सामाजिक वर्ग स्थापना: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
('आर्यों के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आर्यों के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय संघर्षों के कारण समाज विश्रृंखल होता गया और जैसे-जैसे पशुपालन की अपेक्षा कृषि ज़ोर पकड़ती गई, सामाजिक वर्गों की स्थापना हुई। यद्यपि ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग आर्य<ref>ऋग्वेद, III. 34.9.</ref> और दास<ref>ऋग्वेद, I. 104.2; III. 34.9. ‘देवासो मन्युं दासस्य श्चमन्ते न आवक्षन्त्सुविताय वर्णम्’</ref> के लिए हुआ है। किन्तु इससे किसी ऐसे श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। आर्य वर्ण और दास वर्ण दो वृहद जनजातीय समूह थे, जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। आर्यों के सम्बन्ध में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। सेनार्ट की आलोचना करते हुए ओल्डेनबर्ग ने ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद में जाति (कास्ट) की चर्चा नहीं है, <ref>साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्ग्रेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, II. 272.</ref> किन्तु इस संकलन से आरम्भिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे पनपने का आभास मिलता है। उसमें | [[आर्य|आर्यों]] के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय संघर्षों के कारण समाज विश्रृंखल होता गया और जैसे-जैसे पशुपालन की अपेक्षा [[कृषि]] ज़ोर पकड़ती गई, सामाजिक वर्गों की स्थापना हुई। यद्यपि [[ऋग्वेद]] में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग आर्य<ref>ऋग्वेद, III. 34.9.</ref> और दास<ref>ऋग्वेद, I. 104.2; III. 34.9. ‘देवासो मन्युं दासस्य श्चमन्ते न आवक्षन्त्सुविताय वर्णम्’</ref> के लिए हुआ है। किन्तु इससे किसी ऐसे श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। | ||
*आर्य वर्ण और दास वर्ण दो वृहद जनजातीय समूह थे, जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। आर्यों के सम्बन्ध में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। सेनार्ट की आलोचना करते हुए ओल्डेनबर्ग ने ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद में जाति (कास्ट) की चर्चा नहीं है, <ref>साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्ग्रेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, II. 272.</ref> किन्तु इस संकलन से आरम्भिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘[[ब्राह्मण]]’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार और [[क्षत्रिय]] शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। फिर भी, ‘जन’ और ‘विश्’<ref>जन का उल्लेख लगभग 275 बार और विश् का उल्लेख 170 बार हुआ है।</ref> जैसे शब्दों के बार-बार दुहराये जाने और उनके रीति-रिवाजों से पता चलता है कि ऋग्वैदिक समाज जनजातीय था। | |||
*हमें मालूम नहीं कि जब आर्य [[भारत]] में पहली बार आए तो उनके पास दास थे या नहीं। कीथ का विचार है कि वैदिक युग के भारतीय प्रधानतया पशुचारी थे।<ref>ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 99.</ref> कम से कम ऋग्वेद के आरम्भिक भागों में वर्णित आर्यों के बारे में यह समीचीन है। | |||
*मानव संबंधी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ पशुचारी जनजातियाँ भी दास रखती हैं, हालाँकि अपेक्षित अर्थ में दासप्रथा का अधिक विकसित रूप कृषक जनजातियों में दिखाई पड़ता है।<ref>लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 230.</ref> | |||
Latest revision as of 06:57, 1 October 2011
आर्यों के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय संघर्षों के कारण समाज विश्रृंखल होता गया और जैसे-जैसे पशुपालन की अपेक्षा कृषि ज़ोर पकड़ती गई, सामाजिक वर्गों की स्थापना हुई। यद्यपि ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग आर्य[1] और दास[2] के लिए हुआ है। किन्तु इससे किसी ऐसे श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ।
- आर्य वर्ण और दास वर्ण दो वृहद जनजातीय समूह थे, जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। आर्यों के सम्बन्ध में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। सेनार्ट की आलोचना करते हुए ओल्डेनबर्ग ने ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद में जाति (कास्ट) की चर्चा नहीं है, [3] किन्तु इस संकलन से आरम्भिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार और क्षत्रिय शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। फिर भी, ‘जन’ और ‘विश्’[4] जैसे शब्दों के बार-बार दुहराये जाने और उनके रीति-रिवाजों से पता चलता है कि ऋग्वैदिक समाज जनजातीय था।
- हमें मालूम नहीं कि जब आर्य भारत में पहली बार आए तो उनके पास दास थे या नहीं। कीथ का विचार है कि वैदिक युग के भारतीय प्रधानतया पशुचारी थे।[5] कम से कम ऋग्वेद के आरम्भिक भागों में वर्णित आर्यों के बारे में यह समीचीन है।
- मानव संबंधी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ पशुचारी जनजातियाँ भी दास रखती हैं, हालाँकि अपेक्षित अर्थ में दासप्रथा का अधिक विकसित रूप कृषक जनजातियों में दिखाई पड़ता है।[6]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद, III. 34.9.
- ↑ ऋग्वेद, I. 104.2; III. 34.9. ‘देवासो मन्युं दासस्य श्चमन्ते न आवक्षन्त्सुविताय वर्णम्’
- ↑ साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्ग्रेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, II. 272.
- ↑ जन का उल्लेख लगभग 275 बार और विश् का उल्लेख 170 बार हुआ है।
- ↑ ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 99.
- ↑ लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 230.