ब्रज एक अद्भुत संस्कृति -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
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पौराणिक ग्रंथों में [[मथुरा]] के अनेक उल्लेख हैं। [[वराह पुराण]]<ref>वराह पुराण 152 | 8 एवं 11 </ref> में आया है- [[विष्णु]] कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। [[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण 4 | 69 | 12 </ref> में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'। [[हरिवंश पुराण]]<ref>हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3</ref> में मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है: 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<ref>तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण 4 | 69 | 12 | पौराणिक ग्रंथों में [[मथुरा]] के अनेक उल्लेख हैं। [[वराह पुराण]]<ref>वराह पुराण 152 | 8 एवं 11 </ref> में आया है- [[विष्णु]] कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। [[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण 4 | 69 | 12 </ref> में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'। [[हरिवंश पुराण]]<ref>हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3</ref> में मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है: 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<ref>तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। [[पद्म पुराण]] 4 | 69 | 12 | ||
मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। | मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। | ||
श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3 </ref> | श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ [[हरिवंश पुराण]], विष्णुपर्व, 57 | 2-3 </ref> | ||
ब्रज की मान्यताएँ और कहावतें ख़ासी दिलचस्प हैं “मथुरा की बेटी गोकुल की गाय। करम फूटै तौ अनत जाय”। इससे सीधा अर्थ यही निकलता है कि ब्रज-क्षेत्र की बेटियों का विवाह ब्रज में ही होने की परम्परा थी और गोकुल की गायों को भी [[गोकुल]] से बाहर भेजने की परम्परा नहीं थी। चूँकि पुत्री को 'दुहिता' कहा गया है अर्थात गाय दुहने और गऊ सेवा करने वाली। इसलिए बेटी गऊ की सेवा से वंचित हो जाती है और गायों की सेवा ब्रज जैसी होना बाहर कठिन है। वृद्ध होने पर गायों को कटवा भी दिया जाता था, जो ब्रज में संभव नहीं था। ब्रज के संत अक्सर कहा करते थे कि ‘ब्रजहिं छोड़ बैकुंठउ न जइहों’। (ब्रज को छोड़ कर स्वर्ग के आनंद भोगने का मन भी नहीं होता।) ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारन’। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो ब्रज को अद्भुत बनाते हैं। ब्रज के संतों ने और ब्रजवासियों ने तो कभी मोक्ष की कामना भी नहीं की क्योंकि ब्रज में इह लीला के समाप्त होने पर ब्रजवासी, ब्रज में ही वृक्ष का रूप धारण करता है अर्थात ब्रजवासी मृत्यु के पश्चात स्वर्गवासी न होकर ब्रजवासी ही रहता है और यह क्रम अनन्त काल से चल रहा है। ऐसी अनोखी मान्यता है ब्रज की।[[चित्र:Kambojika.jpg|कम्बोजिका|200px|right]] | ब्रज की मान्यताएँ और कहावतें ख़ासी दिलचस्प हैं “मथुरा की बेटी गोकुल की गाय। करम फूटै तौ अनत जाय”। इससे सीधा अर्थ यही निकलता है कि ब्रज-क्षेत्र की बेटियों का विवाह ब्रज में ही होने की परम्परा थी और गोकुल की गायों को भी [[गोकुल]] से बाहर भेजने की परम्परा नहीं थी। चूँकि पुत्री को 'दुहिता' कहा गया है अर्थात गाय दुहने और गऊ सेवा करने वाली। इसलिए बेटी गऊ की सेवा से वंचित हो जाती है और गायों की सेवा ब्रज जैसी होना बाहर कठिन है। वृद्ध होने पर गायों को कटवा भी दिया जाता था, जो ब्रज में संभव नहीं था। ब्रज के संत अक्सर कहा करते थे कि ‘ब्रजहिं छोड़ बैकुंठउ न जइहों’। (ब्रज को छोड़ कर स्वर्ग के आनंद भोगने का मन भी नहीं होता।) ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारन’। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो ब्रज को अद्भुत बनाते हैं। ब्रज के संतों ने और ब्रजवासियों ने तो कभी मोक्ष की कामना भी नहीं की क्योंकि ब्रज में इह लीला के समाप्त होने पर ब्रजवासी, ब्रज में ही वृक्ष का रूप धारण करता है अर्थात ब्रजवासी मृत्यु के पश्चात स्वर्गवासी न होकर ब्रजवासी ही रहता है और यह क्रम अनन्त काल से चल रहा है। ऐसी अनोखी मान्यता है ब्रज की।[[चित्र:Kambojika.jpg|कम्बोजिका|200px|right]] | ||
[[शूरसेन महाजनपद|शूरसेन देश]] (महाजनपद) की मुख्य नगरी ‘मथुरा’ के विषय में कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। [[अंगुत्तरनिकाय]]<ref>अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [</ref> एवं मज्झिम<ref>मज्झिम 2 | 84 </ref> में आया है कि [[बुद्ध]] के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। [[मैगस्थनीज़]] सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<ref>मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ </ref> शब्द [[जैमिनि]] के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<ref>पाणिनि, 4 | 2 | 82 </ref> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन<ref>पाणिनि 4 | 3 | 98 </ref>, यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<ref>3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्' </ref> ज्ञात थे। ब्रज क्षेत्र जो कभी शूरसेन जनपद था उसके नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। [[शत्रुघ्न]] के पुत्र शूरसेन के नाम पर नामकरण संभव नहीं लगता क्योंकि वाल्मीकि रामायण में सीताहरण के बाद [[सुग्रीव]] ने वानरों को [[सीता]] की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, [[कम्बोज]], [[यवन]], शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके [[दरद देश]] में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो।<ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। | [[शूरसेन महाजनपद|शूरसेन देश]] (महाजनपद) की मुख्य नगरी ‘मथुरा’ के विषय में कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। [[अंगुत्तरनिकाय]]<ref>अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [</ref> एवं मज्झिम<ref>मज्झिम 2 | 84 </ref> में आया है कि [[बुद्ध]] के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। [[मैगस्थनीज़]] सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<ref>मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ </ref> शब्द [[जैमिनि]] के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<ref>पाणिनि, 4 | 2 | 82 </ref> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन<ref>पाणिनि 4 | 3 | 98 </ref>, यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<ref>3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्' </ref> ज्ञात थे। ब्रज क्षेत्र जो कभी शूरसेन जनपद था उसके नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। [[शत्रुघ्न]] के पुत्र शूरसेन के नाम पर नामकरण संभव नहीं लगता क्योंकि वाल्मीकि रामायण में सीताहरण के बाद [[सुग्रीव]] ने वानरों को [[सीता]] की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, [[कम्बोज]], [[यवन]], शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके [[दरद देश]] में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो।<ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। | ||
