Difference between revisions of "वेद और सामाजिक विषमता"

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*म्यूर ने [[ऋग्वेद]] से ऐसे अट्ठावन अंश उद्धृत किए हैं, जिनमें [[आर्य]] समुदाय के सदस्यों की धार्मिक शत्रुता या उदासीनता की भर्त्सना की गई है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.</ref> इनमें से बहुत-से परिच्छेद ऋग्वेद के मूल भाग<ref>मंडल दो से आठ</ref> में उपलब्ध हैं और उनसे पता चलता है कि आदिकाल में आर्यों की स्थिति कैसी थी। इनमें से कई अंश उन अनुदार व्यक्तियों के विरुद्ध हैं, जिन्हें अराधसम्<ref>ऋग्वेद, I. 84.8.</ref> या अपृणत: <ref>ऋग्वेद, VI. 44.11.</ref> कहा गया है। एक स्थल पर इन्द्र को समृद्ध व्यक्तियों (एथमानद्विट्) का, सम्भवत: उन समृद्ध आर्यों का जिन्होंने उसकी कोई सेवा नहीं की थी, दुश्मन बताया गया है।<ref>ऋग्वेद, VI. 47.16; जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.)</ref>  
 
*म्यूर ने [[ऋग्वेद]] से ऐसे अट्ठावन अंश उद्धृत किए हैं, जिनमें [[आर्य]] समुदाय के सदस्यों की धार्मिक शत्रुता या उदासीनता की भर्त्सना की गई है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.</ref> इनमें से बहुत-से परिच्छेद ऋग्वेद के मूल भाग<ref>मंडल दो से आठ</ref> में उपलब्ध हैं और उनसे पता चलता है कि आदिकाल में आर्यों की स्थिति कैसी थी। इनमें से कई अंश उन अनुदार व्यक्तियों के विरुद्ध हैं, जिन्हें अराधसम्<ref>ऋग्वेद, I. 84.8.</ref> या अपृणत: <ref>ऋग्वेद, VI. 44.11.</ref> कहा गया है। एक स्थल पर इन्द्र को समृद्ध व्यक्तियों (एथमानद्विट्) का, सम्भवत: उन समृद्ध आर्यों का जिन्होंने उसकी कोई सेवा नहीं की थी, दुश्मन बताया गया है।<ref>ऋग्वेद, VI. 47.16; जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.)</ref>  
*दास और आर्य अपनी सम्पत्ति छिपाकर रखते थे, जिसके चलते उनका विरोध होता था।<ref>ऋग्वेद, VIII. 51.9. ‘यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवाधिपा अरि:’ इस अनुच्छेद पर [[सायण]] की टिप्पणी में, और वाजसनेयी संहिता, XXXIII. के एक ऐसे ही अनुच्छेद पर उवट तथा महीधर की टिप्पणी में भी दास को ‘आर्य’ का विशेषण माना गया है, किन्तु गेल्डनर<ref> ऋग्वेद, VIII. 51.9</ref> आर्य और दास को दो अलग-अलग संज्ञा मानते हैं। हर हालत में यह स्पष्ट है कि आर्यों का भी विरोध होता था।</ref> कहा जाता है कि [[अग्नि]] ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए समतल भूमि और पहाड़ियों में स्थित सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया और अपनी प्रजा के दास तथा शत्रुओं को हराया।<ref>ऋग्वेद, X. 69.6. ‘समज्रया पर्वत्या वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ’</ref> इन अंशों में यह बताया गया है कि जो [[आर्य]] दुश्मन समझे जाते थे, उनकी सम्पत्ति भी<ref> अनुमानत: मवेशी</ref> छीन ली जाती थी और उन्हें आर्येतर लोगों की भाँति कंगाल बना दिया जाता था।
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*दास और आर्य अपनी सम्पत्ति छिपाकर रखते थे, जिसके चलते उनका विरोध होता था।<ref>ऋग्वेद, VIII. 51.9. ‘यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवाधिपा अरि:’</ref> इस अनुच्छेद पर [[सायण]] की टिप्पणी में, और वाजसनेयी संहिता,<ref> वाजसनेयी संहिता XXXIII.</ref> के एक ऐसे ही अनुच्छेद पर उवट तथा महीधर की टिप्पणी में भी दास को ‘आर्य’ का [[विशेषण]] माना गया है, किन्तु गेल्डनर<ref> ऋग्वेद, VIII. 51.9</ref> आर्य और दास को दो अलग-अलग [[संज्ञा]] मानते हैं। हर हालत में यह स्पष्ट है कि आर्यों का भी विरोध होता था।</ref> कहा जाता है कि [[अग्नि]] ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए समतल भूमि और पहाड़ियों में स्थित सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया और अपनी प्रजा के दास तथा शत्रुओं को हराया।<ref>ऋग्वेद, X. 69.6. ‘समज्रया पर्वत्या वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ’</ref> इन अंशों में यह बताया गया है कि जो [[आर्य]] दुश्मन समझे जाते थे, उनकी सम्पत्ति भी<ref> अनुमानत: मवेशी</ref> छीन ली जाती थी और उन्हें आर्येतर लोगों की भाँति कंगाल बना दिया जाता था।
 
