नरसिंह राव पी. वी.: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "मस्ज़िद" to "मस्जिद")
m (Text replace - "{{लेख प्रगति" to "{{प्रचार}} {{लेख प्रगति")
Line 44: Line 44:




{{प्रचार}}
{{लेख प्रगति
{{लेख प्रगति
|आधार=
|आधार=

Revision as of 12:39, 10 January 2011

thumb|नरसिंह राव पी. वी. पी. वी. नरसिम्हा राव भारत के नौवें प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाते हैं। (जन्म- 28 जून, 1921, मृत्यु- 23 दिसम्बर, 2004) लेकिन इनके प्रधानमंत्री बनने में भाग्य का बहुत बड़ा हाथ रहा है। 29 मई, 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। ऐसे में सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस को निश्चय ही लाभ प्राप्त हुआ। 1991 के आम चुनाव दो चरणों में हुए थे। प्रथम चरण के चुनाव राजीव गांधी की हत्या से पूर्व हुए थे और द्वितीय चरण के चुनाव उनकी हत्या के बाद में। प्रथम चरण की तुलना में द्वितीय चरण के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसका प्रमुख कारण राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर थी। इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस ने 232 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेतृत्व प्रदान किया गया। ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक़ सांसद जुटा लिए और कांग्रेस सरकार ने पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण किया।

जन्म एवं परिवार

पी. वी. नरसिम्हा राव का जन्म 28 जून, 1921 को आंध्र प्रदेश के वांगरा ग्राम करीम नागर में हुआ था। राव का पूरा नाम परबमुल पार्थी वेंकट नरसिम्हा राव था। इन्हें पूरे नाम से बहुत कम लोग ही जानते थे। इनके पिता का नाम पी. रंगा था। नरसिम्हा राव ने उस्मानिया विश्वविद्यालय तथा नागपुर और मुम्बई विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने विधि संकाय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधियाँ प्राप्त कीं। इनकी पत्नी का निधन इनके जीवन काल में ही हो गया था। वह तीन पुत्रों तथा चार पुत्रियों के पिता बने। पी. वी. नरसिम्हा राव विभिन्न अभिरुचियों वाले इंसान थे। वह संगीत, सिनेमा और थियेटर अत्यन्त पसन्द करते थे। उनको भारतीय संस्कृति और दर्शन में काफ़ी रुचि थी। इन्हें काल्पनिक लेखन भी पसन्द था। वह प्राय: राजनीतिक समीक्षाएँ भी करते थे। नरसिम्हा राव एक अच्छे भाषा विद्वानी भी थे। उन्होंने तेलुगु और हिन्दी में कविताएँ भी लिखी थीं। समग्र रूप से इन्हें साहित्य में भी काफ़ी रुचि थी। इन्होंने तेलुगु उपन्यास का हिन्दी में तथा मराठी भाषा की कृतियों का अनुवाद तेलुगु में किया था।

नरसिम्हा राव में कई प्रकार की प्रतिभाएँ थीं। उन्होंने छद्म नाम से कई कृतियाँ लिखीं। अमेरिकन विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया और पश्चिमी जर्मनी में राजनीति एवं राजनीतिक सम्बन्धों को सराहनीय ढंग से उदघाटित किया। नरसिम्हा राव ने द्विमासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया। मानव अधिकारों से सम्बन्धित इस पत्रिका का नाम 'काकतिया' था। ऐसा माना जाता है कि इन्हें राष्टीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की 17 भाषाओं का ज्ञान था तथा भाषाएँ सीखने का जुनून था। वह स्पेनिश और फ़्राँसीसी भाषाएँ भी बोल व लिख सकते थे।

