सूफ़ीवाद

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thumb|250px|सूफ़ीवाद सूफ़ीवाद (अंग्रेज़ी: Sufism) इस्लाम का एक रहस्यवादी पंथ है। इसके पंथियों को सूफ़ी (सूफ़ी संत) कहते हैं। इनका लक्ष्य अपने पंथ की प्रगति एवं सूफीवाद की सेवा रहा है। सूफ़ी राजाओं से दान-उपहार स्वीकार नहीं करते थे और सादगी भरा जीवन बिताना पसन्द करते थे। इनके कई तरीक़े या घराने हैं जिनमें सोहरावर्दी (सुहरवर्दी), नक्शवंदिया, क़ादरिया, चिश्तिया, कलंदरिया और शुत्तारिया आदि हैं।

इब्न-ए-ख़ुलदान द्वारा परिभाषित

'सूफ़ीवाद' इस्लाम का एक पहलू है। सूफ़ीपंथी शिया और सुन्नी दोनों फ़िरक़ों या इस्लाम मज़हब के मानने वाले दूसरे समुदायों में भी मिल सकते हैं। 14वीं शताब्दी में एक अरब इतिहासकार इब्न-ए-ख़लदुन ने सूफ़ीवाद को कुछ इस तरह से परिभाषित किया है- "दौलत, शोहरत, तमाम तरह की दुनियावी लज्ज़तों से खुद को दूर करके अपने रब से लौ लगाना और उसकी इबादत करना ही सूफ़ीवाद है।" इब्न-ए-ख़ुलदान की सूफ़ीवाद की ये परिभाषा आज के दौर में भी एकदम सटीक बैठती है।

सूफ़ियों का ज़ोर अक्सर इस बात पर रहता है कि इस्लामी तालीम सिर्फ़ किताबें पढ़ कर हासिल नहीं करनी चाहिए। बल्कि उसे अपने उस्तादों से सीखना चाहिए। ताकि इस्लाम मज़हब की सही जानकारी और इबादत का सही तरीक़ा पता चल सके। हालांकि इस तरह के पंथों की शुरुआत हज़रत मोहम्मद के ज़माने में ही हो गई थी।[1]

इस्लामी विचार

thumb|250px|सूफ़ीवाद हदीसों और क़ुरान की आयतों की रोशनी में गुरु अपने शागिर्दों को हज़रत मोहम्मद के किरदार की खूबियां बताते थे। अपने गुरुओं की मदद से वो भी हज़रत मोहम्मद की शख़्सियत की खूबियों से रूबरू होते थे और उन्हें अपनाते थे। हालांकि सूफ़ियों की तादाद बहुत ज़्यादा नहीं है। लेकिन इस्लामी विचार और इतिहास को एक अलग रूप देने में उनका बड़ा योगदान रहा है। मिसाल के लिए रूमी, उमर ख़य्याम और अलग़ज़ाली जैसे बड़े शायरों ने अपने सूफ़ियाना कलाम के ज़रिए इस्लामी विचारों को पश्चिमी देशों तक फैलाया। पश्चिम के दार्शनिकों, लेखकों और धर्मशास्त्रियों पर इनके विचारों का इतना गहरा असर पड़ा कि उन्होंने अपनी क़िताबों में इन शायरों के विचारों का ज़िक्र किया। दरअसल, सूफ़ीपंथ के मानने वालों ने इस्लाम मज़हब को इस्लाम की सरज़मीं यानी मध्य पूर्व से लेकर भारत, अफ़्रीक़ा और सुदूर पूर्व तक फैलाया।

