वैश्य: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
Line 28: Line 28:
|अद्यतन=
|अद्यतन=
}}
}}
'''वैश्य''' का [[हिंदू|हिंदुओं]] की [[वर्ण व्यवस्था]] में तीसरा स्थान है। इस वर्ण के लोग मुख्यत: वाणिज्यिक व्यवसाय और [[कृषि]] करते थे। हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज के किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।
'''वैश्य''' का [[हिंदू|हिंदुओं]] की [[वर्ण व्यवस्था]] में तीसरा स्थान है। इस वर्ण के लोग मुख्यत: वाणिज्यिक व्यवसाय और [[कृषि]] करते थे। हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज के किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।
==उत्पत्ति==
==उत्पत्ति==
Line 41: Line 40:


जिन लोगों में यह गुण थे या जिन्होंने ऐसी क्षमता प्राप्त कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में प्रवेश कर गये। वैश्य [[कृषि]], पशुपालन, उत्पादक वितरण तथा कृषि सम्बन्धी औज़ारों के रखरखाव तथा क्रय-विक्रय का धन्धा करने लगे। उनका जीवन शूद्रों से अधिक सुखमय हो गया तथा उन्होंने शूद्रों को अनाज, वस्त्र, रहवास आदि की सुविधायें देकर अपनी सहायता के लिये निजि अधिकार में रखना शुरू कर दिया। इस प्रकार सभ्यता के विकास के साथ जब अनाज, वस्त्र, रहवास आदि के बदले शुल्क देने की प्रथा विकसित होने लगी तो उसी के साथ ही ‘सेवक’ व्यव्साय का जन्म भी हुआ। निस्संदेह समाज में वैश्यों का जीवन स्तर तथा सम्मान शूद्रों से उत्तम था। आज सभी देशों में वैश्य ‘स्किल्ड ’ या प्रशिक्षशित वर्ग बन गया है।<ref>{{cite web |url= https://hindumahasagar.wordpress.com/tag/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF/|title= हिन्दू समाज का गठन|accessmonthday= 27 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=हिन्दू महासागर|language= हिन्दी}}</ref>
जिन लोगों में यह गुण थे या जिन्होंने ऐसी क्षमता प्राप्त कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में प्रवेश कर गये। वैश्य [[कृषि]], पशुपालन, उत्पादक वितरण तथा कृषि सम्बन्धी औज़ारों के रखरखाव तथा क्रय-विक्रय का धन्धा करने लगे। उनका जीवन शूद्रों से अधिक सुखमय हो गया तथा उन्होंने शूद्रों को अनाज, वस्त्र, रहवास आदि की सुविधायें देकर अपनी सहायता के लिये निजि अधिकार में रखना शुरू कर दिया। इस प्रकार सभ्यता के विकास के साथ जब अनाज, वस्त्र, रहवास आदि के बदले शुल्क देने की प्रथा विकसित होने लगी तो उसी के साथ ही ‘सेवक’ व्यव्साय का जन्म भी हुआ। निस्संदेह समाज में वैश्यों का जीवन स्तर तथा सम्मान शूद्रों से उत्तम था। आज सभी देशों में वैश्य ‘स्किल्ड ’ या प्रशिक्षशित वर्ग बन गया है।<ref>{{cite web |url= https://hindumahasagar.wordpress.com/tag/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF/|title= हिन्दू समाज का गठन|accessmonthday= 27 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=हिन्दू महासागर|language= हिन्दी}}</ref>
====पाणिनि का उल्लेख====