राजनीतिक जीवन

नरसिम्हा राव ने स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लिया था। आज़ादी के बाद वह पूर्ण रूप से राजनीति में आ गए लेकिन उनकी राजनीति की धुरी उस समय आंध्र प्रदेश तक ही सीमित थी। नरसिम्हा राव को राज्य स्तर पर काफ़ी ख्याति भी मिली। 1962 से 1971 तक वह आंध्र प्रदेश के मंत्रिमण्डल में भी रहे। 1971 में राव प्रदेश की राजनीति में कद्दावर नेता बन गए। वह 1971 से 1973 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे।

पी. वी. नरसिम्हा राव ने संकट के समय में भी इंदिरा गांधी के प्रति वफ़ादारी निभाई। 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो वह इंदिरा गांधी के साथ ही रहे। इससे इन्हें लाभ प्राप्त हुआ और इनका राजनीतिक क़द भी बढ़ा। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तब नरसिम्हा राव की निष्ठा में कोई भी कमी नहीं आई। इंदिरा गांधी का जब पराभव हुआ तब भी इन्होंने पाला बदलने का कोई प्रयास नहीं किया। वह जानते थे कि परिवर्तन स्थायी नहीं है और इंदिरा गांधी का शासन पुन: आएगा। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय तथा सुरक्षा मंत्रालय भी देखा। नरसिम्हा राव ने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों का कार्यकाल देखा था। दोनों नेता इनकी विद्वता और योग्यता के कारण हृदय से इनका सम्मान करते थे।

प्रधानमत्री के पद पर

राजीव गांधी के निधन के बाद कांग्रेस में यह बवाल मचा कि संसदीय दल के नेता के रूप में किसे प्रधानमंत्री का पद प्रदान किया जाए। काफ़ी लोगों के नाम विचारणीय थे। लेकिन जिस नाम पर सहमति थी, वह नरसिम्हा राव का था। उस समय उनका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। इस कारण वह इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी उठाने से बचना चाहते थे। परन्तु इन पर दिग्गज नेताओं का दबाव था। इस कारण अनिच्छुक होते हुए भी वह प्रधानमंत्री बनाए गए। इस प्रकार दक्षिण भारत का प्रथम प्रधानमंत्री देश को प्राप्त हुआ। संयोगवश प्रधानमंत्री बनने के बाद नरसिम्हा राव में अपेक्षित सुधार होता गया। इनके जीवन में बीमारी के कारण जो निष्क्रियता आ गई थी, वह प्रधानमंत्री के कर्तव्यबोध से समाप्त हो गई। यही इनके स्वास्थ्य लाभ का कारण भी था। इन्होंने अपने जीवन में इतना कुछ 1991 तक देखा था कि अस्वस्थ रहने के कारण स्वयं इन्हें भी अपने लम्बे जीवन की आशा नहीं थी। लेकिन प्रधानमंत्री का पद इनके लिए प्राणवायु बनकर आया। पद के दायित्वों को निभाते हुए इनके जीवन की डोर भी लम्बी हो गई।

विभिन्न कांडों के आरोप

नरसिम्हा राव के लिए प्रधानमंत्री का पद पाना तो अवश्य सहज रहा लेकिन इनको 5 वर्ष के अपने शासन काल में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। परन्तु राजनीति और कोयले की ख़दान में रहने वाले व्यक्ति पर दाग़ न लगे, यह कभी सम्भव ही नहीं था। इन पर भी भ्रष्टाचार और हवाला क़ारोबार के आरोप लगे। इनके विरुद्ध हर्षद मेहता ने यह दावा किया कि स्वयं पर लगे आरोपों से मुक्त होने के लिए उसने राव को एक करोड़ रुपयों की रिश्वत दी थी। यह आरोप काफ़ी समय तक चर्चा का विषय बना रहा। कांग्रेस ने अपने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर विश्वास बनाए रखा और हर्षद मेहता के आरोपों को नकार दिया। यद्यपि इस मामले को मीडिया ने ख़ूब उछाला था। तब कांग्रेस ने यह तर्क दिया था कि जिस प्रकार सूटकेस में एक करोड़ रुपये भरकर देने की बाता हर्षद मेहता ने कही है, उसमें एक करोड़ रुपया आ ही नहीं सकता। इस पर हर्षद मेहता ने सूटकेस के एक करोड़ रुपये भरकर टी. वी. पर दिखाया था। लेकिन एक जालसाज़ व्यक्ति पर विश्वास करने का कोई औचित्य नहीं था। हर्षद मेहता के विरुद्ध इस आरोप हेतु कार्यवाही नहीं की गई, इससे लोगों को काफ़ी आश्चर्य हुआ।

