बढ़ई

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thumb|250px|बढ़ई बढ़ई लकड़ी का काम करने वाले लोगों के समुदाय को कहा जाता है। ये प्राचीन काल से समाज के प्रमुख अंग रहे हैं। भारत में वर्णव्यवस्था बहुत प्राचीन काल से चल रही है। अपने कार्य के अनुसार ही जातियों की उत्पत्ति हुई है। लोहे के काम करने वाले लोहार तथा लकड़ी के काम करने वाले 'बढ़ई' कहलाए। ये प्राचीन काल से समाज के प्रमुख अंग रहे हैं। घर की आवश्यक काष्ठ की वस्तुएँ बढ़ई द्वारा बनाई जाती हैं। इन वस्तुओं में चारपाई, तख्त, पीढ़ा, कुर्सी, मचिया, आलमारी, हल, चौकठ, बाजू, खिड़की, दरवाज़े तथा घर में लगने वाली कड़ियाँ इत्यादि सम्मिलित हैं। प्राचीन व्यवस्था के अनुसार बढ़ई जीवन निर्वाह के लिए वार्षिक वृत्ति पाते थे। इनको मज़दूरी के रूप में विभिन्न त्योहारों पर भोजन, फसल कटने पर अनाज तथा विशेष अवसरों पर कपड़े तथा अन्य सहायता दी जाती थी। इनका परिवार काम कराने वाले घराने से आजन्म संबंधित रहता था। आवश्यकता पड़ने पर इनके अतिरिक्त कोई और व्यक्ति काम नहीं कर सकता था। पर अब नकद मज़दूरी देकर कार्य कराने की प्रथा चल पड़ी है।

कार्य में निपुण

ये लोग विश्वकर्मा भगवान्‌ की पूजा करते हैं। इस सुअवसर पर ये अपने सभी यंत्र, औजार तथा मशीन साफ़ करके रखते हैं। घर की सफाई करते हैं। हवन इत्यादि करते हैं। कहते हैं, ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तथा विश्वकर्मा ने शिल्पों की। प्राचीन काल में उड़न खटोला, पुष्पक विमान, उड़ने वाला घोड़ा, बाण तथा तरकस और विभिन्न प्रकार के रथ इत्यादि का विवरण मिलता है जिससे पता चलता है कि काष्ठ के कार्य करने वाले अत्यंत निपुण थे। इनकी कार्यकुशलता वर्तमान समय के शिल्पियों से ऊँची थी। पटना के निकट बुलंदी बाग़ में मौर्य काल के बने खंभे दरवाज़े अच्छी हालत में मिले है, जिनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में काष्ठ शुष्कन तथा काष्ठ परिरक्षण निपुणता से किया जाता था। thumb|250px|बढ़ई

लकड़ी का सामान

भारत के विभिन्न स्थानों पर जैसे वाराणसी में लकड़ी की ख़रीदी हुई वस्तुएँ, बरेली में लकड़ी के घरेलू सामान तथा मेज, कुर्सी, अलमारी इत्यादि सहारनपुर में चित्रकारीयुक्त वस्तुएँ, मेरठ तथा देहरादून में खेल के सामान, श्रीनगर में क्रिकेट के बल्ले तथा अन्य खेल के सामान, मैनपुरी में तारकशी का काम, नगीना तथा धामपुर में नक़्क़ाशी का काम, रुड़की में ज्यामितीय यंत्र, लखनऊ में विभिन्न खिलौने बनते तथा हाथीदाँत का काम होता है।

शिक्षा

वर्तमान समय में बढ़ईगीरी की शिक्षा आधुनिक ढंग से देने के लिए बरेली तथा इलाहाबाद में बड़े बड़े विद्यालय हैं, जहाँ इससे संबंधित विभिन्न शिल्पों की शिक्षा दी जाती हैं। बढ़ई आधुनिक यंत्रों के उपयोग से लाभ उठा सकें, इसके लिए गाँव-गाँव में सचल विद्यालय भी खोले गए हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्रिपाठी, रामप्रसाद “खण्ड 8”, हिन्दी विश्वकोश, 1967 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पृष्ठ सं 182।

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