अयोध्या: Difference between revisions

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मध्यकाल में [[मुसलमान|मुसलमानों]] के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक [[बाबर]] के एक सेनापति ने [[बिहार]] अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मसजिद बनवाई जो आज भी विद्यमान है। मसजिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।  
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Revision as of 10:45, 9 June 2011

thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य
A View of Ayodhya

अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद ज़िले में आता है। दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

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इतिहास

अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते भारत के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।[1] अयोध्या की महत्त्वता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-

गंगा बड़ी गोदावरी,
तीरथ बड़ो प्रयाग,
सबसे बड़ी अयोध्यानगरी,
जहँ राम लियो अवतार।

अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने[2] अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण[3] से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्रजी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। रघु वंश[4] से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। महाभारत में अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था।[5] घटजातक में अयोध्या (अयोज्झा) के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है।[6] गौतमबुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तरकोसल और दक्षिणकोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है[7] जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।

  • रामायण में अयोध्या का उल्लेख कोशल जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है।[8]
  • पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है।[9]
  • सूत और मागध उस नगरी में बहुत थें अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।[10]
  • राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था।[11]
  • बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो कन्नौज से 13 योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।[12]
  • मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव ज़िले में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है।[13]
  • नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है।[14] थेरगाथा अट्ठकथा[15] में साकेत को सरयू नदी के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।
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उल्लेख

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य
A View of Ayodhya
शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र (द्वितीय शती ई. पू.) का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है।[16] कालिदास ने उत्तरकोसल की राजधानी साकेत[17] और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व धट चुका था।

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महाकाव्यों में अयोध्या

अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।[18]

  • अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।[19]
  • अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था।[20] जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।[21]
  • एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र[22] ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है[23] जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है।
  • साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम[24] का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
  • धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं-[25]
  • अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।[26]

thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य
A View of Ayodhya
वर्ष-1783


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मध्यकाल में अयोध्या

मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मसजिद बनवाई जो आज भी विद्यमान है। मसजिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।

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बौद्ध साहित्य में अयोध्या

बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।[27]

  • धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्सरता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था।[28]
  • संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त[29] और दारुक्खंधसुक्त[30] का व्याख्यान दिया था।
  • इस सूक्त में भगवान बुद्ध को गंगा नदी के तट पर विहार करते हुए बताया गया है।[31] इसी निकाय की अट्ठकथा में कहा गया है कि यहाँ के निवासियों ने गंगा के तट पर एक विहार बनवाकर किसी प्रमुख भिक्षु संघ को दान कर दिया था।[32] *इस प्रकार पालि त्रिपिटक और अट्ठकथा दोनों साक्ष्यों में बुद्धकालीन अयोध्या की स्थिति गंगा नदी के तट पर वर्णित है। सम्भव है कि पालि साहित्यकारों ने दोनों नदियों को पवित्रता के आधार पर एक समझकर प्रयोग किया हो और इसी आधार पर अन्तर स्थापित करने में असफल रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि ह्वेन त्सांग ने भी गंगा नदी पार करके अयोध्या में प्रवेश किया था, जबकि वर्तमान अयोध्या गंगा नदी के तट पर स्थित नहीं है।[33] अत: जब तक हम पालि विवरणों को ग़लत न मानें, बुद्धकालीन अयोध्या का वर्तमान अयोध्या से समीकरण सम्भव नहीं है। बहुत सम्भव है कि पालि त्रिपिटक में वर्णित अयोध्या गंगा नदी के किनारे स्थित इसी नाम का कोई अन्य नगर रहा हो।[34]
  • पालि ग्रन्थों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' तथा 'अयुज्झनगर' शब्द आते हैं। अयुज्झा (अयुज्झनगर) में अरिंदक तथा उसके उत्तराधिकारियों ने शासन किया था।[35] इसे कोशल में स्थित एक नगर से समीकृत किया गया है। घट जातक[36] में अयोध्या के कालसेन नामक नरेश का उल्लेख आया है। इसके शासन काल में अंधकवेण्हु के दस पुत्रों ने इस नगर को बहुत क्षति पहुँचाई थी। उन्होंने आक्रमण करके इसके उद्यानों एवं प्राकारों को क्षतिग्रस्त् कर दिया था।[37]
  • परवर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या का वर्णन एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मिलता है। धार्मिक क्षेत्र में इसकी महत्ता का कारण सरयू के तट पर इसकी स्थिति तथा इक्ष्वाकु शासकों विशेषकर राम के जीवन के साथ इसका सम्बन्ध था। इसी कारण अयोध्या को इक्ष्वाकुभूमि तथा रामपुरी भी कहते थे।[38]
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एक ही नगर से समीकृत

अयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश[39] में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है।[40] कर्निघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है।[41] इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट,[42] आधुनिक लखनऊ,[43] कुर्सी,[44] पशा (पसाका), [45] और तुसरन बिहार[46] (इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। 'अयोध्या' को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि 'साकेत' उससे भिन्न एक महानगर था।[47] अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं। thumb|250px|लक्ष्मण घाट, अयोध्या
Laxman Ghat, Ayodhya

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जैन ग्रन्थ के अनुसार

जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को विनीता भी कहा गया है।[48]

राज डेविड्स के अनुसार

राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान लंदन और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे[49] जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी [50]। विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उदभव हुआ।[51]

साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार

साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।[52]

पुरातत्वविदों के अनुसार

पिछले समय में कुछ पुरातत्वविदों यथा-प्रो. ब्रजवासी लाल[53] तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया[54] ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया, रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णत अन्य स्थान यथा- नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है। पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदी ई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा सांकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी[55] के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।

मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार

श्री मुनीश चन्द्र जोशी[56] ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक[57] में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया-

  • जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति (अगर यह थी तो) को लोग पूर्णत: भूल गये थे।
  • अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है।
  • आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।

इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है। thumb|250px|हनुमान गढ़ी, अयोध्या
Hanuman Garhi, Ayodhya

ब्रजवासी लाल के अनुसार

श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में[58] किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद[59] में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं बल्कि 'अजेय' से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमद्भागवदगीता[60] में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक,[61] अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरू होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों-दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न- से किया गया है।

प्रो. ब्रजवासी लाल[62] ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी[63] के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान ग़लत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।

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चीन यात्रियों का यात्रा विवरण

फ़ाह्यान

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को 'शा-चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मण्त्रों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।[64]

ह्वेन त्सांग

[[चित्र:Xuanzang.jpg|thumb|150px|ह्वेन त्सांग]]

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ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।[65] यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु[66] ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।

ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़[67]बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।

आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित[68]स्वर्ग उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलते थे।[69]

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अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन

अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।[70] उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-

प्रथम काल

thumb|250px|दिगम्बर जैन मंदिर, अयोध्या
Digambar Jain Temple, Ayodhya
उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं। जमाव के ऊपरी स्तर से 6 मानव आकृति की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। परवर्ती स्तरों से अयोध्या के दो जपनदीय सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोहे की वस्तुएँ भी मिली हैं। सीमित क्षेत्र में उत्खनन होने के कारण कोई भी संरचनात्मक अवशेष नहीं मिल सके।

द्वितीय काल

इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के आधारयुक्त लम्बवत् धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में हड्डी का एक कंघा, पक्की मिट्टी के लोढ़े, गोमेद के मनके और मिट्टी की मानव और पशु आकृतियाँ भी हैं। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि एक आयताकार पक्की ईटों (35×25×5 सेमी.) की संरचना तथा एक मृतिकावलय कूप (रिंगवेल) है। इस सरंचना की आंतरिक माप पूर्व से पश्चिम 88 सेमी. है।

तृतीय काल

इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। इस काल से सात पक्की ईटों की संरचनाओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्खनन से प्राप्त ये सभी संरचनाएँ, प्रारम्भिक संरचनाओं से निकाली गई ईटों से निर्मित हैं।

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया।[71] इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है। यहाँ से प्राप्त मृण्भांड श्रावस्ती, पिपरहवा और कौशांबी से समानता ग्रहण किए हुए हैं। उत्खननकर्ताओं ने इस प्रथम काल को सातवीं शताब्दी ई. पू. में निर्धारित किया है।

स्तरों के अनुक्रम से ज्ञात होता है कि इस टीले पर बस्तियों का क्रम तीसरी शताब्दी ई. तक अविच्छिन्न रूप से जारी था। उत्खनन से पता चलता है कि प्रारम्भिक चरण में मकानों का निर्माण बाँस, बल्ली, मिट्टी तथा कच्ची ईंटों से किया जाता था। जन्मभूमि क्षेत्र से ईंटों की एक मोटी दीवार मिली है। जिसे उत्खाता महोदय ने क़िले की दीवार से समीकृत किया है। इस दीवार के ठीक नीचे कच्ची ईंटों से निर्मित एक अन्य दीवार के भी अवशेष मिले हैं। इस तल के ऊपरी स्तर का विस्तार, जो रक्षा प्राचीरों के बाद का है, तीसरी शताब्दी ई. पू. से प्रथम शताब्दी ई. के मध्य माना गया है। खुदाई में यहाँ से कुछ मृतिका वलय कूप तथा क़िले की दीवार के बाहर की ओर परिखा (खाई) के अवशेष भी मिले हैं।

हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन

हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कुषाण शासक वासुदेव की एक मिट्टी की मुहर (दूसरी शती ई.), इसी काल का मूलदेव का एक सिक्का तथा एक भूरे रंग की केश-विहीन जैन मृण्मूर्ति है।[72] हनुमानगढ़ी से प्राप्त अन्य मृण्मूर्तियाँ पहली-दूसरी शताब्दी ई. पू. की हैं। ये मृण्मूर्तियाँ अहिच्छत्र, कौशांबी, पिपरहवा और वैशाली आदि क्षेत्रों से प्राप्त मृण्मूर्तियों के समान ही हैं। इस प्रकार की मृण्मूर्तियों को वासुदेवशरण अग्रवाल ने विजातीय प्रकार से अभिहित किया है।[73] thumb|250px|लक्ष्मण क़िला, अयोध्या
Laxman Fort, Ayodhya

महत्त्वपूर्ण उपलब्धि

इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था। यह व्यापार मुख्यत: छपरा और पूर्वी भारत के ताम्रलिप्ति से होता था। अभी भी सरयू और गंगा नदी में बड़ी नावों से पूर्वी भारत से व्यापार होता है। रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति आतंरिक व्यापार का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। उल्लेखनीय है प्रायद्वीपीय भारत में इस प्रकार के मृण्भांड कभी-कभी पृष्ठ प्रदेशों (जैसे-ब्रह्मगिरि और सेगमेडु) में भी मिलते हैं।

ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन

आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं। अयोध्या तथा अन्य स्थानों के उत्खनन के आधार पर इसका काल 7वीं शताब्दी ई. पू. निर्धारित किया गया है।

श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में यह उत्खनन कार्य 1979-1980 में पुन: प्रारम्भ हुआ।[74] इस उत्खनन के प्रारम्भिक चरणों से अच्छी तरह पकाए गए एवं चमकदार उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड (एन. बी. पी. बेयर) मिले हैं। इस मृण्भांड संस्कृति के काल में निर्मित मकानों में मुख्यत: कच्ची ईंटों का प्रयोग मिलता है। मकानों में मृत्तिका वलय कूपों का प्रावधान था। इस संस्कृति के पश्चात् यह स्थान शुंग, कुषाण, और गुप्त एवं मध्य कालों में आबाद रहा। उत्खनन में कच्ची ईंटों से निर्मित एक शुंग-कालीन दीवार भी मिली है। इसके अतिरिक्त गुप्तकालीन भवन का एक भाग तथा कुछ तत्कालीन मृण्भांड भी मिले हैं, जो श्रृंगवेरपुर और भारद्वाज आश्रम के मृण्भांडों के समतुल्य हैं।

सीमित क्षेत्र में उत्खनन

1981-1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था। महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिष्या विशाषा ने यहीं पर दीक्षा ग्रहण की थी, जिसकी स्मृतिस्वरूप विशाखा ने अयोध्या में मणि पर्वत के समीप एक बौद्ध मठ की स्थापना की थी। सम्भव है कि कालान्तर में समय-समय पर सरयू नदी के घारा परिवर्तन के कारण प्राचीन अयोध्या नगरी का कुछ क्षेत्र नदी द्वारा नष्ट कर दिया गया हो।

बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 2002-2003 ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।[75] उत्खनन में उपलब्ध प्रथम काल की सामग्री एक सीमित क्षेत्र से ही प्राप्त हैं। संरचनात्क क्रियाकलापों से परे प्रथम काल की संस्कृति इस क्षेत्र के अन्य उत्खनित पुरास्थलों श्रृंगवेरपुर, हुलासखेड़ा, सोहगौरा, नरहन और राजघाट के समान है। बीरबल साहनी पुरावानैस्पतिक संस्थान, लखनऊ से प्राप्त अयोध्या के प्रथम काल की कार्बन तिथियाँ निम्नलिखित हैं-[76]

नमूना सख्या नमूनों की तिथि [77] पुर्नगणना वर्ष में
संख्या-7, अयोध्या-1, 2152 जी-7 (16) 9.15 मीटर 2830 Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): \pm 100 बी. पी. (880 ई. पू.) 1190- 840 ई. पू.
संख्या-8, अयोध्या-1, 2153 जी-7 (19) 11.00 मीटर 2860 Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): \pm 100 बी. पी. (910 ई. पू.) 1210- 900 ई. पू.
संख्या-9, अयोध्या-1, 2154 जी-7 (20) 11.53 मीटर 3200 Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): \pm 130 बी. पी. (1250 ई. पू.) 1680- 1320 ई. पू.

