा ही मनोहर एवं सशक्त प्रयोग हुआ है। प्राचीन कवियों के काव्य में भी मानवीकरण की विशेषताएं उपलब्ध हैं। सहज भावुक कवि रसखान ने भी 'मानवीकरण' अलंकार की सुन्दर योजना की है।  
*प्रेमी की मुस्कान पर मुग्ध नायिका कहती है— बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।<ref>सुजान रसखान, 38</ref> यहाँ 'मुसकानि' चेतन प्राणी नहीं है। (न मानव ही है) फिर भी उसे 'बैरिनि' कहा गया है। बैरिणी वही हो सकती है जो चेतन हो। 'मुसकानि' का यहाँ मानवीकरण करके उक्ति में चमत्कार लाया गया है। अतएव यह 'मानवीकरण' अलंकार का उदाहरण है।
 
*वहि बाँसुरि की धुनि कान परें कुलकानि हियौ तजि भाजति है।<ref>सुजान रसखान, 67</ref> 'कुलकानि' प्राणी नहीं है जो भागे। कुलकानि की चिन्ता मानव को ही हो सकती है। जानवरों में इस प्रकार की भावना नहीं होती। अत: यहाँ 'कुलकानि' में मानव की विशेषता को चित्रित करके उसका मानवीकरण किया गया है। *मोहन में नायिका का मन अटका हुआ है तथा मन को चैन नहीं पड़ता और स्थिति यह है कि— व्याकुलता निरखे बिन मूरति भागति भूख न भूषन भावै।<ref>सुजान रसखान, 136</ref> यहाँ भागति भूख में मानवीकरण अलंकार है, क्योंकि अमूर्त और अचेतन 'भूख' का मानवीकरण किया गया है तथा उसमें भागने की विशेषता दिखाई गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि रसखान की कविता में विभिन्न प्रकार के शब्दगत और अर्थगत अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
 
 
 
कवि ने कहीं चमत्कार लाने के लिए अलंकारों को बरबस ठूंसने की चेष्टा नहीं की है। भाव और रस के प्रवाह पर भी उसकी दृष्टि केन्द्रित रही है। भावों और रसों की अभिव्यक्ति को उत्कृष्ट बनाने के लिए ही अलंकारों की योजना की गई है। उचित स्थान पर अलंकारों का ग्रहण किया गया है। उन्हें दूर तक खींचने का व्यर्थ प्रयास नहीं किया गया है। औचित्य के अनुसार ठीक स्थान पर उनका त्याग कर दिया गया है। रसखान द्वारा प्रयुक्त अलंकार अपने 'अलंकार' नाम को सार्थक करते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास और अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक की निबंधना में कवि ने विशेष रूचि दिखाई है। बड़ी कुशलता के साथ उनका सन्निवेश किया है, उन्हें इस विधान में पूर्ण सफलता मिली है। अलंकारों की सुन्दर योजना से उनकी कविता का कला-पक्ष निस्सन्देह निखर आया है।
 
  
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[[Category:रसखान]]
 
  
 
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Latest revision as of 11:07, 9 February 2021

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

hindi sahity mean krishna bhakt tatha ritikalin kaviyoan mean rasakhan ka mahattvapoorn sthan hai. 'rasakhan' ko ras ki khan kaha jata hai. inake kavy mean bhakti, shrrigaanr ras donoan pradhanata se milate haian. rasakhan krishna bhakt haian aur prabhu ke sagun aur nirgun nirakar roop ke prati shraddhalu haian.

rasakhan ka kavy-roop

[[chitr:raskhan-1.jpg|rasakhan ki samadhi, mahavan, mathura|thumb|250px]] kavy ke bhed ke sanbandh mean vidvanoan ke apane-apane drishtikon haian.

  • achary vishvanath ne shravy kavy ke padyamay svaroop ko liya hai. unake anusar padyatmak kavy vah hai jisake pad chhandobaddh hua karate haian. yah padyatmak kavy bhi kee prakar ka hua karata hai, jaise-
  1. muktak- jisake pady (apane arth mean) any kisi pady ki akaanksha se mukt athava svatantr hua karate haian,
  2. yugmak- jisamean do padyoan ki rachana paryapt mani jaya karati hai tatha jisaki rooparekha pady-chatushk mean poorn ho jati hai,
  3. kulak- jisamean paanch padyoan ka ek kul dikhaee diya karata hai.

sankshep mean kavy ke do bhed haian- prabandh aur muktak, muktak bhi do prakar ke haian- git aur agit.
prabandh kavy
jis rachana mean koee katha kramabaddh roop se kahi jati hai vah 'prabandh kavy' kahalata hai. prabandh kavy tin prakar ka hota hai-

  1. ek to aisi rachana jisamean poorn jivan vritt vistar ke sath varnit hota hai. aisi rachana ko 'mahakavy' kahate haian.
  2. jis rachana mean khand jivan mahakavy ki hi shaili mean varnit hota hai, aisi rachana ko 'khand kavy' kahate haian.
  3. hindi mean kuchh aisi rachanaean bhi dekhi jati haian, jinamean jivan vritt to poorn liya jata hai, kiantu mahakavy ki bhaanti katha vistar nahian dikhaee deta. aisi rachanaoan mean jivan ka koee ek paksh vistar ke sath pradarshit karane ka prayatn kiya jata hai. ekarth ki hi abhivyakti ke karan aisi rachanaean mahakavy aur khandakavy ke bich ki rachanaean hoti haian. inhean 'ekarth' ya keval 'kavy' kahana chahie. rasakhan ne is prakar ki koee rachana nahian ki.

muktak

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

muktak kavy taratamy ke bandhan se mukt hone ke karan (mukten muktakamh) muktak kahalata hai aur usaka pratyek pad svat: poorn hota hai. 'muktak' vah svachchhand rachana hai jisake ras ka udrek karane ke lie anubandh ki avashyakata nahian.[1] vastav mean muktak kavy ka mahattvapoorn roop hai, jisamean kavyakar pratyek chhand mean aise svatantr bhavoan ki srishti karata hai, jo apane ap mean poorn hote haian. muktak kavy ke praneta ko apane bhavoan ko vyakt karane ke lie any sahayak chhandoan ki avashyakata adhik nahian hoti. prabandh kavy ki apeksha muktak rachana ke lie katha ki avashyakata adhik hoti hai, kyoanki kavy roop ki drishti se muktak mean n to kisi vastu ka varnan hi hota hai aur n vah gey hai. yah jivan ke kisi ek paksh ka athava kisi ek drishy ka ya prakriti ke kisi paksh vishesh ka chitr matr hota hai.

muktak ke prakar
vishay ke adhar par muktak ko tin vargoan mean baanta gaya hai- shrriangar parak, vir rasatmak tatha niti parak. svaroop ke adhar par muktak ke git, prabandh muktak, vishayapradhan, sanghat muktak, ekarth prabandh tatha muktak prabandh adi bhed kiye ja sakate haian.[2]

shrriangar muktak
shrriangar parakamuktakoan ke aantargat aihikataparak rachanaean ati haian jinamean adhikatar nayak-nayika ki shrriangari cheshtaean, bhav bhangima tatha sanket sthaloan ka saral varnan hota hai. milan kal ki madhur kri da tatha viyog ke kshanoan mean baithe aansoo girana athava virah ki ushnata se dharati aur asaman ko jalana adi atyuktipoorn rachanaean shrriangar muktak ke aantargat hi hoti hai. nayak-nayikaoan ki sanyog-viyog avasthaoan tatha vibhinn rrituoan ka varnan shrriangari muktakakaroan ne kiya hai. rasakhan ke kavy mean shrriangar ke darshan hote haian. unhoanne shrriangar-muktak mean sundar padyoan ki rachana ki hai. mohan ke man bhai gayau ik bhai sau gvalin godhan gayau.
takoan lagyau chat, chauhat so duri auchak gat sauan gat chhuvayau.
rasakhani lahi ini chaturata rahi jab lauan ghar ayau.
nain nachai chitai musakai su ot hvai jai aangootha dikhayau.[3] [[chitr:raskhan-2.jpg|rasakhan ke dohe, mahavan, mathura|thumb|250px]]

svatantr muktak
kosh muktak ki bhaanti hi svatantr muktak vishuddh muktak kavy ka ek aang athava bhed hai. jisake lie n to sankhya ka bandhan hai aur n ek prakar ke chhandoan ka hi. balki kavi ki lekhani se tatkal nikale pratyek phutakar chhand ko svatantr muktak ki sanjna di ja sakati hai. svatantr muktak kavy ke lie prem shrriangar, niti tatha vir ras adi koee bhi vishay chuna ja sakata hai. rasakhan ne adhikaansh rachana svatantr muktak ke roop mean ki. unhoanne bhakti evan shrriangar sanbandhi muktak likhe.
mor-pakha sir oopar rakhihau guanj ki mal gare pahirauangi.
odhi pitanbar lai lakuti ban godhan gvarani sang phirauangi.
bhav to vohi mero rasakhani so tere kahe sab svaang karauangi.
ya murali muralidhar ki adharan dhari adharan dharauangi॥[4]