जब बुरा समय आता है तो वह चारों तरफ़ से आता है। नरसिम्हा राव के साथ भी यही हुआ था। राव सरकार को बहुमत साबित करने के लिए अतिरिक्त सांसदों की आवश्यकता थी। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा दल के सांसदों ने राव सरकार के पक्ष में अपना समर्थन दिया। तब नरसिम्हा राव पर यह आरोप लगा कि सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए ख़रीद-फ़रोक्त की गई है। इस पर राव के ख़िलाफ़ आपराधिक प्रकरण दर्ज किया गया। निचली अदालत ने उन्हें सजा भी दी लेकिन उच्च न्यायालय से नरसिम्हा राव को राहत प्राप्त हो गई। उपरोक्त दो भ्रष्टाचार कांडों के अतिरिक्त 'सेंट किड्स' कांड ने भी नरसिम्हा राव की अलोकप्रिय कर दिया। सेंट किड्स द्वीप के बैंक ख़ाते में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बेटे का ख़ाता होने के सम्बन्ध में ख़ुलासा किया किया गया था। इस विषय में एक पत्र का भी हवाला था। वी. पी. सिंह ने राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप ख़रीद मामले में घूस का जो आरोप लगाया था, वह उसके विरुद्ध कांग्रेस का जबाव था। लेकिन बाद में प्रमाणित हुआ कि जो पत्र मीडिया ने जारी किया था, वह जाली था और वी. पी. सिंह के पुत्र का कोई भी ख़ाता सेंट किड्स द्वीप के बैंक में नहीं था। ऐसी स्थिति में यह माना गया कि जाली पत्र तैयार कराने में नरसिम्हा राव की ही भूमिका थी। इसके अतिरिक्त राव पर न्यायालय में झूठे दस्तावेज़ बनाने का अभियोग भी चला। लेकिन नरसिम्हा राव इस मामले में भी बुगुनाह साबित हो गए। इसके अलावा लक्खू भाई पाठक कांड में मुद्रा के हेर-फ़ेर का आरोप भी इन पर लगा, परन्तु प्रमाणित कुछ भी नहीं हुआ। अत: एक कठिन दौरा नरसिम्हा राव को झेलना पड़ा। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि कांग्रेस एकजुट थी और नरसिम्हा राव के समर्थन में खड़ी थी।

अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के प्रकरण में भी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की काफ़ी आलोचना हुई। तब उन पर यह आरोप लगा कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने को लेकर उनकी उदासीनता ही उनकी मूक सहमति थी और वह अपनी हिन्दुत्ववादी सोच पर क़ायम थे। इससे कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की छवि भी संदेह के घेरे में आ गई और मुसलमान उनसे बिदककर समाजवादी पार्टी की ओर आकृष्ट हुए। अयोध्या के विवादित ढाँचे को ढहाए जाने के विरोध में देश भर में साम्प्रदायिक दंगे भी हुए और कई बम कांड भी हुए। इनमें सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। अनेक राज्यों की अरबों रुपयों की सार्वजनिक सम्पत्ति को भी दंगाईयों ने ध्वस्त कर दिया। देश का साम्प्रदायिक सौहार्द समाप्त होने के कग़ार पर पहुँच गया। वस्तुत: प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के लिए प्रभावी क़दम नहीं उठाए थे। वह चाहते तो बाबरी मस्जिद को बचा सकते थे। इस प्रकार उनकी अदूरदर्शिता के कारण ही सार्वजनिक दंगे हुए थे। नरसिम्हा राव पर यह भी आरोप लगा कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में प्रतिहिंसा के स्वरूप जो दंगे भड़के थे, उनकी प्रभावी रोकथाम नहीं की गई। इस समय राव देश के गृहमंत्री थे। इन्हें हिन्दू-सिख दंगों को रोकने के लिए कड़े से कड़े क़दम उठाने चाहिए थे। दिल्ली तीन दिन तक प्रतिहिंसा की अग्नि में झुलसती रही। इस कारण भी निरसिम्हा राव की निष्क्रियता की काफ़ी आलोचना की गई। यदि वह सख़्त क़दम उठाते तो सैकड़ों जीवन बचाए जा सकते थे। गृहमंत्री के दायित्व इन्हें हर क़ीमत पर पूर्ण करने चाहिए थे।

नई आर्थिक नीति

परिवर्तन ही शाश्वत होता है, अत: समय के अनुसार परिवर्तन होना चाहिए। एक समय पंडित नेहरू का था, जब देश की आर्थिक नीति सार्वजनिक उपक्रमों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी। लेकिन नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल के आते-आते विश्व परिदृश्य आर्थिक दृष्टिकोण से काफ़ी बदल गया था। ग्लोबलाइजेशन की भासना से ही आर्थिक नीतियाँ विकसित की जा सकती थीं। सम्पूर्ण विश्व एक स्वीकार्य मंडी बन गया था। इस कारण यह सम्भव ही नहीं था कि भारत अनुदार आर्थिक नीति के साथ चिपका रहे। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव ने आर्थिक सुधारों का श्रीगणेश किया। भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के अनुकूल बनाने के सारगर्भित प्रयास किए। इस समय वैश्वीकरण और सरल निजीकरण की धूम मची हुई थी। सार्वजनिक क्षेत्रों के उन उपक्रमों को रेखांकित किया गया जो तमाम आर्थिक उपचार के बाद भी घाटा ही उगल रहे थे। इस समय नरसिम्हा राव के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे, जो कि एक बेमिसाल अर्थशास्त्री भी हैं। नरसिम्हा राव ने अपने वित्त मंत्री के आर्थिक सुधार कार्यक्रमों पर पूर्णतया विश्वास व्यक्त किया। इस कारण घाटे में चलने वाले कई सरकारी उद्योगों के निजी हाथों में सौंपने का फ़ैसला किया गया। इसके अतिरिक्त खुली आर्थिक व्यवस्था में लाइसेंसीकरण को समाप्त किया गया।

इसके पूर्व निजी उद्यमी को किसी भी उद्योग की स्थापना हेतु लाइसेंस लेना अनिवार्य था। लाइसेंस राज के कारण उद्यमियों को काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इससे उनका समय और ऊर्जा दोनों ही नष्ट होती थी और लालफ़ीता शाही के दोषों के कारण भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिल रहा था। आर्थिक सुधार लागू होने से उद्यमियों के लिए उद्योग स्थापित करना आसान हो गया। इस कारण देश में नए निवेशक सामने आए। देश का उत्पादन बढ़ने के साथ ही रोज़गार विकेंद्रित स्वरूप प्रकट हुए। विदेशी निवेशकों को भी भारत में उद्यम स्थापित करने की सुविधा प्राप्त हो गई। देश प्रगति की राह पर बढ़ा जिससे भारतीय विदेशी मुद्रा भण्डार में अकल्पनीय वृद्धि हुई। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को सम्पूर्ण सराहना प्राप्त हुई हो। देश की कई ट्रेड यूनियंस ने निजीकरण का प्रबल विरोध किया। मुद्दाहीन विपक्ष उनकी पीठ ठोंकने और राव सरकार की आलोचना करने में पीछे नहीं रहा। विपक्ष का कहना था कि राव सरकार के द्वारा भारत को पुन: गुलामी की ओर धकेला जा रहा है। जिस प्रकार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापार के नाम पर भारत में घुसपैठ करके देश को गुलाम बना लिया था, उसी प्रकार विदेशी निवेशक भारतीय उद्योगों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे। लेकिन इस दुष्प्रचार से अप्रभावित रहते हुए प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव एवं वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार कार्यक्रम जारी रखे। इन नए आर्थिक उपायों के कारण देश की विकास दर में अपेक्षित सुधार हुआ। यह विकास दर 7 प्रतिशत हो गई, जो कि पूर्व में मात्र 1 प्रतिशत के आसपास ही थी।

भारतीय निर्यात में वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक था कि रुपये का अवमूल्यन किया जाए। अवमूल्यन करने के अलावा राव सरकार ने ख़र्चों को भी कम करने पर ज़ोर दिया। सरकारी ख़र्चों में काफ़ी कटौती की गई। लेकिन यह सब आसान नहीं था। राव सरकार को विराधों का सामना करना पड़ा। भारत के शक्तिशाली औद्योगिक घरानों को जब विदेशी निवेश के कारण अपना एकाधिकार डोलता नज़र आया तो उन्होंने भी राव सरकार की आलोचना करनी आरम्भ कर दी। उन्होंने विरोध के स्वरूप एक संस्था का भी गठन किया। लेकिन वित्तमंत्री के प्रयासों को नरसिम्हा राव का समर्थन जारी रहा। देश में कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का आगमन हुआ। भारतीय कम्पनियों को भी सरकार ने छूट प्रदान की ताकि वे विदेश में क़ारोबार करने का सपना फलीभूत कर सकें। आर्थिक सुधार कार्यक्रम अनवरत चलता रहा और प्रथम तीन वर्षों तक देश आर्थिक प्रगति के पथ पर आरूढ़ भी रहा। लेकिन बाद के कुछ वर्षों में कठिनाइयाँ आईं और इसे बरक़रार नहीं रखा जा सका। कई राज्यों में कांग्रेस की सरकार जाती रही। बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण भी आर्थिक नुकसान हुए। राज्यों में हुई हार का कारण विश्लेषकों ने आर्थिक नीति बताई। कुछ कांग्रेसी नेता इस राय से सहमत नहीं नज़र आए और कुछ ने इसका विरोध भी किया। लेकिन नरसिम्हा राव जानते थे कि आर्थिक सुधारों के कारण ही देश बदहाल आर्थिक संकट से उबर सका है। इसके पूर्व भारत आर्थिक रूप से कंगाल हो चुका था और विश्व की अर्थव्यवस्था में उसका कोई स्थान नहीं रहता। नरसिम्हा राव ने अपने वित्तमंत्री मनमोहन सिंह की ढाल बनाकर उनका बचाव किया। उनके मनोबल को ऊँचा रखा और तमाम विरोधों के बावजूद मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति पर विश्वास बनाए रखा।

कांग्रेस की पराजय

वी. पी. नरसिम्हा राव की आर्थिक सफलताएँ भुला दी गईं। 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। संसद में उनके पास इतने सांसद नहीं थे कि वह सरकार बनाने का दावा पेश कर सकें। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई। इस कारण राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा को सरकार बनाने और बहुमत सिद्ध करने का न्योता दिया। लेकिन यह उसी समय तय हो चुका था कि भाजपा आवश्यक बहुमत पेश नहीं कर सकेगी। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, लेकिन 13 दिन के बाद ही सरकार गिर गई। इस चुनाव में विभिन्न कारणों से कांग्रेस की पराजय का ज़िम्मेदार नरसिम्हा राव को ही माना गया और पार्टी में उनकी स्थिति दिनों-दिन कमज़ोर होने लगी। अन्तत: जब सोनिया गांधी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ तो पार्टी संगठन उन्हीं के ईद-गिर्द मंडराता नज़र आने लगा।