इस नवीन पुरातात्विक साक्ष्य एवं अन्य स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ से प्राप्त पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति, च्तम छठच् बनसजनतमद्ध के साक्ष्य भारतीयों के आस्था एवं विश्वास को पुष्ट करते हैं। इस प्रमाण से हमें रामकथा और अयोध्या की प्राचीनता को कृष्ण, महाभारत और हस्तिनापुर के पूर्व के होने का सबल आधार मिलता है।

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thumb|250px|left|अयोध्या का एक दृश्य
A View of Ayodhya

पर्यटन

अयोध्या घाटों और मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी है। सरयू नदी यहाँ से होकर बहती है। सरयू नदी के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मंदिरों में 'कनक भवन' सबसे सुंदर है। लोकमान्यता के अनुसार कैकेयी ने इसे सीता को मुंह दिखाई में दिया था। ऊँचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षक का केंद्र है। इस नगर में रामजन्मभूमि-स्थल की बड़ी महिमा है। इस स्थान पर विक्रमादित्य का बनवाया हुआ एक भव्य मंदिर था किंतु बाबर के शासनकाल में वहाँ पर मस्जिद बना दी गई। जिसे 6 दिसंबर 1992 को कुछ कट्टरपंथियों ने गिरा दिया। इस विवादास्पद स्थान पर इस समय रामलला की मूर्ति स्थापित है सरयू के निकट नागेश्वर का मंदिर शिव के बारह ज्योतिलिंगों में गिना जाता है। 'तुलसी चौरा' वह स्थान है जहाँ बैठकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना आरंभ की थी। प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे।

अयोध्या जैन धर्मावलंबियों का भी तीर्थ-स्थान है। वर्तमान युग के चौबीस तीर्थकरों में से पाँच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भी सम्मिलित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. REDIRECT साँचा:टिप्पणीसूची
  1. अयोध्या मथुरा माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:
  2. बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार
  3. (वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4)
  4. (रघु वंश सर्ग 16)
  5. अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2
  6. (जातक संख्या 454)
  7. (देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39)
  8. एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड दि इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली, अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81
  9. ऐतरेय ब्राह्मण, 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, 1971, पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी)
  10. 'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11
  11. नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14
  12. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54
  13. जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086
  14. नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1956) पृष्ठ 7 एवं 12
  15. थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103
  16. 'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29
  17. (रघु वंश 5,31; 13,62)
  18. कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5)
  19. 'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
  20. विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
  21. आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
  22. यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
  23. द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
  24. ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
  25. अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।
  26. उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
  27. मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  28. मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  29. संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  30. तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  31. संयुक्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग 1, पृष्ठ 382
  32. सारत्थप्पकासिनी, भाग 2, पृष्ठ 320; भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 252
  33. वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 354
  34. विनयेंद्रनाथ चौधरी, बुद्धिस्ट सेंटर्स इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, 1969) पृष्ठ 81
  35. दीपवंस, भाग 2, पृष्ठ 15; वमसत्थप्पकासिनी (पालि टेक्ट्स सोसायटी), भाग 1, पृष्ठ 127; विमलचरण लाहा, इंडोलाकिल स्टडीज, भाग 3, पृष्ठ 23
  36. घट जातक, संख्या 454
  37. जाति (फाउसबाल संस्करण), खण्ड 4, पृष्ठ 82-83
  38. विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 24; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृष्ठ 7
  39. अध्याय 5, श्लोक 31
  40. आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963 ई.) पृष्ठ 55
  41. ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1976), पृष्ठ 405
  42. नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174
  43. फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110
  44. बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124
  45. विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., 1900 पृष्ठ 75
  46. डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे
  47. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254
  48. आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24
  49. राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  50. हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91
  51. विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58
  52. ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15
  53. ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.
  54. हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.
  55. हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7
  56. मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102
  57. तैत्तिरीय आरण्यक 1/27 अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत: यो वयताम् ब्रह्ममनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।
  58. ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  59. अथर्वेवेद, 10/2/28-33
  60. श्रीमद्भागवदगीता, 5/13
  61. पूर्वउल्लेखित, 1/27
  62. पूर्वउल्लेखित, पुरातत्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  63. पूर्वउल्लेखित, पुरातत्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102
  64. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55
  65. थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355
  66. बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।
  67. असङ्ग़ बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।
  68. प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।
  69. थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357
  70. इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41
  71. इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52
  72. यह जैन मृण्मूर्ति चौथी शताब्दी ई. पू. की है जो प्राचीनता की दृष्टि से भारत वर्ष में जैन मूर्तियों में प्रथम रचना है।
  73. इ. आ. रि., 1976-77, पृष्ठ 53
  74. इ. आ. रि., 1979-80, पृष्ठ 76-77
  75. हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।
  76. के. एन. दीक्षित, रामायण, महाभारत एंड आर्कियोलाजी, पुरातत्व, अंक-33, 2002-2003, पृष्ठ 114-118.
  77. कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): \pm 30 वर्ष)
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