किरगिज़ जनजाति: Difference between revisions
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इन लोगों का जीवन घूमने-फिरने में ही व्यतीत होता है। इनका बड़ी कठिनाइयों का जीवन होता है। पुरुष पशुओं को चराते हैं। कुछ चरवाहे घोड़ों पर चढ़कर पशुओं की देख-रेख एवं जंगली पशुओं का शिकार करते हैं। स्त्रियों [[दूध]] दुहने का कार्य एवं अन्य गृह-कार्य करती हैं, जबकि पुरुष कठिन परिश्रम का कार्य करते हैं। अपने रहने के लिए किरगिज़ तम्बू खड़ा करते हैं जो भेड़ों के ऊन से बने कपड़े से ऊपरी भाग को बना होता है। 4-5 मीटर व्यास के लकड़ी के घेरे बनते हैं जिन पर लकड़ियों मिला देते हैं। ऊपरी भाग में भी एक गोलाकार छिद्र होता है। इस आकृति को ऊनी कपड़े से ढंक देते हैं। ऊपरी भाग का छिद्र धुआँ निकलने के लिए होता है। सम्पूर्ण तम्बू एक स्थान से दूसरे स्थान को ऊंट की पीठ पर लादकर ले जाते हैं। | इन लोगों का जीवन घूमने-फिरने में ही व्यतीत होता है। इनका बड़ी कठिनाइयों का जीवन होता है। पुरुष पशुओं को चराते हैं। कुछ चरवाहे घोड़ों पर चढ़कर पशुओं की देख-रेख एवं जंगली पशुओं का शिकार करते हैं। स्त्रियों [[दूध]] दुहने का कार्य एवं अन्य गृह-कार्य करती हैं, जबकि पुरुष कठिन परिश्रम का कार्य करते हैं। अपने रहने के लिए किरगिज़ तम्बू खड़ा करते हैं जो भेड़ों के ऊन से बने कपड़े से ऊपरी भाग को बना होता है। 4-5 मीटर व्यास के लकड़ी के घेरे बनते हैं जिन पर लकड़ियों मिला देते हैं। ऊपरी भाग में भी एक गोलाकार छिद्र होता है। इस आकृति को ऊनी कपड़े से ढंक देते हैं। ऊपरी भाग का छिद्र धुआँ निकलने के लिए होता है। सम्पूर्ण तम्बू एक स्थान से दूसरे स्थान को ऊंट की पीठ पर लादकर ले जाते हैं। | ||
चूंकि ये लोग हमेशा चरागाहों की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को आते रहते हैं, अतः इनके घरेलू सामान साधारण एवं कम होते हैं। कम्बल से मेज, कुर्सी एवं बिसतर का कार्य लेते हैं। [[दूध]], [[दही]] एवं [[मक्खन]] आदि भेड़ों के सुखाये चमड़े में रखते हैं। लकड़ी के बने बर्तनों में ये लोग भोजन करते हैं। इनके भोजन का प्रमुख अंग दूध एवं माँस है। ये लोगे प्रायः दूध को खट्टा करके खाते हैं। कभी-कभी इससे दही एवं मक्खन भी बनाते हैं। माँस का उपयोग प्रतिदिन नहीं करते हैं। पास-पड़ोस से पशुओं के बदले प्राप्त आटे से रोटियाँ भी बनाते हैं जो कि विलासिता की वस्तु समझी जाती है। | चूंकि ये लोग हमेशा चरागाहों की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को आते रहते हैं, अतः इनके घरेलू सामान साधारण एवं कम होते हैं। कम्बल से मेज, कुर्सी एवं बिसतर का कार्य लेते हैं। [[दूध]], [[दही]] एवं [[माखन|मक्खन]] आदि भेड़ों के सुखाये चमड़े में रखते हैं। लकड़ी के बने बर्तनों में ये लोग भोजन करते हैं। इनके भोजन का प्रमुख अंग दूध एवं माँस है। ये लोगे प्रायः दूध को खट्टा करके खाते हैं। कभी-कभी इससे दही एवं मक्खन भी बनाते हैं। माँस का उपयोग प्रतिदिन नहीं करते हैं। पास-पड़ोस से पशुओं के बदले प्राप्त आटे से रोटियाँ भी बनाते हैं जो कि विलासिता की वस्तु समझी जाती है। | ||
किरगिज़ लोग भेड़ों के चमड़े एवं ऊन का उपयोग वस्त्र के लिए भी करते हैं पुरुष एवं स्त्रियाँ दोनों ही प्रत्येक ऋतु में गर्म कपड़े एवं ऊँचे जूते पहनते हैं। इनके अतिरिक्त पुरुष भेड़ों के चमड़े से बनी टोपियाँ भी पहनते हैं। ये चमड़े से बना कोट सभी समान रूप से पहनते हैं। वैसे वर्तमान समय में इनका प्राचीन ढंग बहुत कुछ बदल गया है क्योंकि पहले की भाँति इनके क्षेत्र दुर्गम नहीं रह गये हैं। सरकारी प्रेरणा के फलस्वरूप इन घुमक्कड़ चरवाहों के क्षेत्र में यन्त्र द्वारा [[कृषि]] की जाने लगी है। जहाँ कुछ वर्ष पूर्व भेड़ों एवं पशुओं के झुंड चरते थे, अब सहकारी अथवा सामूहिक फापर्म विकसित हो गये हैं। कुछ रेलवे केन्द्रों पर थोड़ा-बहुत औद्योगिक विकास भी प्रारम्भ हो गया है। इन लोगों की अशिक्षा दूर हो रही है। फिर भी यद्यपि किरगिज़ लोगों में पशुओं की चराई का व्यवसाय कम होता जा रहा है, तथापि यह पूर्ण रूप से समाप्त, नहीं हुआ है न तो निकट भविष्य में ही इसके समाप्त होने की आशा है जिसका प्रमुख कारण यहाँ का वर्तमान भौगोलिक वातावरण है। | किरगिज़ लोग भेड़ों के चमड़े एवं ऊन का उपयोग वस्त्र के लिए भी करते हैं पुरुष एवं स्त्रियाँ दोनों ही प्रत्येक ऋतु में गर्म कपड़े एवं ऊँचे जूते पहनते हैं। इनके अतिरिक्त पुरुष भेड़ों के चमड़े से बनी टोपियाँ भी पहनते हैं। ये चमड़े से बना कोट सभी समान रूप से पहनते हैं। वैसे वर्तमान समय में इनका प्राचीन ढंग बहुत कुछ बदल गया है क्योंकि पहले की भाँति इनके क्षेत्र दुर्गम नहीं रह गये हैं। सरकारी प्रेरणा के फलस्वरूप इन घुमक्कड़ चरवाहों के क्षेत्र में यन्त्र द्वारा [[कृषि]] की जाने लगी है। जहाँ कुछ वर्ष पूर्व भेड़ों एवं पशुओं के झुंड चरते थे, अब सहकारी अथवा सामूहिक फापर्म विकसित हो गये हैं। कुछ रेलवे केन्द्रों पर थोड़ा-बहुत औद्योगिक विकास भी प्रारम्भ हो गया है। इन लोगों की अशिक्षा दूर हो रही है। फिर भी यद्यपि किरगिज़ लोगों में पशुओं की चराई का व्यवसाय कम होता जा रहा है, तथापि यह पूर्ण रूप से समाप्त, नहीं हुआ है न तो निकट भविष्य में ही इसके समाप्त होने की आशा है जिसका प्रमुख कारण यहाँ का वर्तमान भौगोलिक वातावरण है। |
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thumb|250px|किरगिज़ युवतियाँ किरगिज़ जनजाति (अंग्रेज़ी: Kyrgyz Tribe) का निवास एशिया महाद्वीप के मध्य में है जो कि महासागरीय प्रभाव से वंचित है। इनके निवास-क्षेत्र के दक्षिण में सिक्यांग एवं तिब्बत पूर्व एवं पश्चिम में शुष्क प्रदेश स्थित है। केवल उत्तर की ओर से यह प्रदेश अपेक्षाकृत सुगमतापूर्वक पहुँचने योग्य है। यह क्षेत्र धरातलीय बनावट के दृष्टिगोचर से विभिन्न प्रकार का है। उत्तर की ओर का मैदानी भाग दक्षिण की ओर छोटी-छोटी पहाड़ियों में परिवर्तित होता जाता है। जैसे-जैसे पठारी भाग की दक्षिणी सीमा के पास पहुंचते जाते हैं इनकी ऊँचाई भी बढ़ती जाती है। इन पठारों का धरातल 3000-4000 मीटर तक ऊँचा है। इनके बीच त्यानशान श्रेणी है जिसकी बर्फीली चीटी से बहुत-सी हिमसरिताएँ निकलती हैं।
जलपूर्ति का महत्त्व
किरगिज़ लोगों के लिए जल-पूर्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है। अतः अनिश्चित प्रवाह वाली नदियाँ एवं पर्वत पदीय भागों में मिलने वाले जलस्त्रोत इनके जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग है। धरातलीय बाधाओं के कारण महासागरीय नम हवाओं से वे प्रदेश वंचित होते हैं। अतः वर्षा बहुत थोड़ी होती है। यह थोड़ी वर्षा भी केवल ग्रीष्म ऋतु में ही होती है। ऊँचे पर्वतीय भागों में भीषण तीव्रगति से हिमपात शीत ऋतु में होता है। वर्षा की मात्रा भी कुछ ऊँचे भागों में अधिक होती है। शीतकाल की ठंडी हवाएँ बड़ी तीव्रगति से बहती है। निचले भाग ग्रीष्मकाल में अत्यधिक गर्म होते हैं।
आर्थिक क्रियाएँ एवं स्थानान्तरण
किरगिज़ लोगों का जीवन घास के मैदानों पर निर्भर है, इसलिए भेड़ों के झुण्ड, घोड़े, याक एवं ऊँट इनके जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग है। चूँकि घास के मैदान सीमित हैं, अतः ये पशुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान को लेकर घूमते रहते हैं। किसी एक ऋतु में यह स्थान परिवर्तन बहुत सीमित क्षेत्र में होता है। ग्रीष्मकाल में मैदानों की घास समाप्त हो जाती है तथा पठारी भाग पर बर्फ पिघल चुकी रहती है जिससे अच्छी घास उग जाती है, अतः ये लोग ग्रीष्मकाल में अपने पशुओं के झुण्डों को लेकर पठारों पर चले आते हैं। ज्यों-ज्यों शीतकाल करीब आने लगता है ये लोग पुनः घाटियों में उतर जाते हैं और अन्त में मैदानों में चले जाते हैं। इस प्रकार इन लोगों द्वारा जो ‘मौसमी स्थान परिवर्तन किया जाता है। इस प्रकार के विस्तृत पैमाने पर होने वाले स्थान-परिवर्तन के लिए समुचित संगठन की आवश्यकता होती है थ्योंकि इनके जीवन के आधार हजारों पशुओं का भविष्य अनिश्चितता की स्थिति में नहीं छोड़ा जा सकता है। रुकने की जगह पर पानी की सुविधा आदि।
जीवन के ढंग
इन लोगों का जीवन घूमने-फिरने में ही व्यतीत होता है। इनका बड़ी कठिनाइयों का जीवन होता है। पुरुष पशुओं को चराते हैं। कुछ चरवाहे घोड़ों पर चढ़कर पशुओं की देख-रेख एवं जंगली पशुओं का शिकार करते हैं। स्त्रियों दूध दुहने का कार्य एवं अन्य गृह-कार्य करती हैं, जबकि पुरुष कठिन परिश्रम का कार्य करते हैं। अपने रहने के लिए किरगिज़ तम्बू खड़ा करते हैं जो भेड़ों के ऊन से बने कपड़े से ऊपरी भाग को बना होता है। 4-5 मीटर व्यास के लकड़ी के घेरे बनते हैं जिन पर लकड़ियों मिला देते हैं। ऊपरी भाग में भी एक गोलाकार छिद्र होता है। इस आकृति को ऊनी कपड़े से ढंक देते हैं। ऊपरी भाग का छिद्र धुआँ निकलने के लिए होता है। सम्पूर्ण तम्बू एक स्थान से दूसरे स्थान को ऊंट की पीठ पर लादकर ले जाते हैं।
चूंकि ये लोग हमेशा चरागाहों की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को आते रहते हैं, अतः इनके घरेलू सामान साधारण एवं कम होते हैं। कम्बल से मेज, कुर्सी एवं बिसतर का कार्य लेते हैं। दूध, दही एवं मक्खन आदि भेड़ों के सुखाये चमड़े में रखते हैं। लकड़ी के बने बर्तनों में ये लोग भोजन करते हैं। इनके भोजन का प्रमुख अंग दूध एवं माँस है। ये लोगे प्रायः दूध को खट्टा करके खाते हैं। कभी-कभी इससे दही एवं मक्खन भी बनाते हैं। माँस का उपयोग प्रतिदिन नहीं करते हैं। पास-पड़ोस से पशुओं के बदले प्राप्त आटे से रोटियाँ भी बनाते हैं जो कि विलासिता की वस्तु समझी जाती है।
किरगिज़ लोग भेड़ों के चमड़े एवं ऊन का उपयोग वस्त्र के लिए भी करते हैं पुरुष एवं स्त्रियाँ दोनों ही प्रत्येक ऋतु में गर्म कपड़े एवं ऊँचे जूते पहनते हैं। इनके अतिरिक्त पुरुष भेड़ों के चमड़े से बनी टोपियाँ भी पहनते हैं। ये चमड़े से बना कोट सभी समान रूप से पहनते हैं। वैसे वर्तमान समय में इनका प्राचीन ढंग बहुत कुछ बदल गया है क्योंकि पहले की भाँति इनके क्षेत्र दुर्गम नहीं रह गये हैं। सरकारी प्रेरणा के फलस्वरूप इन घुमक्कड़ चरवाहों के क्षेत्र में यन्त्र द्वारा कृषि की जाने लगी है। जहाँ कुछ वर्ष पूर्व भेड़ों एवं पशुओं के झुंड चरते थे, अब सहकारी अथवा सामूहिक फापर्म विकसित हो गये हैं। कुछ रेलवे केन्द्रों पर थोड़ा-बहुत औद्योगिक विकास भी प्रारम्भ हो गया है। इन लोगों की अशिक्षा दूर हो रही है। फिर भी यद्यपि किरगिज़ लोगों में पशुओं की चराई का व्यवसाय कम होता जा रहा है, तथापि यह पूर्ण रूप से समाप्त, नहीं हुआ है न तो निकट भविष्य में ही इसके समाप्त होने की आशा है जिसका प्रमुख कारण यहाँ का वर्तमान भौगोलिक वातावरण है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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