अतिशा: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "==संबंधित लेख==" to "==संबंधित लेख== {{दार्शनिक}}") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "Category:बौद्ध धर्म कोश" to "Category:बौद्ध धर्म कोशCategory:धर्म कोश") |
||
Line 21: | Line 21: | ||
{{बौद्ध धर्म}} | {{बौद्ध धर्म}} | ||
[[Category:बौद्ध धर्म]] | [[Category:बौद्ध धर्म]] | ||
[[Category:बौद्ध धर्म कोश]] | [[Category:बौद्ध धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]] | ||
[[Category:दार्शनिक]] | [[Category:दार्शनिक]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
Revision as of 13:44, 21 March 2014
अतीश दीपांकर श्रीज्ञान (अतिशा) (जन्म-981 भारत, मृत्यु-1054) बौद्ध धर्म की ब्रजयान शाखा (तांत्रिक महायान) के वे महान दार्शनिक थे। जिसका विकास विक्रमशिला विश्वविद्यालय में ही हुआ था। उसके बाद ब्रजयान दर्शन को उन्होंने तिब्बत में भी फैलाया। तिब्बत में प्रचलित लामा प्रणाली मूल रूप से इसी ब्रजयान दर्शन का विकसित रूप है। जिसे अतीश अपने साथ तिब्बत ले गए। उन्हें तिब्बत में मंजुश्री का अवतार माना जाता है तथा बुद्ध और पद्मसम्भव के बाद सबसे अधिक सम्मानित माना जाता है।
जीवन परिचय
अतिशा का जन्म 981 ई. में भारत के एक सम्पन्न जमींदार परिवार में साहोर अथवा जाहोर नामक स्थान पर हुआ, जिसे कुछ लोग बंगाल में बताते हैं। अतिशा के पिता का नाम श्रीकल्याण और माता का नाम पद्मप्रभा था। माता-पिता ने अतिशा का नाम चन्द्रगर्भ रखा था। प्रारम्भिक जीवन में अतिशा साधारण गृहस्था और तारादेवी का उपासक था। युवा होने पर उसने बौद्ध सिद्धान्तों का अध्ययन किया और शीघ्र ही बौद्ध धर्म का प्रचुर ज्ञान अर्जित कर लिया। उड्यन्तपुर-बिहार के आचार्य शीलभद्र ने जहाँ अतिशा अध्ययन कर रहा था, अतिशा को 'दीपंकर श्रीमान' उपाधि से विभूषित किया। बाद में तिब्बती लोगों ने उसे अतिशा नाम से पुकारना आरम्भ कर दिया। शीघ्र ही लोग उसके असली नाम चन्द्रगर्भ को भूल गये और वह अतिशा दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से अमर हो गया।
कार्यक्षेत्र
अतिशा 31 वर्ष की आयु में ही भिक्षु हो गया और अगले 12 वर्ष उसने भारत और भारत के बाहर अध्ययन और योगाभ्यास में बिताये। वह पेगु (बरमा) और श्रीलंका गया। विदेशों में अध्ययन करने के बाद जब वह लौटा, तो पाल वंश के राजा न्यायपाल ने उसे विक्रमशिला बिहार का कुलपति बना दिया। उसकी विद्वत्ता और धर्मशीलता की ख्याति देश-देशान्तर में फैली और तिब्बत के राजा ने तिब्बत आकर वहाँ फिर से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अतिशा को निमंत्रित किया। उस समय अतिशा की अवस्था 60 वर्ष की थी। लेकिन तिब्बत के राजा का अनवरत आग्रह वह अस्वीकार नहीं कर सका। दो तिब्बती भिक्षुओं के साथ अतिशा ने विक्रमशिला से तिब्बत की कठिन यात्रा नेपाल होकर पूरी की। तिब्बत में उसका राजकीय स्वागत किया गया। अतिशा ने 12 वर्ष तक तिब्बत में रहकर धर्म का प्रचार किया। उसने स्वयं तिब्बती भाषा सीखी और तिब्बती व संस्कृत में एक सौ से अधिक ग्रन्थ लिखे। उसकी शिक्षाओं से तिब्बत में बौद्ध धर्म में प्रविष्ट अनेक बुराईयाँ दूर हो गईं। उसके प्रभाव से तिब्बत में अनेक बौद्ध भिक्षु हुए, जिन्होंने उसके बाद भी बहुत वर्षों तक धर्म का प्रचार किया। अतिशा ने तिब्बत के अनेक भागों की यात्राएँ कीं।
मृत्यु
अतिशा ने 1054 ई. में 73 वर्ष की उम्र में अपने शरीर का त्याग किया। तिब्बती लोगों ने उसकी समाधि ने - थांग मठ में राजकीय सम्मान के साथ बनायी। तिब्बती लोग अब भी अतिशा का स्मरण बड़े सम्मान के साथ करते हैं और उसकी मूर्ति की पूजा बोधिसत्त्व की मूर्ति की भाँति करते हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 7।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख