महावत ख़ाँ: Difference between revisions
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जैसे-जैसे बादशाह जहाँगीर पर [[नूरजहाँ]] का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे महावत ख़ाँ पर भी जहाँगीर की कृपादृष्टि कम होती गई। मलका नूरजहाँ के [[पिता]] और भाई, दोनों महावत ख़ाँ के विरोधी थे। अगले बारह साल तक बादशाह ने महावत ख़ाँ को कोई | जैसे-जैसे बादशाह जहाँगीर पर [[नूरजहाँ]] का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे महावत ख़ाँ पर भी जहाँगीर की कृपादृष्टि कम होती गई। मलका नूरजहाँ के [[पिता]] और भाई, दोनों महावत ख़ाँ के विरोधी थे। अगले बारह साल तक बादशाह ने महावत ख़ाँ को कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा। इससे वह हताश होने लगा। फिर भी शाहज़ादा 'ख़ुर्रम' ([[शाहजहाँ]]) ने जब जहाँगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत की, तो महावत ख़ाँ उसे दबाने के लिए शाही फ़ौज लेकर गया। उसने बाग़ी शाहज़ादे को पहले दक्खिन में बिलोचपुर के युद्ध में और फिर [[इलाहाबाद]] के निकट 'डमडम की लड़ाई' में हराया। | ||
इन विजयों से मलका नूरजहाँ का उसके प्रति विरोध भाव और बढ़ गया और उसे [[क़ाबुल]] की सूबेदारी से हटाकर [[बंगाल]] भेजा गया। इससे महावत ख़ाँ इतना भड़क उठा कि उसने 1626 ई. में [[दिल्ली]] का तख़्त उलट देने की कोशिश की। जहाँगीर जिस समय क़ाबुल जा रहा था, वह उसे अपनी हिरासत में लेने में सफल हो गया। परन्तु नूरजहाँ महावत ख़ाँ से अधिक चालाक थी। उसने शीघ्र ही महावत ख़ाँ की हिरासत से जहाँगीर को छुड़ा लिया और इस वजह से दरबार में महावत ख़ाँ का प्रभाव समाप्त हो गया। | इन विजयों से मलका नूरजहाँ का उसके प्रति विरोध भाव और बढ़ गया और उसे [[क़ाबुल]] की सूबेदारी से हटाकर [[बंगाल]] भेजा गया। इससे महावत ख़ाँ इतना भड़क उठा कि उसने 1626 ई. में [[दिल्ली]] का तख़्त उलट देने की कोशिश की। जहाँगीर जिस समय क़ाबुल जा रहा था, वह उसे अपनी हिरासत में लेने में सफल हो गया। परन्तु नूरजहाँ महावत ख़ाँ से अधिक चालाक थी। उसने शीघ्र ही महावत ख़ाँ की हिरासत से जहाँगीर को छुड़ा लिया और इस वजह से दरबार में महावत ख़ाँ का प्रभाव समाप्त हो गया। |
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महावत ख़ाँ मुग़ल साम्राज्य की एक उपाधि थी। यह उपाधि विविध समयों में विविध व्यक्तियों को प्रदान की गई थी। इस उपाधि को प्राप्त करने वाले जिस व्यक्ति ने सबसे अधिक ख्याति और प्रतिष्ठा पाई, वह 'जमानबेग' नामक योग्य सैनिक था। बादशाह जहाँगीर ने तख़्तनशीन होने के बाद ही 1605 ई. में उसे यह उपाधि प्रदान की थी।
योग्य सिपहसलार
प्रारम्भ में जमानबेग बहुत ही स्वामिभक्त और योग्य सिपहसलार सिद्ध हुआ। जहाँगीर द्वारा सौंपे गये प्रत्येक कार्य को वह बड़ी ही सहजता और निपुणता से अंजाम देता था। अपनी योग्यता के कारण वह जहाँगीर का विश्वासपात्र बन चुका था। उसे राणा अमर सिंह से युद्ध करने के लिए मेवाड़ भेजा गया। जमानबेग ने कई घमासान लड़ाइयों में राणा को हराया। मेवाड़ से लौटने पर उसे दक्खिन भेजा गया। उसे वहाँ के बाग़ी सूबेदार ख़ानख़ाना को अपने साथ राजधानी लाने का काम सौंपा गया। यह कार्य उसने बड़े ही युक्ति कौशल के साथ सम्पन्न किया।
नूरजहाँ का द्वेष
जैसे-जैसे बादशाह जहाँगीर पर नूरजहाँ का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे महावत ख़ाँ पर भी जहाँगीर की कृपादृष्टि कम होती गई। मलका नूरजहाँ के पिता और भाई, दोनों महावत ख़ाँ के विरोधी थे। अगले बारह साल तक बादशाह ने महावत ख़ाँ को कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा। इससे वह हताश होने लगा। फिर भी शाहज़ादा 'ख़ुर्रम' (शाहजहाँ) ने जब जहाँगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत की, तो महावत ख़ाँ उसे दबाने के लिए शाही फ़ौज लेकर गया। उसने बाग़ी शाहज़ादे को पहले दक्खिन में बिलोचपुर के युद्ध में और फिर इलाहाबाद के निकट 'डमडम की लड़ाई' में हराया।
इन विजयों से मलका नूरजहाँ का उसके प्रति विरोध भाव और बढ़ गया और उसे क़ाबुल की सूबेदारी से हटाकर बंगाल भेजा गया। इससे महावत ख़ाँ इतना भड़क उठा कि उसने 1626 ई. में दिल्ली का तख़्त उलट देने की कोशिश की। जहाँगीर जिस समय क़ाबुल जा रहा था, वह उसे अपनी हिरासत में लेने में सफल हो गया। परन्तु नूरजहाँ महावत ख़ाँ से अधिक चालाक थी। उसने शीघ्र ही महावत ख़ाँ की हिरासत से जहाँगीर को छुड़ा लिया और इस वजह से दरबार में महावत ख़ाँ का प्रभाव समाप्त हो गया।
शाहजहाँ का समर्थनकर्ता
महावत ख़ाँ हताश होकर शाहज़ादा ख़ुर्रम से मिल गया, जिसने 1626 ई. में बग़ावत कर दी थी। परन्तु उसके साथ जहाँगीर का कोई युद्ध नहीं हुआ। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु हो गई। शाहजहाँ के तख़्त पर बैठने पर महावत ख़ाँ को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया और उसे 'ख़ानख़ाना' की पदवी दी गई। महावत ख़ाँ ने दिल्ली की गद्दी के लिए होने वाले उत्तराधिकार के युद्ध में शाहजहाँ का समर्थन किया। बुन्देलखण्ड में एक बग़ावत को कुचला, दौलताबाद पर घेरा डाला और उस पर दख़ल कर लिया। इस प्रकार से उसने अहमदनगर को पूरी तौर से मुग़ल साम्राज्य के अधीन बना दिया।
मृत्यु
अहमदनगर की विजय महावत ख़ाँ की अन्तिम सफलता थी। वह मुग़लों का बहुत ही योग्य सिपहसलार था। उसने बीजापुर को भी जीतने की कोशिश की, परन्तु विफल रहा। इसके लिए शाहजहाँ ने उसका अपमान किया। इस अपमान से वह बहुत ही दु:खी हुआ और 1634 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
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