chhandoyojana

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

chhand vah bekhari (manavochcharit dhvani) hai, jo pratyakshikrit nirantar tarang bhangima se ahlad ke sath bhav aur arth ko abhivyanjana kar sake. bhasha ke janm ke sath-sath hi kavita aur chhando ka sanbandh mana gaya hai. chhandoan dvara aniyantrit vani niyantrit tatha tal yukt ho jati hai. gady ki apeksha chhand adhik kal tak sajaj mean prachalit rahata hai. jo bhav chhandobaddh hota hai use apekshakrit adhik amaratv milata hai. bhav ko preshit karane ke sath-sath chhand mean mugdh karane ki shakti hoti hai. chhand ke dvara kalpana ka roop sajag hokar man ke samane pratyaksh ho jata hai.

savaiya chhand
is chhand ki utpatti ke vishay mean vidvanoan mean matabhed hai. d aau. nagendr ka vichar hai ki savaiya shabd sapad ka apabhransh roop hai. isamean chhand ke aantim charan ko sabase poorv tatha aant mean padha jata tha arthat ek pankti do bar aur tin panktiyaan ek bar padhi jati thian. is prakar vastut: char panktiyoan ka path paanch panktiyoan ka-sa ho jata tha. path mean 'savaya' hone se yah chhand savaiya kahalaya. sanskrit ke kisi chhand se bhi isaka mel nahian he. at: yah janapad-sahity ka hi chhand bad ke kaviyoan ne apanaya hoga, aisa anuman kiya jata hai.[5] yadi yah anuman saty ho to prakrit, apabhransh adi mean yah chhand avashy milana chahie jo hindi mean roopaantarit ho gaya hai. kintu aise kisi chhand ke darshan nahian hote. yah sanbhav hai ki teees varnoan vale sanskrit ke upajati chhand ke 14 bhedoan mean se kisi ek ka parivartit roop savaiya ban gaya ho. savaiya 22 aksharoan se lekar 28 aksharoan tak ka hota hai. upajati bhi 22 aksharoan ka chhand hai. aksharoan ka laghu-guru bhav-savaiya mean bhi parivartan grahan karata hai. vaidik chhandoan ka bhi laukik sanskrit chhandoan tak ate b da roop parivartan hua. ho sakata hai ki upajati ka parivartit roop savaiya ho jo savaya bolane se savaiya kahalaya. 'prakritapeangalamh' mean bhi savaiyoan ka roop milata hai kintu vahaan use savaiya sanjna nahian di gee. 'prakritapeangalamh' ka rachanakal sanvat 1300 ke as-pas mana jata hai.

ghanakshari
ghanakshari ya kavitt ke pratham darshan bhaktikal mean hote haian. hindi mean ghanakshari vrittoan ka prachalan kab se hua, is vishay mean nishchit roop se kahana kathin hai.

  • chandabaradaee ke prithviraj rasoan mean doha tatha chhappay chhandoan ki prachurata hai. savaiya aur ghanakshari ka vahaan bhi prayog nahian milata. pramanik roop se ghanakshari ka prayog akabar ke kal mean milata hai.

soratha
yah arddh sam matrik chhand hai. doha chhand ka ulata hota hai. isamean 25-23 matraean hoti haian. rasakhan ke kavy mean char[6] sorathe milate haian. pritam nandakishor, ja din te nainani lagyau.
manabhavan chit chor, palak aut nahi sahi sakauan॥[7]

chhand aur shabd svaroop viparyay

kavy mean sundar abhivyakti ke lie tatha chhandanurodh par pray: kavi shabdoan ko to da-maro da karate haian rasakhan ne bhi kavy chamatkar evan chhand ki matraoan ke anurodh par shabdoan ke svaroop ko badala hai—

  1. jhalakaiyat, tulaiyat, lalachaiyat, laiyat[8]- chhandagrah se jhalakana, tulana, lalachana, lana shabdoan se.
  2. pag paijani bajat piri kachhauti[9]-krishna ki vay ki laghuta ke agrah, svabhavikata evan sauandary lane ke lie kachhauta se kachhauti.
  3. toote chhara bachharadik gaudhan[10]- chhandanurodh par tatha bachhara se shabd samy ke lie chhalla se chhara.
  4. mol chhala ke lala ne bikehauan[11]- lala ke agrah se chhala.
  5. min si aankhi meri aansuvani rahaian[12]- aansuoan se bhari rahane ke arth mean madhury lane ke lie aansoo se aansuvani.