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। | तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। | ||
प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ | प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ | ||
काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। </ref> इससे स्पष्ट है कि [[शत्रुघ्न]] के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। [[हैहयवंश|हैहयवंशी]] [[कार्तवीर्य अर्जुन]] के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संभावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है। महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। [[लवणासुर]] (मधु के पुत्र) के वधोपरांत [[शत्रुघ्न]] ने इस नगरी को पुन: बसाया था। | काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। </ref> इससे स्पष्ट है कि [[शत्रुघ्न]] के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। [[हैहयवंश|हैहयवंशी]] [[कार्तवीर्य अर्जुन]] के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संभावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है। महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। [[लवणासुर]] (मधु के पुत्र) के वधोपरांत [[शत्रुघ्न]] ने इस नगरी को पुन: बसाया था। | ||
ब्रज की कला के अनेक आयाम हैं। जिनमें मूर्तिकला तो निश्चय ही बेजोड़ है। बौद्ध भिक्षु यशदिन्न जैसे मूर्तिकारों की बेमिसाल कृतियाँ [[राष्ट्रपति भवन]], फ़्रांस के संग्रहालय मुसी ग्युमित और राजकीय संग्रहालय मथुरा में सुरक्षित हैं। अद्भुत बात यह है कि यशदिन्न ने केवल तीन मूर्तियाँ ही बनाईं और तीनों एक ही जैसी। इन आदमक़द आकार से भी बड़ी मूर्तियों में बुद्ध को पारदर्शी [[चीवर]] पहने दिखाया गया है। माथुरी मूर्तिकला, जो गांधार मूर्तिकला का भी रूप है, ब्रज क्षेत्र में अपने पूरे उत्कर्ष पर रहने के बावजूद भी न जाने कब और कहाँ गुम हो गयी? वे मूर्तिकार कहाँ चले गये और कोई भी ऐसा निशान नहीं छोड़ गये कि जिससे उनके लुप्त होने का कारण पता चलता ? | ब्रज की कला के अनेक आयाम हैं। जिनमें मूर्तिकला तो निश्चय ही बेजोड़ है। बौद्ध भिक्षु यशदिन्न जैसे मूर्तिकारों की बेमिसाल कृतियाँ [[राष्ट्रपति भवन]], फ़्रांस के संग्रहालय मुसी ग्युमित और राजकीय संग्रहालय मथुरा में सुरक्षित हैं। अद्भुत बात यह है कि यशदिन्न ने केवल तीन मूर्तियाँ ही बनाईं और तीनों एक ही जैसी। इन आदमक़द आकार से भी बड़ी मूर्तियों में बुद्ध को पारदर्शी [[चीवर]] पहने दिखाया गया है। माथुरी मूर्तिकला, जो गांधार मूर्तिकला का भी रूप है, ब्रज क्षेत्र में अपने पूरे उत्कर्ष पर रहने के बावजूद भी न जाने कब और कहाँ गुम हो गयी? वे मूर्तिकार कहाँ चले गये और कोई भी ऐसा निशान नहीं छोड़ गये कि जिससे उनके लुप्त होने का कारण पता चलता ? | ||
मथुरा में पुरा-उत्खनन का कार्य मुख्य रूप से एक [[कनिंघम|अलेक्ज़ेंडर कनिंघम]] ने 1871 और 1882-83 में कराया। अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने [[भारत]] के पुरातत्त्व विभाग के निदेशक के रूप में 1870 से 1885 ई. तक काम किया। इस उत्खनन ने अनेक रहस्य खोल दिए जिनके बारे में 1874 के दौर में मथुरा के कलॅक्टर एफ़ एस ग्राउज़ ने ‘मथुरा अ डिस्ट्रिक्ट मॅमोइर’ में बहुत ख़ूबसूरत ढंग से उल्लेख किया है। | मथुरा में पुरा-उत्खनन का कार्य मुख्य रूप से एक [[कनिंघम|अलेक्ज़ेंडर कनिंघम]] ने 1871 और 1882-83 में कराया। अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने [[भारत]] के पुरातत्त्व विभाग के निदेशक के रूप में 1870 से 1885 ई. तक काम किया। इस उत्खनन ने अनेक रहस्य खोल दिए जिनके बारे में 1874 के दौर में मथुरा के कलॅक्टर एफ़ एस ग्राउज़ ने ‘मथुरा अ डिस्ट्रिक्ट मॅमोइर’ में बहुत ख़ूबसूरत ढंग से उल्लेख किया है।<ref>यह पुस्तक, लेखक की वेबसाइट, www.brajdiscovery.org पर उपलब्ध है।</ref> [[चित्र:Govindev-temple-1.jpg|गोविन्ददेव जी, वृन्दावन|border|right|300px]] | ||
मथुरा में मिली राज्वुल की राज महिषी ‘[[कम्बोजिका]]’ की ख़ूबसूरत मूर्ति माथुरी, गांधार और यवन कला के मेल का अद्भुत नमूना है। कम्बोजिका की शान में ही राज्वुल ([[राजबुल]] या बाद में राजुल भी) ने ऐतिहासिक सिंह शीर्ष (Lion Capitol) लगवाया था जो अब लंदन के संग्रहालय में सुरक्षित है। | मथुरा में मिली राज्वुल की राज महिषी ‘[[कम्बोजिका]]’ की ख़ूबसूरत मूर्ति माथुरी, गांधार और यवन कला के मेल का अद्भुत नमूना है। कम्बोजिका की शान में ही राज्वुल ([[राजबुल]] या बाद में राजुल भी) ने ऐतिहासिक सिंह शीर्ष (Lion Capitol) लगवाया था जो अब लंदन के संग्रहालय में सुरक्षित है। | ||
ब्रज में वास्तुकला के भी विलक्षण प्रयोग हुए हैं। जिनमें [[उत्तर भारत|उत्तर-भारत]] में वास्तुशैली का उत्कृष्टतम सृजन [[वृंदावन]] का [[गोविन्ददेव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्ददेव जी मंदिर]] है। इस मंदिर के निर्माण में उत्तर और दक्षिण भारत की हिन्दू मंदिर निर्माण शैली, जयपुर-राजस्थानी शैली, मुग़ल शैली, यूनानी शैली और गोथिक<ref>गोथिक शैली से अभिप्राय तिकोने मेहराबों वाली यूरोपीय शैली से है जिससे इमारत के विशाल होने का आभास होता है </ref> शैली का प्रयोग हुआ है। बादशाह [[अकबर]] ने भी इस मंदिर के निर्माण के लिए लाल पत्थर भिजवाया था। कहते हैं कि यह सात मंज़िल का था किन्तु अब चार ही बची हैं। [[गोवर्धन]] में हरदेव मंदिर, वृन्दावन में [[जुगल किशोर मंदिर वृन्दावन|जुगल किशोर]], राधा बल्लभ, [[गोपीनाथ जी मन्दिर वृन्दावन|गोपीनाथ]] और [[मदन मोहन मंदिर वृन्दावन|मदनमोहन मंदिर]] की गणना प्राचीन मंदिरों में होती है किन्तु अब इन मंदिरों में धार्मिक पर्यटक नहीं आते केवल इतिहास और पुरातत्व में रुचि रखने वाले पर्यटक ही आते हैं। [[चैतन्य महाप्रभु]] के शिष्यों-[[जीव गोस्वामी]], [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]] ने वृंदावन में इन मंदिरों का निर्माण कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये सभी मंदिर [[औरंगज़ेब]] के शासन में उजाड़े और तोड़े गये, साथ ही वृंदावन का नाम ‘मोमिना बाद’ और मथुरा का नाम ‘इस्लामाबाद’ कर दिया गया। | ब्रज में वास्तुकला के भी विलक्षण प्रयोग हुए हैं। जिनमें [[उत्तर भारत|उत्तर-भारत]] में वास्तुशैली का उत्कृष्टतम सृजन [[वृंदावन]] का [[गोविन्ददेव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्ददेव जी मंदिर]] है। इस मंदिर के निर्माण में उत्तर और दक्षिण भारत की हिन्दू मंदिर निर्माण शैली, जयपुर-राजस्थानी शैली, मुग़ल शैली, यूनानी शैली और गोथिक<ref>गोथिक शैली से अभिप्राय तिकोने मेहराबों वाली यूरोपीय शैली से है जिससे इमारत के विशाल होने का आभास होता है </ref> शैली का प्रयोग हुआ है। बादशाह [[अकबर]] ने भी इस मंदिर के निर्माण के लिए लाल पत्थर भिजवाया था। कहते हैं कि यह सात मंज़िल का था किन्तु अब चार ही बची