[[पाणिनि]] ने वैश्य के लिए 'अर्य' पद का उल्लेख किया है।<ref>अर्य: स्वामि वैश्ययो:, 3।1।103</ref> गृहस्थ के लिए 'गृहपति' शब्द है। [[मौर्य काल|मौर्य]]-[[शुंग काल|शुंग युग]] में 'गृहपति' समृद्ध वैश्य व्यापारियों के लिये प्रयुक्त होने लगा था, जो बौद्ध प्रभाव को स्वीकार कर रहे थे। उन्हीं से 'गहोई' वैश्य प्रसिद्ध हुए। यह अर्थ '[[अष्टाध्यायी]]' में अविदित है।<ref>महाभारत वनपर्व, 297।60</ref> मालवपुत्र ही वर्तमान 'मलोत्रे'  हो सकते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत |लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन= |पृष्ठ संख्या=92|url=}}</ref>
====सिन्धु सभ्यता से सम्बन्ध====
====सिन्धु सभ्यता से सम्बन्ध====
[[सिन्धु घाटी की सभ्यता]] का निर्माण तथा प्रसार दूर-दूर के देशों तक वैश्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में जो विशालकाय बन्दरगाह थे, वे उत्तरी अमरीका तथा दक्षिणी अमरीका, [[यूरोप]] के अलग-अलग भाग तथा [[एशिया]] ([[जम्बू द्वीप]]) आदि से जहाज़ द्वारा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।<ref>{{cite web |url= http://www.jaimaafalaudi.com/vaishy.htm|title= हम मेड़तवाल और हमारा वैश्य वंश|accessmonthday= 27 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= जय माँ फलादी.कॉम|language= हिन्दी}}</ref>
[[सिन्धु घाटी की सभ्यता]] का निर्माण तथा प्रसार दूर-दूर के देशों तक वैश्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में जो विशालकाय बन्दरगाह थे, वे उत्तरी अमरीका तथा दक्षिणी अमरीका, [[यूरोप]] के अलग-अलग भाग तथा [[एशिया]] ([[जम्बू द्वीप]]) आदि से जहाज़ द्वारा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।<ref>{{cite web |url= http://www.jaimaafalaudi.com/vaishy.htm|title= हम मेड़तवाल और हमारा वैश्य वंश|accessmonthday= 27 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= जय माँ फलादी.कॉम|language= हिन्दी}}</ref>
==व्यवसाय==
==व्यवसाय==
[[वैदिक काल]] में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब [[वर्ण व्यवस्था]] हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और [[गाय|गायों]] का पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति [[कृषि]] और वाणिज्य था। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य, व्यवसाय करके ही जीविका निर्वाह करते हैं। वैश्य समाज में व्यापार से रोज़गार के अवसर प्रदान करता है। सामाजिक कार्य में दान से समाज की आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिससे उसे समाज में शुरू से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
[[वैदिक काल]] में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब [[वर्ण व्यवस्था]] हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और [[गाय|गायों]] का पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति [[कृषि]] और वाणिज्य था। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य, व्यवसाय करके ही जीविका निर्वाह करते हैं। वैश्य समाज में व्यापार से रोज़गार के अवसर प्रदान करता है। सामाजिक कार्य में दान से समाज की आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिससे उसे समाज में शुरू से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है।




