राष्ट्रीय गीत: Difference between revisions
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बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदे मातरम् तो बहुत लम्बी रचना है, जिसमें [[दुर्गा|माँ दुर्गा]] की शक्ति का भी बख़ान है, पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेण्ड है। इस तरह लगता है कि 'राष्ट्रीय गान' और 'राष्ट्रीय गीत' के न सिर्फ़ [[राग]] बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है। | |||
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[[1870]] के दौरान [[अंग्रेज़]] हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के इस आदेश से [[बंकिमचंद्र चटर्जी]] को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत: [[1876]] में इसके विकल्प के तौर पर [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्"। शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे। | |||
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इस तरह लगता है कि राष्ट्रीय गान और गीत के न सिर्फ़ [[राग]] बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है। | गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन [[1880]] के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने [[1881]] में अपने उपन्यास '[[आनंदमठ]]' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी'<ref>[[दुर्गा]]</ref>, कमला<ref>[[लक्ष्मी]]</ref> और वाणी<ref>[[सरस्वती]]</ref> के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई। यानी तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है या 'राष्ट्रगीत' नहीं है। काफ़ी समय बाद जब विभाजनकारी [[मुस्लिम]] और [[हिन्दू]] सांप्रदायिक ताकतें उभरीं तो यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। [[1920]] और ख़ासकर [[1930]] के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ।<ref>{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2006/09/060904_spl_vande_sabyasachi.shtml |title=एक साहित्यिक रचना का राजनीतिकरण |accessmonthday=[[11 अक्तूबर]] |accessyear=[[2010]] |last=भट्टाचार्य |first=सव्यसाची |authorlink= |format= |publisher=एच टी एम एल |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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सन [[1905]] के [[बंगाल]] के स्वदेशी आंदोलन ने "वंदे मातरम्" को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और [[अरविंद घोष]] ने बंकिम को राष्ट्रवाद का "ऋषि" कहकर पुकारा। सन् [[1920]] तक, सुब्रह्मण्यम् भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न [[भाषा|भारतीय भाषाओं]] में अनूदित होकर यह गीत "राष्ट्रगान" की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन् [[1930]] के दशक में "वंदे मातरम्" की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्तिपूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। [[जवाहरलाल नेहरू]] के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] ने सन् [[1937]] में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=6107 |title=वंदे मातरम् |accessmonthday=[[11 अक्तूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पुस्तक डॉट ओ आर जी |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | सन [[1905]] के [[बंगाल]] के स्वदेशी आंदोलन ने "वंदे मातरम्" को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और [[अरविंद घोष]] ने बंकिम को राष्ट्रवाद का "ऋषि" कहकर पुकारा। सन् [[1920]] तक, सुब्रह्मण्यम् भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न [[भाषा|भारतीय भाषाओं]] में अनूदित होकर यह गीत "राष्ट्रगान" की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन् [[1930]] के दशक में "वंदे मातरम्" की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्तिपूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। [[जवाहरलाल नेहरू]] के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] ने सन् [[1937]] में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=6107 |title=वंदे मातरम् |accessmonthday=[[11 अक्तूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पुस्तक डॉट ओ आर जी |language=[[हिन्दी]] }}</ref> |
Revision as of 12:11, 20 June 2012
thumb|250px|वन्दे मातरम्
Vande Mataram
भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा की गई थी। इन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गाँव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मौहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। 'वंदे मातरम्' का स्थान राष्टीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। यह गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था।
पद
वंदे मातरम् गीत का प्रथम पद इस प्रकार है-
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्यश्यामलाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्!
शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
अरबिन्द का अनुवाद
गद्य रूप में श्री अरबिन्द घोष द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है-
मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता,
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फ़सलों के साथ गहरा,
माता!
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी ज़मीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है,
हंसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली।
मूल गीत
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
सस्य श्यामलां मातरंम् .
