असुर जाति: Difference between revisions

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असुर जाति के लोग मुख्यतः [[लोहा]] गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से [[मुण्डा]] एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी। इस जाति के लोग कृषि जीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में [[कृषि]] प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते। मुण्डा लोग जब यहाँ आए, तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। यह भी उल्लेखनीय है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में [[जैन|जैनियों]] का प्रभाव था। ख़ासकर, [[हज़ारीबाग़]] और मानभूम आदि इलाके में। [[पारसनाथ पहाड़ी|पारसनाथ]] में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं।
असुर जाति के लोग मुख्यतः [[लोहा]] गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से [[मुण्डा]] एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी। इस जाति के लोग कृषि जीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में [[कृषि]] प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते। मुण्डा लोग जब यहाँ आए, तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। यह भी उल्लेखनीय है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में [[जैन|जैनियों]] का प्रभाव था। ख़ासकर, [[हज़ारीबाग़]] और मानभूम आदि इलाके में। [[पारसनाथ पहाड़ी|पारसनाथ]] में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं।
==दशहरे पर शोक मनाना==
==दशहरे पर शोक मनाना==
झारखण्ड के गुमला ज़िले के सुदूरवर्ती पठारी क्षेत्र में जंगलों व पहाड़ की [[तराई|तराईयों]] में रहने वाले असुर जाति के लोग [[दशहरा|दशहरे]] के अवसर पर शोक मनाते हैं। [[नवरात्र]] और [[विजयादशमी]] के अवसर पर जब पूरा देश हर्ष व उल्लास में डूबा रहता है, तब [[झारखण्ड]] के जंगल व पहाड़ों से अटूट रिश्ता बनाकर बसने वाले असुर जाति के लोग अपने आराध्य देव [[महिषासुर]] के वध से दुखी होकर शोक मनाते हैं। इस दिन वे न तो एक दूसरे के घर मेहमाननवाजी करते हैं और न ही नये वस्त्र पहनते हैं। वे इस दिन महिषासुर के शोक में विशेष पकवान भी नहीं बनाते हैं। अपने आराध्य देव की [[दुर्गा]] के द्वारा वध किये जाने पर वे अपने को बेसहारा महसूस करते हैं। इस जाति के कुछ युवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर शहरों की ओर रूख कर रहें हैं, वे बाहरी लोंगों के संपर्क में आकर अपनी परम्परा को भूलने लगे हैं, लेकिन गाँवों में रहने वाले असुर आज भी अपनी पूर्वजों की परंपरा को संजो कर रखना अपना [[धर्म]] मानते हैं।<ref>{{cite web |url=http://viewpointjharkhand.com/?p=11943|title=असुर जनजाति समुदाय|accessmonthday=12 जनवरी|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
झारखण्ड के गुमला ज़िले के सुदूरवर्ती पठारी क्षेत्र में जंगलों व पहाड़ की [[तराई|तराईयों]] में रहने वाले असुर जाति के लोग [[दशहरा|दशहरे]] के अवसर पर शोक मनाते हैं। [[नवरात्र]] और [[विजयादशमी]] के अवसर पर जब पूरा देश हर्ष व उल्लास में डूबा रहता है, तब [[झारखण्ड]] के जंगल व पहाड़ों से अटूट रिश्ता बनाकर बसने वाले असुर जाति के लोग अपने आराध्य देव [[महिषासुर]] के वध से दुखी होकर शोक मनाते हैं। इस दिन वे न तो एक दूसरे के घर मेहमाननवाजी करते हैं और न ही नये वस्त्र पहनते हैं। वे इस दिन महिषासुर के शोक में विशेष पकवान भी नहीं बनाते हैं। अपने आराध्य देव की [[दुर्गा]] के द्वारा वध किये जाने पर वे अपने को बेसहारा महसूस करते हैं। इस जाति के कुछ युवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर शहरों की ओर रूख कर रहें हैं, वे बाहरी लोंगों के संपर्क में आकर अपनी परम्परा को भूलने लगे हैं, लेकिन गाँवों में रहने वाले असुर आज भी अपनी पूर्वजों की परंपरा को संजो कर रखना अपना [[धर्म]] मानते हैं।<ref>{{cite web |url=http://viewpointjharkhand.com/?p=11943|title=असुर जनजाति समुदाय|accessmonthday=12 जनवरी|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
[[पश्चिम बंगाल]] में दुर्गापूजा को लोक उत्सव का दर्जा प्राप्त है, लेकिन राज्य के उत्तरी इलाके में जलपाईगुड़ी ज़िले में स्थित अलीपुरदुआर के पास माझेरडाबरी [[चाय]] बाग़ान में रहने वाली असुर जाति के लोग दुर्गापूजा के दौरान मातम मनाते हैं। इस दौरान वे न तो नए कपड़े पहनते हैं और न ही घरों से बाहर निकलते हैं। असुर जाति के ये लोग बाग़ान की असुर लाइन यानी इस जनजाति के मज़दूरों के लिए बनी कॉलोनी में रहते हैं। इस जाति के लोग खुद को [[महीषासुर]] के वंशज मानते हैं। उनमें इस बात का गुस्सा है कि देवी [[दुर्गा]] ने ही महिषासुर का वध किया था। यही कारण है कि पूरा राज्य जब खुशियाँ मनाने में डूबा होता है, तब ये लोग मातम मनाते रहते हैं। इस जाति के बच्चे [[मिट्टी]] से बने शेर के खिलौनों से खेलते हैं, लेकिन इन खिलौनों में से किसी भी शेर के कंधे पर सिर नहीं होता। बच्चे शेरों की गर्दन मरोड़ देते हैं, क्योंकि ये दुर्गा की सवारी है। असुर जाति के लोग उत्तर बंगाल के कुछ और चाय बाग़ानों में रहते हैं। 100 साल से भी पहले चाय बाग़ानों के ब्रिटिश मालिक इनको [[छोटा नागपुर]] इलाक़े से यहाँ ले आए थे।
==पूर्वजों की परम्परा==
पश्चिम बंगाल में असुर लाइन में रहने वाले 26 परिवारों में लगभग 150 सदस्य हैं। इन सबको अपने पूर्वजों से सुनी उस कहानी पर पूरा भरोसा है कि महिषासुर को मारने के लिए तमाम देवी-[[देवता|देवताओं]] ने अवैध तरीके से हाथ मिला लिए थे। इस जनजाति के लोग [[पूजा]] के दौरान अपने तमाम काम रात में निपटाते हैं। दिन में तो वे बाहर क़दम तक नहीं रखते। अपने पूर्वजों की इस परम्परा का असुर जाति के लोग आज भी सम्मान करते हैं। इस जाति के लोगों का मानना है कि "महिषासुर दोनों लोकों यानी स्वर्ग और [[पृथ्वी]] पर सबसे अधिक ताकतवर थे। देवताओं को लगता था कि अगर महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहा तो लोग देवताओं की पूजा करना छोड़ देंगे। इसलिए उन सबने मिल कर धोखे से उसे मार डाला।" [[महिषासुर]] के मारे जाने के बाद ही असुर जाति के पूर्वजों ने देवताओं की पूजा बंद कर दी। असुर वर्ष में एक दिन हड़िया यानी [[चावल]] से बनी कच्ची शराब और मुर्गे का मांस चढ़ा कर अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। असुर लाइन में अभी तक किसी ने भी स्कूल नहीं देखा है। इस जाति के बच्चों के लिए सच वही है, जो उन्होंने अपने [[पिता]] और दादा से सुना है। इन लोगों के खाने-पीने की आदतें भी आम लोगों से अलग हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/09/090927_festival_mourners_adas.shtml |title=दुर्गा नहीं महिषासुर की जय|accessmonthday=12 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>