{{seealso|हिन्दू धर्म|वर्ण व्यवस्था|जाति|जाट|कायस्थ|ब्राह्मण|क्षत्रिय|शूद्र}}
{{seealso|हिन्दू धर्म|वर्ण व्यवस्था|जाति|जाट|कायस्थ|ब्राह्मण|क्षत्रिय|शूद्र}}


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
Line 60: Line 59:
[[Category:जातियाँ और जन जातियाँ]][[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:जातियाँ और जन जातियाँ]][[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Latest revision as of 13:12, 18 March 2018

वैश्य
विवरण 'वैश्य' भारत में हिन्दुओं की जाति व्यवस्था में चार वर्णों में से एक है। किसान, पशुपालक और व्यापारी समुदाय इस वर्ण में शामिल हैं।
देश भारत
शब्द उत्पत्ति 'वैश्य' शब्द वैदिक 'विश्' से निकला है।
अर्थ संस्कृत से निकले इस शब्द का मूल अर्थ है- "बसना"।
कर्म 'यजन', 'अध्ययन' और 'पशुपालन' तथा वृति कृषि व वाणिज्य।
विशेष सिन्धु घाटी की सभ्यता का निर्माण तथा उसका प्रसार दूर-दूर के देशों तक वैश्यों द्वारा उनके व्यापारिक कार्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ।
संबंधित लेख वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, हिन्दू धर्म
अन्य जानकारी वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब वर्ण व्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और गायों का पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे।

वैश्य का हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में तीसरा स्थान है। इस वर्ण के लोग मुख्यत: वाणिज्यिक व्यवसाय और कृषि करते थे। हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज के किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।

उत्पत्ति

'वैश्य' शब्द वैदिक 'विश्' से निकला है। अर्थ की दृष्टि से 'वैश्य' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है, जिसका मूल अर्थ "बसना" होता है। मनु के 'मनुस्मृति' के अनुसार वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर यानि पेट से हुई है। जबकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा जी से पैदा होने वाले ब्राह्मण, विष्णु से पैदा होने वाले वैश्य, शंकर से पैदा होने वाले क्षत्रिय कहलाए; इसलिये आज भी ब्राह्मण अपनी माता सरस्वती, वैश्य लक्ष्मी, क्षत्रिय माँ दुर्गे की पूजा करते है।

इतिहास

वैश्य वर्ण[1] का इतिहास जानने के पहले यह जानना होगा की वैश्य शब्द कहां से आया? वैश्य शब्द विश् से आया है। विश् का अर्थ है- 'प्रजा'। प्राचीन काल में प्रजा (समाज) को विश् नाम से पुकारा जाता था। इसके प्रधान संरक्षक को 'विशपति' (राजा) कहते थे, जो निर्वाचन से चुना जता था।

मनु महाराज के चार मुख्य सामाजिक वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे, जिनमें सभ्यता के विकास के साथ-साथ नये व्यवसाय भी कालान्तर जुड़ते चले गए थे। शूद्रों के आखेटी समुदायों में अनसिखियों को बोझा ढोने का काम दिया जाता था। कालान्तर में उन्हीं में से जब कुछ लोगों ने कृषि क्षेत्र में छोटा-मोटा मज़दूरी करने का काम सीखा, तो वह आखेट के बदले कृषि का काम करने लग गये। अधिकतर ऐसे लोगों में जिज्ञासा की कमी, अज्ञानता तथा उत्तरदायित्व सम्भालने के प्रति उदासीनता की मानसिकता रही। वह अपनी तत्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा कुछ और सोचने में असमर्थ और उदासीन रहे। उनके भीतर वार्तालाप करने की सीमित क्षमता थी, जिस कारण वह समुदाय की वस्तुओं का दूसरे समुदायों के साथ आदान-प्रदान नहीं कर सकते थे।

धीरे-धीरे आखेटी समुदाय कृषि अपनाने लगे। समुदाय के लोग कृषि तथा कृषि से जुड़े अन्य व्यव्साय भी सीखने लगे। समुदाय के लोगों ने भोजन तथा वस्त्र आदि की निजि ज़रूरतों की आपूर्ति भी कृषि क्षेत्र के उत्पादकों से करनी शुरु कर दी थी। उन्होंने कृषि प्रधान जानवर पालने शुरू किये और उनको अपनी सम्पदा में शामिल कर लिया। श्रम के बदले जानवरों तथा कृषि उत्पादकों का आदान-प्रदान होने लगा। मानव समुदाय बंजारा जीवन छोड़कर कृषि और जल स्त्रोत्रों के समीप रहने लगे। इस प्रकार का जीवन अधिक सुखप्रद था। जैसे-जैसे क्षमता बढ़ी, उसी के अनुसार नये कृषक व्यवसायी समुदाय के पास शूद्रों से अधिक साधन आते गये और वह एक ही स्थान पर टिककर सुखमय जीवन बिताने लगे। अब उनका मुख्य लक्ष्य संसाधन जुटाना तथा उनकोthumb|left|250px|वैश्य व्यापारी प्रयोग में लाकर अधिक सुख-सम्पदा एकत्रित करना था। इस व्यवसाय को करने के लिये व्यापारिक सूझबूझ, व्यवहार-कुशलता, परिवर्तनशीलता, वाक्पटुता, जोखिम उठाने तथा सहने की क्षमता, धैर्य, परिश्रम तथा चतुरता की आवश्यकता थी।

