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'''चारण''' [[भारत]] के पश्चिमी [[गुजरात|गुजरात राज्य]] में रहने वाले व [[हिन्दू|हिन्दू जाति]] की वंशावली का विवरण रखने वाले वंशावलीविद, भाट और कथावाचक।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2|लेखक=इंदु रामचंदानी|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=151|url=}}</ref> | '''चारण''' [[भारत]] के पश्चिमी [[गुजरात|गुजरात राज्य]] में रहने वाले व [[हिन्दू|हिन्दू जाति]] की वंशावली का विवरण रखने वाले वंशावलीविद, भाट और कथावाचक।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2|लेखक=इंदु रामचंदानी|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=151|url=}}</ref> | ||
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'चारण' एवं 'भाट' को अलग-अलग जाति में वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु दोनों वर्गों के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हें एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा सकता है। चारण जाति में [[ब्राह्मण]] और [[राजपूत]] के गुणों का सामन्जस्य मिलता है। पठन-पाठन तथा साहित्यिक रचनाओं के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती है। चारण लोग राजपूत जाति तथा राजकुल से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे। अपने शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी वात, ख्यात, रासो और [[साहित्य]] के लेखक रहे थे। | |||
वहीं दूसरी ओर भाट लोग जनसाधारण से सम्बंधित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे। लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया। शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा, वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्ता थे। लेकिन फिर भी समाज में दोनों की प्रतिष्ठा बराबर की रही थी। चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे। | |||
==स्वामि भक्ति== | |||
भूमि धारक चारण [[कृषि]] कार्य भी करते थे। युद्ध में भाग लेने व शान्ति की स्थापना में यह जाति राजपूत जाति के निकट थी। 18वीं [[शताब्दी]] में [[मराठा|मराठों]] के विरुद्ध तथा 19वीं शताब्दी में आन्तरिक उपद्रवों को दबाने में इस जाति के लोगों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों में भाग लिया था। [[राणा अमरसिंह|महाराणा अमरसिंह]] के काल में कुछ चारणों तथा भाटों ने अपने पैतृक व्यवसाय के साथ-साथ व्यापारिक सामान भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व बेचने का कार्य आरम्भ किया। ऐसे लोगों को 'बनजारा' कहा जाता था। चारणों की स्वामि भक्ति सदैव उल्लेखनीय रही थी। संकटकाल में भी वह अपने स्वामी के साथ रहता था। उनका घर संकटकाल में [[राजपूत]] स्त्रियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित माना जाता था। | |||
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चारण भारत के पश्चिमी गुजरात राज्य में रहने वाले व हिन्दू जाति की वंशावली का विवरण रखने वाले वंशावलीविद, भाट और कथावाचक।[1]
उत्पत्ति
चारण लोग राजस्थान की राजपूत जाति से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और संभवत: मिश्रित ब्राह्मण तथा राजपूत वंश से उत्पन्न हो सहते हैं। इनके कई रिवाज उत्तरी भारत में उनके प्रतिरूप भाटों से मिलते-जुलते हैं। दोनों समूह वचन भंग के बजाय मृत्यु के वरण को अधिक महत्त्व देने के लिए विख्यात हैं। चारण, योद्धा तथा राजाओं से संबंधित कथा गीतों की रचना एक विशिष्ट पश्चिमी राजस्थानी बोली में करते हैं, जिसे 'डिंगल' कहा जाता है, जिसका प्रयोग किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता।
चारण-भाट
'चारण' एवं 'भाट' को अलग-अलग जाति में वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु दोनों वर्गों के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हें एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा सकता है। चारण जाति में ब्राह्मण और राजपूत के गुणों का सामन्जस्य मिलता है। पठन-पाठन तथा साहित्यिक रचनाओं के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती है। चारण लोग राजपूत जाति तथा राजकुल से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे। अपने शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी वात, ख्यात, रासो और साहित्य के लेखक रहे थे।
वहीं दूसरी ओर भाट लोग जनसाधारण से सम्बंधित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे। लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया। शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा, वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्ता थे। लेकिन फिर भी समाज में दोनों की प्रतिष्ठा बराबर की रही थी। चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे।
स्वामि भक्ति
भूमि धारक चारण कृषि कार्य भी करते थे। युद्ध में भाग लेने व शान्ति की स्थापना में यह जाति राजपूत जाति के निकट थी। 18वीं शताब्दी में मराठों के विरुद्ध तथा 19वीं शताब्दी में आन्तरिक उपद्रवों को दबाने में इस जाति के लोगों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों में भाग लिया था। महाराणा अमरसिंह के काल में कुछ चारणों तथा भाटों ने अपने पैतृक व्यवसाय के साथ-साथ व्यापारिक सामान भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व बेचने का कार्य आरम्भ किया। ऐसे लोगों को 'बनजारा' कहा जाता था। चारणों की स्वामि भक्ति सदैव उल्लेखनीय रही थी। संकटकाल में भी वह अपने स्वामी के साथ रहता था। उनका घर संकटकाल में राजपूत स्त्रियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित माना जाता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 151 |