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चित्र:Disamb2.jpg असुर एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- असुर (बहुविकल्पी)

असुर जाति झारखण्ड में और बंगाल में पाई जाती है। इस जाति के लोग स्वयं को महिषासुर का वंशज मानते हैं। इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत आता था और ये बाहुबलि जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान किया जाता है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हज़ार वर्ष तक मगध में एकछत्र शासन किया था। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का कथन है कि झारखण्ड में रहने वाले वर्तमान असुर महाभारत कालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुर कालीन ईंटों तथा राँची गजेटियर में वर्ष 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।

ऐतिहासिक तथ्य

600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ था। मुण्डाओं की लोकगाथा 'सोसोबोंगा' में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरतचंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री' में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संथाल परगना की ओर गई थी। इन लोगों को आज संथाल के नाम से जानते हैं, जबकि दूसरी शाखा राँची की पश्चिमी घाटियों में चली गही थी। राँची की ओर आने वाली शाखा मुण्डा कहलाई। बाद में ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े। बाद के इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुँचे। जहाँ उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् राँची की ओर आ गये। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है, जहाँ मुण्डाओं की बहुलता है।

व्यवसाय

असुर जाति के लोग मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी। इस जाति के लोग कृषि जीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते। मुण्डा लोग जब यहाँ आए, तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। यह भी उल्लेखनीय है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। ख़ासकर, हज़ारीबाग़ और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं।

दशहरे पर शोक मनाना

झारखण्ड के गुमला ज़िले के सुदूरवर्ती पठारी क्षेत्र में जंगलों व पहाड़ की तराईयों में रहने वाले असुर जाति के लोग दशहरे के अवसर पर शोक मनाते हैं। नवरात्र और विजयादशमी के अवसर पर जब पूरा देश हर्ष व उल्लास में डूबा रहता है, तब झारखण्ड के जंगल व पहाड़ों से अटूट रिश्ता बनाकर बसने वाले असुर जाति के लोग अपने आराध्य देव महिषासुर के वध से दुखी होकर शोक मनाते हैं। इस दिन वे न तो एक दूसरे के घर मेहमाननवाजी करते हैं और न ही नये वस्त्र पहनते हैं। वे इस दिन महिषासुर के शोक में विशेष पकवान भी नहीं बनाते हैं। अपने आराध्य देव की दुर्गा के द्वारा वध किये जाने पर वे अपने को बेसहारा महसूस करते हैं। इस जाति के कुछ युवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर शहरों की ओर रूख कर रहें हैं, वे बाहरी लोंगों के संपर्क में आकर अपनी परम्परा को भूलने लगे हैं, लेकिन गाँवों में रहने वाले असुर आज भी अपनी पूर्वजों की परंपरा को संजो कर रखना अपना धर्म मानते हैं।[1]

पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा को लोक उत्सव का दर्जा प्राप्त है, लेकिन राज्य के उत्तरी इलाके में जलपाईगुड़ी ज़िले में स्थित अलीपुरदुआर के पास माझेरडाबरी चाय बाग़ान में रहने वाली असुर जाति के लोग दुर्गापूजा के दौरान मातम मनाते हैं। इस दौरान वे न तो नए कपड़े पहनते हैं और न ही घरों से बाहर निकलते हैं। असुर जाति के ये लोग बाग़ान की असुर लाइन यानी इस जनजाति के मज़दूरों के लिए बनी कॉलोनी में रहते हैं। इस जाति के लोग खुद को महीषासुर के वंशज मानते हैं। उनमें इस बात का गुस्सा है कि देवी दुर्गा ने ही महिषासुर का वध किया था। यही कारण है कि पूरा राज्य जब खुशियाँ मनाने में डूबा होता है, तब ये लोग मातम मनाते रहते हैं। इस जाति के बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौनों से खेलते हैं, लेकिन इन खिलौनों में से किसी भी शेर के कंधे पर सिर नहीं होता। बच्चे शेरों की गर्दन मरोड़ देते हैं, क्योंकि ये दुर्गा की सवारी है। असुर जाति के लोग उत्तर बंगाल के कुछ और चाय बाग़ानों में रहते हैं। 100 साल से भी पहले चाय बाग़ानों के ब्रिटिश मालिक इनको छोटा नागपुर इलाक़े से यहाँ ले आए थे।

पूर्वजों की परम्परा

पश्चिम बंगाल में असुर लाइन में रहने वाले 26 परिवारों में लगभग 150 सदस्य हैं। इन सबको अपने पूर्वजों से सुनी उस कहानी पर पूरा भरोसा है कि महिषासुर को मारने के लिए तमाम देवी-देवताओं ने अवैध तरीके से हाथ मिला लिए थे। इस जनजाति के लोग पूजा के दौरान अपने तमाम काम रात में निपटाते हैं। दिन में तो वे बाहर क़दम तक नहीं रखते। अपने पूर्वजों की इस परम्परा का असुर जाति के लोग आज भी सम्मान करते हैं। इस जाति के लोगों का मानना है कि "महिषासुर दोनों लोकों यानी स्वर्ग और पृथ्वी पर सबसे अधिक ताकतवर थे। देवताओं को लगता था कि अगर महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहा तो लोग देवताओं की पूजा करना छोड़ देंगे। इसलिए उन सबने मिल कर धोखे से उसे मार डाला।" महिषासुर के मारे जाने के बाद ही असुर जाति के पूर्वजों ने देवताओं की पूजा बंद कर दी। असुर वर्ष में एक दिन हड़िया यानी चावल से बनी कच्ची शराब और मुर्गे का मांस चढ़ा कर अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। असुर लाइन में अभी तक किसी ने भी स्कूल नहीं देखा है। इस जाति के बच्चों के लिए सच वही है, जो उन्होंने अपने पिता और दादा से सुना है। इन लोगों के खाने-पीने की आदतें भी आम लोगों से अलग हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. असुर जनजाति समुदाय (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 जनवरी, 2012।
  2. दुर्गा नहीं महिषासुर की जय (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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