वीरसिंह बुन्देला

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वीरसिंह बुन्देला मुग़ल शहज़ादा सलीम (बाद में जहाँगीर) का कृपापात्र और बुन्देलों का सरदार था। सलीम के उकसाने पर ही वीरसिंह बुन्देला ने बादशाह अकबर के विश्वसनीय मित्र और परामर्शदाता तथा विद्वान अबुल फ़ज़ल की 1602 ई. में हत्या कर दी थी। वीरसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जुझार सिंह जागीर का उत्तराधिकारी बना था। [[चित्र:Jahangir-Mahal-Orchha.jpg|thumb|250px|जहाँगीर महल, ओरछा]]

अबुल फ़ज़ल की हत्या

उम्र के 47वें वर्ष में जब अकबर शहज़ादा सलीम से कुछ घटनाओं के कारण ख़फ़ा हो गया, तब उसने अबुल फ़ज़ल को एक युद्ध से अपना कुल सामान वहीं पर छोड़कर बिना सेना लिए फुर्ती से लौट आने के लिए लिखा, क्योंकि उसके नौकर शहज़ादा का पक्ष ले रहे थे और सत्यता तथा विश्वास में कोई भी अबुल फ़ज़ल के बराबर नहीं था। अबुल फ़ज़ल अपने पुत्र अब्दुर्रहमान के अधीन अपनी सेना तथा सहायक अफ़सरों को दक्षिण में छोड़कर फुर्ती से रवाना हो गया। जहाँगीर ने इसकी अपने स्वामी के प्रति भक्ति तथा श्रद्धा के कारण इस पर शंका की तथा इसके आने को अपने कार्य में बाधक समझा और इसके इस प्रकार अकेले आने में अपना लाभ माना। अगुणग्राहकता से अबुल फ़ज़ल को अपने मार्ग से हटा देने को उसने अपने साम्राज्य की प्रथम सीढ़ी मान लिया और वीरसिंह बुन्देला को बहुत-सा वादा कर, जिसके राज्य में से होकर अबुल फ़ज़ल आना वाला था, उसे मार डालने को तैयार कर लिया।

अबुल फ़ज़ल के कई सहायकों ने उसे राय दी कि उसे मालवा के घाटी चाँदा के मार्ग से जाना चाहिए। अबुल फ़ज़ल ने कहा कि "डाकुओं की क्या मजाल है कि मेरा रास्ता रोकें।" 4 रबीउल् अव्वल सन् 1011 हिजरी (12 अगस्त, 1602 ई.) को शुक्रवार के दिन बड़ा की सराय से आधा कोस पर, जो नरवर से 6 कोस पर स्थित है, वीरसिंह ने भारी घुड़सवार तथा पैदल सेना के साथ अबुल फ़ज़ल पर धावा बोल दिया। अबुल फ़ज़ल के शुभचिन्तकों ने अबुल फ़ज़ल को युद्ध स्थल से हटा ले जाने का प्रयत्न किया और इसके एक पुराने सेवक गदाई अफ़ग़ान ने कहा भी कि आंतरी बस्ती के पास ही रायरायान तथा राजा सूरजसिंह तीन हज़ार घुड़सवारों सहित मौजूद हैं, जिन्हें लेकर उसे शत्रु का दमन करना चाहिए, पर अबुल फ़ज़ल ने भागने की अप्रतिष्ठा नहीं उठानी चाही और जीवन के सिक्के को वीरता से खेल डाला।

जहाँगीर महल

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

जहाँगीर महल को वीरसिंहदेव ने जहाँगीर के लिए बनवाया था, यद्यपि जहाँगीर इस महल में वीरसिंहदेव के जीवन काल में कभी नहीं ठहर सका। जहांगीर तथा वीरसिंह देव की प्रगाढ़ मैत्री इतिहास प्रसिद्ध है। महल का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था किन्तु बाद में पश्चिम की ओर से एक प्रवेश द्वार बनवाया गया है। आजकल पूर्व वाला प्रवेश द्वार बंद रहता है तथा पश्चिम वाला प्रवेश द्वार पर्यटकों के आवागमन के लिए खोल दिया गया है। पर्यटकों के विशेष आग्रह पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारीगण पूर्व वाला प्रवेश द्वार भी कभी खोल देते हैं जहां से मनोहारी दृश्यों का अवलोकन कर मन प्रकृति में डूब सा जाता है। यहां से नदी, पहाड़ एवं ओरछा के सघन वनों के ऐसे रम्य दृश्य दिखाई देते हैं कि पर्यटकों की सारी थकान स्वत: ही दूर हो जाती है।

केशव देव मन्दिर का निर्माण

जब शहज़ादा सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल साम्राज्य का स्वामी बना तो उसने वीरसिंह बुन्देला को पुरस्कार स्वरूप तीन हज़ार घुड़सवारों का मनसबदार बनाया। वीरसिंह बुन्देला ने मथुरा में 33 लाख रुपये की लागत से कृष्ण जन्म स्थान के खण्डहरों में केशवदेव का एक भव्य मन्दिर निर्मित कराया। यह मन्दिर इतना ऊँचा था कि उसका शिखर आगरा के क़िले से देखा जा सकता था। बाद के समय में इस मन्दिर से औरंगज़ेब का विद्वेष जाग्रत हो उठा था। औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद उसके आदेश से 1670 ई. में केशवदेव मन्दिर को धूल में मिला दिया गया और उसके स्थान पर मस्जिद बना दी गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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