alankar-yojana

  1. REDIRECTsaancha:mukhy
  • alankar shabd ka arth hai jo doosari vastu ko alankrit kare- alankaroti iti alankar:.
  • achary dandi ne kaha hai ki kavy ke sabhi shobhakarak dharm alankar haian.[13] unaki is paribhasha mean chamatkar utpann karane vale sabhi kavy tattvoan ki visheshataoan ko alankar man liya gaya hai.
  • alankar se bhamah ka abhipray aisi shabd ukti se hai jo vakr arthat vichitr arth ka vidhan karane vali ho.[14] alankar shabd aur arth mean vidyaman kavi pratibhotthit aise vaichitry ko alankar kah sakate haian, jo vaky-sauandary ko atishayata pradan karata hai. isi se sabhi bharatiy kavyashastriyoan ne kavy mean alankar ke mahattv ko nirvivad roop se svikar kiya hai.

shabdalankar

anupras

  • keval bharatiy kaviyoan ne hi nahian balki pashchaty kaviyoan ne bhi anupras alankar ka bahut adhik ruchi ke sath prayog kiya hai.
  • anupras ki paribhasha evan svaroop ke vishay mean bhi achary moolat: ekamat haian.
  • sthool roop se, varnasamy ko 'anupras' kaha gaya hai.

yamak

  • jahaan bhinnarthak varnoan (nirarthak ya sarthak) ki kramash: punaravritti ho, vahaan 'yamak' alankar hota hai.[15]
  • 'yamak' ka shabdik arth hai jo da.
  • is alankar ka nam 'yamak' isalie rakha gaya hai kyoanki isamean ek jaise do shabd prayukt hote haian.

shlesh

  • jahaan shlisht padoan dvara anek arthoan ka kathan kiya jay vahaan shlesh alankar hota hai.[16]
  • shlesh pray: any alankaroan ka sahayogi hokar hi kavy mean yojit hota hai.
  • bhavuk kaviyoan ke kavy mean is alankar ka prayog bahut simit roop mean hua hai.

vakrokti

kisi ek abhipray vale kahe hue vaky ka, kisi any dvara shlesh athava kaku se, any arth lie jane ko 'vakrokti' alankar kahate haian.[17] vakrokti alankar do prakar ka hota hai- shlesh vakrokti aur kaku bakrokti. shlesh vakrokti mean kisi shabd ke anek arth hone ke karan vakta ke abhipret arth se any arth grahan kiya jata hai aur kaku vakrokti mean kanth dhvani arthath bolane vale ke lahaje mean bhed hone ke karan doosara arth kalpit kiya jata hai. vakrokti alankar ka niyojan ek kashtasadhy karm hai, jisake lie prayas karana anivary hai.

roopak [[chitr:raskhan-3.jpg|rasakhan ki samadhi, mahavan, mathura|thumb|250px]] upamey par upaman ke nishedh-rahit abhed arop ko roopak kahate haian.[18] 'arop' ka arth hai- roop dena arthath doosare ke roop mean rang dena. yah 'arop' kalpit hota hai. roopak mean upamey ko upaman samajh liya jata hai. upama mean upamey aur upaman mean sadrishy hote hue bhi bhinnata hoti hai jabaki roopak mean donoan ek se jan p date haian.

utpreksha

jahaan prastut mean aprastut ki sanbhavana ki jay, vahaan utpreksha alankar hota hai.[19] 'utpreksha' (uth+pr+eeksha) ka shabdik arth hai, ooancha dekhana arthath u dan lena. upamey aur upaman ko paraspar bhinn janate hue bhi is alankar mean kalpana ki ooanchi u dan ke sahare upamey ko upaman samajhane ka prayatn kiya jata hai. 'sanbhavana' ka tatpary 'ek koti ka prabal' jnan hai. isamean jnan poora nishchayatmak nahian hota, balki tho da kam hota hai. utpreksha rasakhan ke sabase priy alankaroan mean se ek hai. isake anek prayog unake kavy ki shrivriddhi karate haian. isaka karan yah he ki utpreksha ka prayog karate hue kavi-kalpana ko u dan bharane ki adhik guanjaish rahati hai.

apahnuti
jahaan prakrit ka nishedh kar aprakrit ka sthapan kiya jay vahaan 'apahnuti' alankar hota hai. apahnuti keval sadrishy-sambandh mean hi hoti hai. 'apahnuti' ka shabdik arth hai- chhipana ya nishedh karana. isamean kisi saty bat ko chhipakar ya nishedh karake usake sthan par koee jhoothi bat sthapit ki jati hai. apahnuti ki yojana mean pray: kritrimata ane ki ashanka rahati haian rasakhan ke kavy mean yah alankar bahut hi viral roop mean aya hai.

atishayokti
jahaan upaman dvara upamey ka nigaran, asambandh mean maian sambandh ki kalpana, upamey ka anyatv athava karan aur kary ka pauvapiry- viparyay varnit ho, vahaan 'atishayokti' alankar hota hai.[20] atishayokti ka arth hai atikant athava ullanghan arthat kisi vastu ke vishay mean lokasima se badha-chadhakar kathan karana. kavy mean atishayokti ke adhar par hi kavi kalpana ki madhur u danean bharate haian. samany jivan ke vyavahar mean bhi atishayokti ka prayog bahulata se kiya jata hai. at: use manav ki svabhav-jany visheshata kaha ja sakata hai.

atishayokti kaviyoan ki paranpara se prapt alankar hai. rasakhan ne bhi kavy paranparagat roop mean hi usako grahan kiya hai, jisase usamean navinata aur kathan mean suandar chamatkar a gaya hai. unaki atishayokti-yojana keval vaichitry-pradarshan banakar hi nahian rah gee hai, balki abhipret varny vishay mean utkarsh lane ko poornat: samarth hai.

vyatirek
jahaan upaman ki apeksha adhik gun hone ke karan upamey ka utkarsh ho vahaan 'vyatirek alankar' hota hai. vyatirek ka shabdik arth hai adhiky. vyatirek mean karan ka hona anivary hai. rasakhan ke kavy mean vyatirek ki yojana kahian kahian hi huee hai. kintu jo hai, vah akarshak hai. nayika apani sakhi se kah rahi hai ki aisi koee stri nahian hai jo krishna ke sundar roop ko dekhakar apane ko sanbhal sake. he sakhi, maianne 'brajachandr' ke salaune roop ko dekhate hi lokalaj ko 'taj' diya hai kyoanki—

khanjan mil sarojani ki chhabi ganjan nain lala din hono.
bhauanh kaman so johan ko sar bedhan pranani nand ko chhono.[21]

paryay
jahaan ek vastu ki anek vastuoan mean athava anek vastuoan ki ek vastu mean kram se (kal-bhed se) sthiti ka varnan ho vahaan paryay alankar hota hai.[22]

virodhamoolak alankar, virodhabhas

vastut: virodh n hone par jahaan virodh ka abhas ho vahaan 'virodhabhas' alankar hota hai.[23] virodh ke karan samany ukti mean bhi anokha chamatkar a jata hai. is alankar mean virodh keval abhasit hota hai. lekin vichar karane par usaka parihar ho jata hai. aisi uktiyoan ke karan kavy-saundary mean utkarsh ata hai. rasakhan ke kavy mean virodhabhas alankar ki yojana namamatr ko huee hai. isaka karan yah hai ki ve bhakt the, kavy unaki tivr bhavabhivyakti ka sadhan tha. vah bat ko belag kahate the- bahut adhik ghuma phira kar nahian. vachan-vidagdhata ke pradarshan ki cheshta unhoanne kahian nahian ki hai.

visangati

jahaan apatat: virodh drishtigat hote hue, kary aur karan ka vaiyadhikarany varnit ho, vahaan asangati alankar hota hai.[24] isamean do vastuoan ka varnan hota hai- jinamean karan karyasambandh hota hai.

ekavali

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

jahaan shrriankhalaroop mean varnit padarthoan mean visheshy visheshan bhav sambandh ho vahaan ekavali alankar hota hai.[25] is alankar ki yojana kavi log keval chamatkar utpann karane ke lie karate haian. isamean kalpana ki u dan ka vinodatmak roop hota hai.

any sansarg moolak alankar, udaharan

samany roop se hi huee bat ko spasht karane ke lie jahaan usi samany mean ek aansh ko udaharan ke roop mean rakha jata hai, vahaan udaharan alankar hota hai.[26] udaharan alankar ki yojana rasakhan ne alp matra mean ki hai. unake udaharan samany jivan se grahan kie ge haian aur sundar ban p de haian 'udaharan' ke kuchh udaharan nimnaankit haian— rasakhani gubiandahi yauan bhajiyai jimi nagari ko chit gagari maian.[27]

any alankar, anuman

sadhan ke dvara sadhy ke chamatkarapoorn jnan ke varnan ko anuman alankar kahate haian.[28] anuman alankar mean hetu ke dvara sadhy ka anuman karaya jata hai aur yah jnan kavi ke dvara kalpit chamatkar se poorn hota hai. rasakhan ke kavy mean is alankar ka prayog bahut kam hua hai.

lokokti

jahaan varnit prasang mean lok-prasiddh pravad (kahavat lokokti muhavare adi) ka kathan kiya jay, vahaan 'lokokti' alankar hota hai. rasakhan ke kavy mean lokoktiyoan ka prayog sundar roop mean hua hai. kavi ne unhean bhavoan ke bhooshan mean chamakate hue naginoan ki tarah sthan sthan par j d diya hai. isake anek saras udaharan drashtavy haian. nayak aur nayika donoan kalindi ke tir par milate haian, mu d-mu dakar muskarate haian, ek doosare ki balaiyaan lete haian.

manavikaran

pashchaty kavyashastr ke prabhav se hindi mean kuchh adhunik alankaroan ki charcha bhi hone lagi hai. unhian mean se ek alankar 'manavikaran' hai. yah shabd aangrezi ke 'parasoniphikeshan' ka hindi anuvad hai. 'amanav' mean 'manav' gunoan ke arop karane ki sadharan pravritti ya prakriya ko 'manavikaran' kaha jata hai.[29] manavikaran ke dvara varnaniy vishay mean martikata aur preshaniyata laee jati hai. hindi ki chhayavadi kavita mean manavikaran ka b da hi manohar evan sashakt prayog hua hai. prachin kaviyoan ke kavy mean bhi manavikaran ki visheshataean upalabdh haian. sahaj bhavuk kavi rasakhan ne bhi 'manavikaran' alankar ki sundar yojana ki hai.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. adhunik hindi kavy mean chhand yojana, pri0 21
  2. darabari sanskriti aur hindi muktak, pri0 42
  3. sujan rasakhan 101
  4. sujan rasakhan 86
  5. riti kavy ki bhoomika tatha dev aur unaki kavita, pri0 236
  6. sujan rasakhan, 77,98,123,152
  7. sujan rasakhan, 77
  8. sujan rasakhan, 61
  9. sujan rasakhan, 21
  10. sujan rasakhan, 44
  11. sujan rasakhan, 44
  12. sujan rasakhan, 74
  13. kavyashobhakaranh dharmanalankaranh pravakshate. te chadyapi vikalpyante kastanh katsyain vakshyati॥ -kavyadarsh, 2.1
  14. vakrabhidhey shabdoktirishtavachamalankriti:. -kavyalankar, 1. 36
  15. sujan rasakhan, 1,2,5,6,7,8,9,10,11,12, 14,37,78
  16. shlishtai, paderanekarthabhidhane shlesh eeshyate॥ - sahityadarpan, 10 . 11
  17. yaduktamanyathavakyamanyatha nyen yojyate. shleshen kakva va jnaiya sa vakroktiratatha dvidha॥ - kavyaprakash 9.78
  18. abhedapradhanye arope aropavishayanapahnave roopakamh. -alankarasarvasv, pri0 34
  19. sansabhavanamarthotpreksh prakritasy samen yath. -kavyaprakash, 10 . 9
  20. nigiryadhyavasanantu prakritaroo paren yath. prastutasy yadanyatvan padyarthokau ch kalpanamh॥ karyakaranayoryashch paurvaparyaviparyay: vijneya tishayokti: sa....॥ -kavyaprakash, 10 . 100-101
  21. sujan rasakhan, 72
  22. ekamanekasminnanekamekasminkamen paryay:. -alankarasarvasv, pri0 189
  23. viruddhabhasatvan virodh:. -kavyalankarasootr, 4.3.12
  24. viruddhatvenapatato bhasamanan hetukaryaporveyadhikaranyamasangati:॥ -rasagangadhar, pri0 589
  25. saiv shrriankhala sansargasy visheshyavisheshanabhavaroopatve ekavali. -rasagangadhar, pri0 623
  26. alankar pradip, pri0 189
  27. sujan rasakhan, 8
  28. anumanan tu vichchhitya jnanan sadhyasy sadhanat. --sahityadarpan, pri0 10. 63
  29. sahity kosh (san0- d aau. dhirendr varma) pri0 589

sanbandhit lekh