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् ॥
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गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया है, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।
चित्र:Blockquote-close.gif |
कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले
द्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥
तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् ॥
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥
गीत के राग व अवधि
वर्षों से संगीत सरिता, स्वर सुधा, राग-अनुराग जैसे कार्यक्रम सुनने में आते रहे हैं। इससे यह पता चल गया है कि ये ढेर सारे फ़िल्मी गीत कौन-कौन से राग पर आधारित हैं। पर खेद है कि अब तक यह जानकारी नहीं मिली कि राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् और राष्ट्रीय गान 'जन गन मन' किन रागों पर आधारित हैं। यह दोनों ही रचनाएँ बांग्ला भाषा के कवियों से निकली हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे, जिससे लगता है कि यह रचनाएँ रविन्द्र संगीत में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं।
बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदे मातरम् तो बहुत लम्बी रचना है, जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है, पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेण्ड है। इस तरह लगता है कि 'राष्ट्रीय गान' और 'राष्ट्रीय गीत' के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है।
निर्माण
1870 के दौरान अंग्रेज़ हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेज़ों के इस आदेश से बंकिमचंद्र चटर्जी को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत: 1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्"। शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे।
गीत का विरोध
गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी'[1], कमला[2] और वाणी[3] के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई। यानी तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है या 'राष्ट्रगीत' नहीं है। काफ़ी समय बाद जब विभाजनकारी मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें उभरीं तो यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। 1920 और ख़ासकर 1930 के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ।[4]
वंदे मातरम् का इतिहास
सन 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने "वंदे मातरम्" को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिम को राष्ट्रवाद का "ऋषि" कहकर पुकारा। सन् 1920 तक, सुब्रह्मण्यम् भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत "राष्ट्रगान" की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन् 1930 के दशक में "वंदे मातरम्" की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्तिपूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन् 1937 में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया।[5]
वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत बनाया
जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्ज़ा मिला। लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया जा रहा है।[6]
स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रगीत की भूमिका
बंगाल में चले आज़ादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में लोकप्रिय हो गया। ब्रिट्रानी हुकूमत इसकी लोकप्रियता से सशंकित हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरन दास ने यह गीत पुनः गाया। 1905 में बनारस में हुए अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी चौधरानी ने स्वर दिया।
कांग्रेस के अधिवेशनों के अलावा भी आज़ादी के आंदोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफ़ी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया उसका नाम 'वंदे मातरम' रखा। अंग्रेज़ों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली आज़ादी की दीवानी मातंगिनी हज़ारा की जुबान पर आख़िरी शब्द 'वंदे मातरम' ही थे। सन् 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में 'वंदे मातरम' ही लिखा हुआ था।
इतिहास के पन्नों पर वंदे मातरम्
- 7 नवंबर 1876 में बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने 'वंदे मातरम' की रचना की।
- 1882 में वंदे मातरम बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास "आनंद मठ" में सम्मिलित हुआ।
- 1896 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।
- मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में।
- वंदे मातरम् का अंग्रेज़ी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया।
- दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा प्रदान किया गया, बंग भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय नारा बना।
- 1906 में ‘वंदे मातरम’ देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया, कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इसका संशोधित रूप प्रस्तुत किया।
- 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे।
- पं. नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति ने 28 अक्तूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस राष्ट्रगीत के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पद ही प्रासंगिक है, इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया।
- 14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन...’ के साथ हुआ।
- 1950 ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान बना।
- 2002 बी.बी.सी. के एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘वंदे मातरम्’ विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है।[7]
राष्ट्रगीत का महत्त्व
राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करने में गीत, संगीत और नृत्य की महत्त्व भूमिका होती है। लोगों को एकसूत्र में बांधने के साथ ही संगीत मन को खुशी भी देती है।
सर्वप्रथम 1882 में प्रकाशित इस गीत पहले पहल 7 सितंबर 1905 में कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया गया। इसीलिए 2005 में इसके सौ साल पूरे होने के उपलक्ष में 1 साल के समारोह का आयोजन किया गया। 7 सितंबर 2006 में इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाए जाने पर बल दिया। हालांकि इसका विरोध होने पर उस समय के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने संसद में कहा कि गीत गाना किसी के लिए आवश्यक नहीं किया गया है, यह स्वेच्छा पर निर्भर करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दुर्गा
- ↑ लक्ष्मी
- ↑ सरस्वती
- ↑ भट्टाचार्य, सव्यसाची। एक साहित्यिक रचना का राजनीतिकरण (हिन्दी) एच टी एम एल। अभिगमन तिथि: 11 अक्तूबर, 2010।
- ↑ वंदे मातरम् (हिन्दी) पुस्तक डॉट ओ आर जी। अभिगमन तिथि: 11 अक्तूबर, 2010।
- ↑ रामन, सुनील। वंदे मातरम् से जुड़े हैं अनेक पहलू (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) बीबीसी। अभिगमन तिथि: 11 अक्तूबर, 2010।
- ↑ ‘वंदे मातरम्’ को सांप्रदायिक कहना शहीदों का अपमान है (हिन्दी) हिन्दी मीडिया। अभिगमन तिथि: 11 अक्तूबर, 2010।