जिन लोगों में यह गुण थे या जिन्होंने ऐसी क्षमता प्राप्त कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में प्रवेश कर गये। वैश्य कृषि, पशुपालन, उत्पादक वितरण तथा कृषि सम्बन्धी औज़ारों के रखरखाव तथा क्रय-विक्रय का धन्धा करने लगे। उनका जीवन शूद्रों से अधिक सुखमय हो गया तथा उन्होंने शूद्रों को अनाज, वस्त्र, रहवास आदि की सुविधायें देकर अपनी सहायता के लिये निजि अधिकार में रखना शुरू कर दिया। इस प्रकार सभ्यता के विकास के साथ जब अनाज, वस्त्र, रहवास आदि के बदले शुल्क देने की प्रथा विकसित होने लगी तो उसी के साथ ही ‘सेवक’ व्यव्साय का जन्म भी हुआ। निस्संदेह समाज में वैश्यों का जीवन स्तर तथा सम्मान शूद्रों से उत्तम था। आज सभी देशों में वैश्य ‘स्किल्ड ’ या प्रशिक्षशित वर्ग बन गया है।[2]

पाणिनि का उल्लेख

पाणिनि ने वैश्य के लिए 'अर्य' पद का उल्लेख किया है।[3] गृहस्थ के लिए 'गृहपति' शब्द है। मौर्य-शुंग युग में 'गृहपति' समृद्ध वैश्य व्यापारियों के लिये प्रयुक्त होने लगा था, जो बौद्ध प्रभाव को स्वीकार कर रहे थे। उन्हीं से 'गहोई' वैश्य प्रसिद्ध हुए। यह अर्थ 'अष्टाध्यायी' में अविदित है।[4] मालवपुत्र ही वर्तमान 'मलोत्रे' हो सकते हैं।[5]

सिन्धु सभ्यता से सम्बन्ध

सिन्धु घाटी की सभ्यता का निर्माण तथा प्रसार दूर-दूर के देशों तक वैश्यों ने किया या उनकी वजह से हुआ है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में जो विशालकाय बन्दरगाह थे, वे उत्तरी अमरीका तथा दक्षिणी अमरीका, यूरोप के अलग-अलग भाग तथा एशिया (जम्बू द्वीप) आदि से जहाज़ द्वारा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।[6]

व्यवसाय

वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब वर्ण व्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और गायों का पालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति कृषि और वाणिज्य था। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य, व्यवसाय करके ही जीविका निर्वाह करते हैं। वैश्य समाज में व्यापार से रोज़गार के अवसर प्रदान करता है। सामाजिक कार्य में दान से समाज की आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिससे उसे समाज में शुरू से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है।


  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 442।

  1. 'वर्ण' शब्द का अर्थ है- "जिसको वरण किया जाए वो समुदाय।"
  2. हिन्दू समाज का गठन (हिन्दी) हिन्दू महासागर। अभिगमन तिथि: 27 मार्च, 2015।
  3. अर्य: स्वामि वैश्ययो:, 3।1।103
  4. महाभारत वनपर्व, 297।60
  5. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 92 |
  6. हम मेड़तवाल और हमारा वैश्य वंश (हिन्दी) जय माँ फलादी.कॉम। अभिगमन तिथि: 27 मार्च, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख