भरत मिलाप: Difference between revisions

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Revision as of 07:01, 2 July 2011

भरत को जब पता चला कि माता कैकेयी ने उन्हें राजसिंहासन पर बैठाने के लिए राम को 14 वर्ष का वनवास दिलाया है, तो वह माता से भला-बुरा कहने लगे और राम को वापस लाने के लिए वन की ओर चल दिए। उधर वन में प्राकृतिक शोभा से युक्त दर्शनीय स्थल चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हुये राम सीता प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहे थे, सहसा उन्हें चतुरंगिणी सेना का कोलाहल सुनाई दिया और वन्य पशु इधर-उधर भागते हुए दिखायी दिए। यह देखकर राम लक्ष्मण से बोले, ऐसा प्रतीत होता है कि इस वन-प्रदेश में वन्य पशुओं के आखेट हेतु किसी राजा या राजकुमार का आगमन हुआ है। तुम जाकर इसका पता लगाओ।'

लक्ष्मण तुरंत एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गये। उन्होंने देखा, उत्तर दिशा से एक विशाल सेना, हाथी, घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सैनिकों के साथ चली आ रही है, जिसके आगे अयोध्या की पताका लहरा रही थी। लक्ष्मण समझ गये कि वह अयोध्या की सेना है। राम के पास आकर क्रोध से लक्ष्मण ने कहा, 'भैया! कैकेयी का पुत्र भरत सेना लेकर इधर चला आ रहा है। वह वन में अकेला पाकर हमारा वध कर देना चाहता है जिससे निष्कंटक होकर अयोध्या पर राज्य कर सके। मैं इस भरत को उसके पापों का फल चखाउँगा।'

राम ने कहा, 'लक्ष्मण! तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? भरत तो मुझे प्राणों से भी प्रिय है। अवश्य ही वह मुझे अयोध्या वापस ले जाने के लिये आया होगा। भरत में और मुझमें कोई अंतर नहीं है, तुमने जो कठोर शब्द भरत के लिये कहे हैं, वे वास्तव में मेरे लिये कहे हैं। किसी भी स्थिति में पुत्र पिता के और भाई - भाई के प्राण नहीं लेता।' राम की भर्त्सना सुनकर लक्ष्मण बोले, 'हे प्रभु! सेना के साथ पिता जी का श्वेत छत्र नहीं हैं। इसी से मुझे आशंका हुई। मुझे क्षमा करें।'

पर्वत के पास अपनी सेना को छोड़कर भरत - शत्रुघ्न राम की कुटिया की ओर चले। उन्होंने देखा, यज्ञ वेदी के पास मृगछाला पर जटाधारी राम वक्कल धारण किये बैठे हैं। वे दौड़कर रोते हुये राम के पास पहुँचे। 'हे आर्य' कहकर वे राम के चरणों में गिर गये। शत्रुघ्न की भी यही अवस्था थी। राम ने दोनों भाइयों को हृदय से लगाया और पूछा, 'पिताजी तथा माताएँ कुशल से हैं ना? कुलगुरु वसिष्ठ कैसे हैं? तुमने तपस्वियों जैसा वक्कल क्यों धारण किया है?'

रामचन्द्र के वचन सुन भरत अश्रुपूरित बोले, 'भैया! हमारे धर्मपरायण पिता स्वर्ग सिधार गये। मेरी माता ने जो पाप किया है, उसके कारण मुझ पर भारी कलंक लगा है, मैं किसी को अपना मुख नहीं दिखा सकता। मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। आप अयोध्या का राज्य सँभाल कर मेरा उद्धार करें। सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल, तीनों माताएँ, गुरु वसिष्ठ आदि सब यही प्रार्थना लेकर आपके पासे आये हैं। मैं आपका छोटा भाई, आपके पुत्र के समान हूँ, माता के द्वारा मुझ पर लगाये गये कलंक को धोकर मेरी रक्षा करें।' जब राम-भरत मिलाप हुआ तो भरत राम से लिपटकर रोने लगे। वह दृश्य बहुत मार्मिक था। भरत ने राम से कहा कि अयोध्या पर राज करने का अधिकार सिर्फ आपको है, आपकी जगह कोई भी नहीं ले सकता और राम से अयोध्या वापस चलने की जिद करने लगे।

इस दृश्य में भाईयों के बीच प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाया गया है। राम ने कहा कि मैने पिताजी को वचन दिया है कि मैं 14 वर्ष का वनवास पूरा करके ही अयोध्या लौटूंगा। तब भरत राम की 'चरण पादुकाएं' सिर पर रखकर अयोध्या ले आए और उन्हें सिंहासन पर रखकर सेवक के रूप में राजकाज संभालने लगे।





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