सूफ़ी शब्द

सूफ़ी शब्द कहां से आया, इसे लेकर तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं। कोई कहता है कि इस लफ़्ज का ताल्लुक़ 'पवित्रता' से है। कोई कहता है ये शब्द 'ग्रीक' भाषा के शब्द 'सोफ़िया' से लिया गया है, जिसका मतलब है 'अक़लमंदी' या 'समझदारी'। वहीं कुछ का ये भी मानना है कि जितने भी सूफ़ी थे वो 'ऊनी' कपड़े पहनते थे। हो सकता है ऊन के उसे रेशे से इस शब्द का संबंध हो। बहरहाल, सूफी लफ़्ज़ कहीं से भी आया हो, लेकिन सूफ़ी उस शख़्स को कहा जाता था जिसका ताल्लुक़ तमाम दुनियावी हसरतों और ख्वाहिशों से दूर सिर्फ़ अल्लाह से होता था। वो सभी अपनी ज़िंदगी का मक़सद क़ुरानी आयातों में बताए गए अर्थों में समझते थे। जैसे क़ुरान में एक आयत में कहा गया है- "मैंने (अल्लाह) जिनों और इंसान को इसलिए बनाया है, ताकि वो सिर्फ़ मेरी इबादत कर सकें।" अल्लाह की इबादत के इसी मक़सद को हासिल करने के लिए हज़रत मोहम्मद के गुज़र जाने के कुछ सदियों बाद तरीक़ों की शुरुआत हुई।[1]

पैगंबर मोहम्मद

इनका अल्लाह से रूबरू होने या उसकी इबादत करने का अपना तरीक़ा था। तरीक़ों या सूफ़ियों के समूह। हर तरीक़े के एक उस्ताद होते थे, जो बाक़ी सदस्यों को अल्लाह की बातें बताते थे। कैसे ख़ुद को ख़ुदा की इबादत में डुबोया जाता है, इसकी तालीम लोगों को देता था। इसी तरीक़े या पंथ को 'सूफ़ीवाद' कहा जाने लगा। सूफ़ीपंथ का इतिहास काफ़ी लंबा और पुराना है। लेकिन हाल के वक़्त में मुस्लिम समाज के कुछ ग्रुप इस पंथ की ज़रूरत पर सवालिया निशान लगाने लगे हैं। उनके मुताबिक़ सूफ़ियों की इबादत का तरीक़ा खुद पैगम्बर मोहम्मद के लिए अनोखा था। उनके मुताबिक़ पैगम्बर साहब ने कभी भी इस तरह के तरीक़े को नहीं माना था।

हालांकि सूफ़ीपंथी भी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद के ज़माने में सूफ़ीपंथ जैसी कोई चीज़ नहीं थी। लेकिन अपने हक़ में वो दलील देते हैं कि हज़रत मोहम्मद, उनके साथी और उनके वारिस, यहां तक कि शुरुआत की तीन पीढ़ियों के लोग भी इबादत के ऐसे ही तरीक़े में रचे बसे थे। लेकिन उन्हें कोई ख़ास नाम नहीं दिया गया था। सूफ़ीपंथ के लोग उस्ताद की ज़रूरत को भी क़ुरान की रोशनी में समझाते हैं। क़ुरान की एक आयत में कहा गया है- "उन लोगों से पूछो जो तुम से बेहतर जानते हैं। और उसी रास्ते को अपनाओ जो मुझ तक पहुंचता है।"

मज़हब और नियम

सूफ़ियों को भी पक्का मुसलमान ही माना जा सकता है। वो दिन में पांच बार नमाज़ अदा करते हैं। रोज़े रखते हैं। यानी इस्लाम के बाक़ी मानने वालों की तरह मज़हब के नियम का पूरी पाबंदी से पालन करते हैं। साथ ही वो आध्यात्म पर भी ज़ोर देते हैं। हालांकि वो पैगम्बर मोहम्मद के नाम 'ज़िक्र अल्लाह' को भी जानते हैं। और इसका अनुकरण भी करते हैं। खुदा की शान में वो क़ुरान की आयतों और पैगम्बर मोहम्मद की बातों का भी ज़िक्र करते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 सूफ़ी भी होते हैं पक्के मुसलमान (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 23 अप्रॅल, 2021।

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