*कई अनुच्छेदों में पणियों के रूप में विख्यात लोगों के प्रति सामान्यत: शत्रुतापूर्ण भाव देखने को मिलता है।<ref>ऋग्वेद, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.</ref>  
 
*कई अनुच्छेदों में पणियों के रूप में विख्यात लोगों के प्रति सामान्यत: शत्रुतापूर्ण भाव देखने को मिलता है।<ref>ऋग्वेद, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.</ref>  
*म्यूर ने उन्हें कंजूस माना है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.</ref> *'वैदिक इंडेक्स' के प्रणेताओं के अनुसार [[ऋग्वेद]] में ‘पणि’ शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है, जो कि सम्पत्तिवान हो, पर न तो ईश्वर को हव्य अर्पित करता हो और न ही पुरोहितों को दक्षिणा देता हो, फलत: संहिता के रचयिताओं की घृणा का पात्र हो।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 471.</ref> एक अनुच्छेद में उन्हें ‘बेकनाट’ या सूदखोर बताया गया है, जिन्हें [[इन्द्र]] ने पराजित किया था।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294., ऋग्वेद, VIII. 66.10.</ref> पणि [[यज्ञ]] करने के लिए सक्षम थे और वैरदेय (वरगेल्ड) पाने के अधिकारी भी थे। इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि वे आर्य-समुदाय के ही सदस्य थे।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref>  
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*म्यूर ने उन्हें कंजूस माना है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.</ref>  
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*'वैदिक इंडेक्स' के प्रणेताओं के अनुसार [[ऋग्वेद]] में ‘पणि’ शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है, जो कि सम्पत्तिवान हो, पर न तो ईश्वर को हव्य अर्पित करता हो और न ही पुरोहितों को दक्षिणा देता हो, फलत: संहिता के रचयिताओं की घृणा का पात्र हो।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 471.</ref> एक अनुच्छेद में उन्हें ‘बेकनाट’ या सूदखोर बताया गया है, जिन्हें [[इन्द्र]] ने पराजित किया था।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294., ऋग्वेद, VIII. 66.10.</ref> पणि [[यज्ञ]] करने के लिए सक्षम थे और वैरदेय (वरगेल्ड) पाने के अधिकारी भी थे। इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि वे आर्य-समुदाय के ही सदस्य थे।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref>  
 
*हिलब्रांट उन्हें पर्णियों से अभिन्न मानते हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref> पर्णि दहे अर्थात् अश्वारोही और लड़ाकू सीथियन जनजातियों के विशाल समुदाय के अंग थे।<ref>गीर्समन, ईरान, पृष्ठ 243.</ref> वैदिक इंडेक्स के प्रणेता समझते हैं कि यह शब्द इतना व्यापक है कि इससे आदिवासी या विद्वेषी आर्य जनजातियों का भी बोध होता है।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref>
 
*हिलब्रांट उन्हें पर्णियों से अभिन्न मानते हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref> पर्णि दहे अर्थात् अश्वारोही और लड़ाकू सीथियन जनजातियों के विशाल समुदाय के अंग थे।<ref>गीर्समन, ईरान, पृष्ठ 243.</ref> वैदिक इंडेक्स के प्रणेता समझते हैं कि यह शब्द इतना व्यापक है कि इससे आदिवासी या विद्वेषी आर्य जनजातियों का भी बोध होता है।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. 472.</ref>
 
*जिन परिच्छेदों में पणियों को कंजूस बताया गया है और साधारणत: अनुदार व्यक्तियों की निंदा की गई है, उनमें से कुछ दान लोभी पुरोहितों के इशारे पर लिखे गए होंगे। किन्तु उनसे सामान्यतया पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी सम्पत्ति इकट्ठा करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। ऐसे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी एकत्रित सम्पत्ति में से [[इन्द्र]] तथा अन्य [[देवता|देवताओं]] को [[यज्ञ]] में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में दूसरों को कुछ हिस्सा मिल सके<ref>ऋग्वेद, VIII. 40.6.</ref> और जनसमुदाय को बार-बार सहभोज का अवसर मिले। पर लूट के धन का अधिकांश अंश जब वे लोग अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।
 
*जिन परिच्छेदों में पणियों को कंजूस बताया गया है और साधारणत: अनुदार व्यक्तियों की निंदा की गई है, उनमें से कुछ दान लोभी पुरोहितों के इशारे पर लिखे गए होंगे। किन्तु उनसे सामान्यतया पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी सम्पत्ति इकट्ठा करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। ऐसे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी एकत्रित सम्पत्ति में से [[इन्द्र]] तथा अन्य [[देवता|देवताओं]] को [[यज्ञ]] में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में दूसरों को कुछ हिस्सा मिल सके<ref>ऋग्वेद, VIII. 40.6.</ref> और जनसमुदाय को बार-बार सहभोज का अवसर मिले। पर लूट के धन का अधिकांश अंश जब वे लोग अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।

Revision as of 13:30, 7 September 2011

  • myoor ne rrigved se aise atthavan aansh uddhrit kie haian, jinamean ary samuday ke sadasyoan ki dharmik shatruta ya udasinata ki bhartsana ki gee hai.[1] inamean se bahut-se parichchhed rrigved ke mool bhag[2] mean upalabdh haian aur unase pata chalata hai ki adikal mean aryoan ki sthiti kaisi thi. inamean se kee aansh un anudar vyaktiyoan ke viruddh haian, jinhean aradhasamh[3] ya aprinat: [4] kaha gaya hai. ek sthal par indr ko samriddh vyaktiyoan (ethamanadvith) ka, sambhavat: un samriddh aryoan ka jinhoanne usaki koee seva nahian ki thi, dushman bataya gaya hai.[5]
  • das aur ary apani sampatti chhipakar rakhate the, jisake chalate unaka virodh hota tha.[6] is anuchchhed par sayan ki tippani mean, aur vajasaneyi sanhita,[7] ke ek aise hi anuchchhed par uvat tatha mahidhar ki tippani mean bhi das ko ‘ary’ ka visheshan mana gaya hai, kintu geldanar[8] ary aur das ko do alag-alag sanjna manate haian. har halat mean yah spasht hai ki aryoan ka bhi virodh hota tha.</ref> kaha jata hai ki agni ne apani praja ki bhalaee ke lie samatal bhoomi aur paha diyoan mean sthit sampatti ko apane adhikar mean kar liya aur apani praja ke das tatha shatruoan ko haraya.[9] in aanshoan mean yah bataya gaya hai ki jo ary dushman samajhe jate the, unaki sampatti bhi[10] chhin li jati thi aur unhean aryetar logoan ki bhaanti kangal bana diya jata tha.
  • kee anuchchhedoan mean paniyoan ke roop mean vikhyat logoan ke prati samanyat: shatrutapoorn bhav dekhane ko milata hai.[11]
  • myoor ne unhean kanjoos mana hai.[12]
  • 'vaidik iandeks' ke pranetaoan ke anusar rrigved mean ‘pani’ shabd us vyakti ka dyotak hai, jo ki sampattivan ho, par n to eeshvar ko havy arpit karata ho aur n hi purohitoan ko dakshina deta ho, phalat: sanhita ke rachayitaoan ki ghrina ka patr ho.[13] ek anuchchhed mean unhean ‘bekanat’ ya soodakhor bataya gaya hai, jinhean indr ne parajit kiya tha.[14] pani yajn karane ke lie saksham the aur vairadey (varageld) pane ke adhikari bhi the. in tathyoan se jnat hota hai ki ve ary-samuday ke hi sadasy the.[15]
  • hilabraant unhean parniyoan se abhinn manate haian.[16] parni dahe arthath ashvarohi aur l dakoo sithiyan janajatiyoan ke vishal samuday ke aang the.[17] vaidik iandeks ke praneta samajhate haian ki yah shabd itana vyapak hai ki isase adivasi ya vidveshi ary janajatiyoan ka bhi bodh hota hai.[18]
  • jin parichchhedoan mean paniyoan ko kanjoos bataya gaya hai aur sadharanat: anudar vyaktiyoan ki nianda ki gee hai, unamean se kuchh dan lobhi purohitoan ke ishare par likhe ge hoange. kintu unase samanyataya pata chalata hai ki apane baandhavoan ka gala dabakar bhi sampatti ikattha karane ki pravritti kuchh aryoan mean paee jati thi. aise logoan se apeksha ki jati thi ki ve apani ekatrit sampatti mean se indr tatha any devataoan ko yajn mean dhanarashi arpit karean, jisase is dhan mean doosaroan ko kuchh hissa mil sake[19] aur janasamuday ko bar-bar sahabhoj ka avasar mile. par loot ke dhan ka adhikaansh aansh jab ve log apane pas rakhane lage to arthik aur samajik vishamata ka janm hua.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. jarnal aauf d r aauyal eshiyatik sosayati aauf gret briten end ayaralaind, landan, nyoo sirij, II. prishth 286-294.
  2. mandal do se ath
  3. rrigved, I. 84.8.
  4. rrigved, VI. 44.11.
  5. rrigved, VI. 47.16; jarnal aauf d r aauyal eshiyatik sosayati aauf gret briten end ayaralaind, landan, nyoo sirij, II. prishth 286-294.)
  6. rrigved, VIII. 51.9. ‘yasyayan vishv aryo das: shevadhipa ari:’
  7. vajasaneyi sanhita XXXIII.
  8. rrigved, VIII. 51.9
  9. rrigved, X. 69.6. ‘samajraya parvatya vasooni dasa vritranyarya jigeth’
  10. anumanat: maveshi
  11. rrigved, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.
  12. jarnal aauf d r aauyal eshiyatik sosayati aauf gret briten end ayaralaind, landan, nyoo sirij, II. prishth 286-294.
  13. vaidik iandeks, I. prishth 471.
  14. jarnal aauf d r aauyal eshiyatik sosayati aauf gret briten end ayaralaind, landan, nyoo sirij, II. prishth 286-294., rrigved, VIII. 66.10.
  15. vaidik iandeks, I. 472.
  16. vaidik iandeks, I. 472.
  17. girsaman, eeran, prishth 243.
  18. vaidik iandeks, I. 472.
  19. rrigved, VIII. 40.6.

bahari k diyaan

sanbandhit lekh