वराह अवतार: Difference between revisions

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[[चित्र:Varaha-Avatar-1.jpg|thumb|250px|वराह अवतार <br />Varaha Avatar]]
{{पात्र परिचय
*[[हिरण्याक्ष]] और [[हिरण्यकशिपु]] ने जब [[दिति]] के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो धरती कांप उठी। आकाश में [[नक्षत्र]] और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने [[ब्रह्मा]] जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
|चित्र=Varaha-Avatar-1.jpg
*ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं [[विष्णु]] भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में [[गदा]] लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष [[वरुण देवता|वरुण]] की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके [[राजसूय यज्ञ]] किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिय। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। [[चित्र:Varaha-Avatar.jpg|thumb|left|वराह अवतार <br />Varaha Avatar]] तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।' वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है।[[चित्र:Baaraahi.JPG|thumb|250px|[[वाराही मंदिर]], [[चम्पावत]]]] वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे।
|चित्र का नाम=वराह अवतार
[[चित्र:Udaygiri-Caves-Vidisha-1.jpg|[[वराह अवतार]] भित्ति मू्र्तिकला, [[उदयगिरि]] <br /> Massive rock carving depicting Vishnu, in his Varaha incarnation, Udaygiri|thumb|250px]]
|अन्य नाम=कच्छप अवतार
*हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई [[अस्त्र शस्त्र]] नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।  
|अवतार=[[विष्णु|भगवान विष्णु]] के [[अवतार|दस अवतारों]] में तृतीय अवतार 
*भगवान ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया— चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।
|वंश-गोत्र=
*भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे, बहुत परे।  
|कुल=
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|पालक पिता=
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|व्रत-वार=
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|शत्रु-संहार= [[हिरण्याक्ष]]
|संदर्भ ग्रंथ= [[वराह पुराण]]
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|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=जयंती
|पाठ 1=[[भाद्रपद]] में [[शुक्ल पक्ष]] की [[तृतीया]]
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|पाठ 2=
|अन्य जानकारी= भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''वराह अवतार''' [[हिंदू धर्म]] ग्रंथों के अनुसार [[विष्णु|भगवान विष्णु]] के [[अवतार|दस अवतारों]] में से तृतीय अवतार हैं जो [[भाद्रपद]] में [[शुक्ल पक्ष]] की [[तृतीया]] को अवतरित हुए।
==वराह अवतार की कथा==
[[हिरण्याक्ष]] और [[हिरण्यकशिपु]] ने जब [[दिति]] के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो [[पृथ्वी]] कांप उठी। आकाश में [[नक्षत्र]] और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, [[समुद्र]] में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। [[चित्र:Varaha-Avatar.jpg|thumb|left|वराह अवतार]]
====ब्रह्माजी का वरदान====
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने [[ब्रह्मा]] जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं [[विष्णु]] भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में [[गदा]] लेकर [[इन्द्रलोक]] में जा पहुंचा। [[देवता|देवताओं]] को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष [[वरुण देवता|वरुण]] की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके [[राजसूय यज्ञ]] किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।'  
====हिरण्याक्ष और भगवान विष्णु====
[[चित्र:Baaraahi.JPG|thumb|250px|[[वाराही मंदिर]], [[चम्पावत]]]]
वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे।
हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई [[अस्त्र शस्त्र]] नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।  
====हिरण्याक्ष का वध====
[[चित्र:Udaygiri-Caves-Vidisha-1.jpg|[[वराह अवतार]] भित्ति मू्र्तिकला, [[[[उदयगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि ]]]]|thumb|left]]
भगवान विष्णु ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया, चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के [[त्रिशूल]] के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी [[रक्त]] की [[वर्षा]] करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी [[आंख|आंखें]] निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।
 
भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे है, बहुत परे।  
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Revision as of 09:16, 23 May 2013

संक्षिप्त परिचय
वराह अवतार
अन्य नाम कच्छप अवतार
अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में तृतीय अवतार
धर्म-संप्रदाय हिंदू धर्म
प्राकृतिक स्वरूप वराह (सूअर)
शत्रु-संहार हिरण्याक्ष
संदर्भ ग्रंथ वराह पुराण
जयंती भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया
अन्य जानकारी भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है।

वराह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से तृतीय अवतार हैं जो भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया को अवतरित हुए।

वराह अवतार की कथा

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। thumb|left|वराह अवतार

ब्रह्माजी का वरदान

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।'

हिरण्याक्ष और भगवान विष्णु

[[चित्र:Baaraahi.JPG|thumb|250px|वाराही मंदिर, चम्पावत]] वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।

हिरण्याक्ष का वध

[[चित्र:Udaygiri-Caves-Vidisha-1.jpg|वराह अवतार भित्ति मू्र्तिकला, [[उदयगिरि ]]|thumb|left]] भगवान विष्णु ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया, चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।

भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे है, बहुत परे।


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