हैं। [[गोवर्धन]] में हरदेव मंदिर, वृन्दावन में [[जुगल किशोर मंदिर वृन्दावन|जुगल किशोर]], राधा बल्लभ, [[गोपीनाथ जी मन्दिर वृन्दावन|गोपीनाथ]] और [[मदन मोहन मंदिर वृन्दावन|मदनमोहन मंदिर]] की गणना प्राचीन मंदिरों में होती है किन्तु अब इन मंदिरों में धार्मिक पर्यटक नहीं आते केवल इतिहास और पुरातत्व में रुचि रखने वाले पर्यटक ही आते हैं। [[चैतन्य महाप्रभु]] के शिष्यों-[[जीव गोस्वामी]], [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]] ने वृंदावन में इन मंदिरों का निर्माण कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये सभी मंदिर [[औरंगज़ेब]] के शासन में उजाड़े और तोड़े गये, साथ ही वृंदावन का नाम ‘मोमिना बाद’ और मथुरा का नाम ‘इस्लामाबाद’ कर दिया गया। |
Revision as of 07:55, 23 September 2014
50px|right|link=|
20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश ‘ब्रज’ एक अद्भुत संस्कृति -आदित्य चौधरी ब्रज का ज़िक्र आते ही जो सबसे पहली आवाज़ हमारी स्मृति में आती है, वह है घाटों से टकराती हुई यमुना की लहरों की आवाज़… कृष्ण के साथ-साथ खेलकर यमुना ने बुद्ध और महावीर के प्रवचनों को साक्षात उन्हीं के मुख से अपनी लहरों को थाम कर सुना… फ़ाह्यान की चीनी भाषा में कहे गये मो-तो-लो (मोरों का नृत्य स्थल ‘मथुरा’) को भी समझ लिया और प्लिनी के ‘जोमनेस’ उच्चारण को भी… यमुना की ये लहरें रसख़ान और रहीम के दोहों पर झूमी हैं… सूर और मीरा के पदों पर नाची हैं… लेकिन महमूद ग़ज़नवी के नरसंहार से रक्ताभ हुई ये यमुना की सहमी हुई लहरों को मियां तानसेन की तोड़ी से कितनी राहत मिली थी यह तो यमुना ही जाने… बादशाह अकबर के बनवाये हुए घाटों को अभी अच्छी तरह पखार भी न पायी थी यमुना… कि अहमद शाह अब्दाली ने इन लहरों को ब्रजवासियों के रक्त से सने उसके सिपाहियों के हाथों को धोने पर मजबूर किया… यह सब तो चलता ही रहा साथ ही साथ यमुना ने ही जन्म दिया ब्रज-संस्कृति को…
पौराणिक ग्रंथों में मथुरा के अनेक उल्लेख हैं। वराह पुराण[2] में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण[3] में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'। हरिवंश पुराण[4] में मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है: 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत आदिपर्व 221 | 46
- ↑ वराह पुराण 152 | 8 एवं 11
- ↑ पद्म पुराण 4 | 69 | 12
- ↑ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3
- ↑ तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण 4 | 69 | 12
मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्।
श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3 - ↑ अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [
- ↑ मज्झिम 2 | 84
- ↑ मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ
- ↑ पाणिनि, 4 | 2 | 82
- ↑ पाणिनि 4 | 3 | 98
- ↑ 3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्'
- ↑ बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः।
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च।
प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥
काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। - ↑ यह पुस्तक, लेखक की वेबसाइट, www.brajdiscovery.org पर उपलब्ध है।
- ↑ गोथिक शैली से अभिप्राय तिकोने मेहराबों वाली यूरोपीय शैली से है जिससे इमारत के विशाल होने का आभास होता है
- ↑ ट्रॅवल्स इन इंडिया लेखक: ज़्यां-बॅपतिस्ते तॅवरनियर अध्याय 12 पृष्ठ 272
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