विभिन्न उपलब्धियाँ

सन् 1996 में प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद से ही पी. वी. नरसिम्हा राव का हाशिय पर जाना आरम्भ हो गया तथा कांग्रेस संगठन ने इन्हें विस्मृत कर दिया तथापि वह निम्नवत् उपलब्धियों के लिए सदैव जाने जाएँगे-

  • पी. वी. नरसिम्हा राव प्रथम दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री बने और उन्होंने अपना कार्यकाल सम्पूर्ण किया।
  • नरसिम्हा राव पर हिन्दुत्ववादी शक्तियों का प्रश्रय देने का आरोप भी लगा।
  • राव पर भ्रष्टाचार के भी कई आरोप लगे, लेकिन न्यायालय में इन्हें अन्तिम रूप से साबित नहीं किया जा सका।
  • अब तक नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य ही प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करते रहे। लेकिन नरसिम्हा राव ने इस परम्परा को तोड़ते हुए पूरे पाँच वर्ष का समय प्रधानमंत्री के रूप में गुज़ारा।
  • बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद नरसिम्हा राव ने मुस्लिमों को सम्बोधित करते समय उर्दू भाषा का प्रयोग किया। लेकिन आवश्यकता पड़ने पर हिन्दू मतावलम्बियों के समक्ष उन्होंने संस्कृतनिष्ठ श्लोकों द्वारा अपनी बात कही।
  • नरसिम्हा राव की राजनीतिक दक्षता के कारण आंध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम और जनता पार्टी की स्थिति कमज़ोर तथा कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई।
  • जब राजनीतिक व्यक्ति अपनी पार्टी में उपेक्षित होता है तो वह सामान्यत: दूसरी पार्टी से जुड़ जाता है। लेकिन राव ने मृत्यु पर्यन्त कांग्रेस को ही अपना प्रथम और अन्तिम घर माना। यह किसी भी व्यक्ति की चारित्रिक महानता ही कही जानी चाहिए कि वह अपनी पार्टी के साथ में वफ़ादारी बरते।

समग्र विश्लेषण

राजनीतिक संन्यास का जीवन जीते हुए भी पी. वी. नरसिम्हा राव ने सार्थक जीवन गुज़ारा। इस समय का उपयोग उन्होंने लेखन और अनुवाद कार्यों में किया। उन्होंने तेलुगु भाषा के विश्वनाथ सत्यनारायण जैसे महान साहित्यकार के उपन्यास 'सहस्त्र फण' का हिन्दी में अनुवाद भी किया। जीवन के अन्तिम दौर में राव ने एक राजनीतिक उपन्यास 'दि इंसाइडर' लिखा। साथ ही साथ राम मन्दिर और मस्जिद प्रकरण पर इनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें इन्होंने तथ्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक स्थितियों का चित्रण करते हुए अपनी भूमिका को स्पष्ट किया था।

निधन

नरसिम्हा राव का स्वास्थ्य 2004 के आसपास ख़राब रहने लगा था। उन्हें 9 दिसम्बर को एम्स में दाख़िल कराया गया। इन्हें साँस लेने में कठिनाई हो रही थी। अन्तत: 83 वर्ष पूरे करने के बाद 23 दिसम्बर, 2004 की दोपहर 2:40 पर अपना शरीर त्याग दिया। अन्तिम समय में उनके बेटे प्रभाकर राव उनके पास उपस्थित थे।

इस प्रकार देश के नौवें प्रधानमंत्री के रूप में पी. वी. नरसिम्हा राव ने अपना जीवन सफर पूर्ण किया। लेकिन आर्थिक सुधारों के लिए इन्हें सदैव याद रखा जाएगा। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान रखने वाले विद्वान के रूप में भी यह देशवासियों की स्मृति में सदा बने रहेंगे।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख