अक्रियावाद: Difference between revisions

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Latest revision as of 08:15, 19 May 2018

अक्रियावाद गौतम बुद्ध के समकालीन एक प्रसिद्ध दार्शनिक मतवाद था। यह मत भारत में बुद्ध के समय कुछ अपधर्मी शिक्षकों की मान्यताओं पर आधारित था। यह सिद्धांत एक प्रकार का स्वेच्छाचारवाद था, जो व्यक्ति के पहले के कर्मो का मनुष्य के वर्तमान और भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव के पारंपरिक कार्मिक सिद्धांत को अस्वीकार करता था।

अर्थ और उद्देश्य

अक्रियावाद संस्कृत शब्द, अर्थात् कर्मों के प्रभाव को नकारने वाला सिद्धांत। पालि में अक्रियावाद, भारत में बुद्ध के समकालीन कुछ अपधर्मी शिक्षकों की मान्यताएं। यह सिद्धांत एक प्रकार का स्वेच्छाचारवाद था। जो व्यक्ति के पहले के कर्मों का मनुष्य के वर्तमान और भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव के पारंपरिक कार्मिक सिद्धांत को अस्वीकार करता है। यह सदाचार या दुराचार के माध्यम से किसी मनुष्य द्वारा अपमी नियति को प्रभावित करने की संभावना से भी इनकार करता है। इस प्रकार, अनैतिकता के कारण इस सिद्धांत के उपदेशकों की, बौद्धों सहित, इनके सभी धार्मिक विरोधियों ने आलोचना की। इनके विचारों की जानकरी बौद्ध और जैन साहित्य में अप्रशंसात्मक उल्लेखों के माध्यम से ही मिलती है। ज्ञात अपधर्मी उपदेशकों में से कुछ का विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है। ज्ञात अपधर्मी उपदेशकों में से कुछ का विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है:

स्वेच्छाचारी सम्ज्य-बेलाथ्थि पुत्त; घोर स्वेच्छाचारीवादी पुराण कश्यप; दैववादी गोशला मस्करीपुत्र; भौतिकवादी अजित केशकंबली और परमाणुवादी पाकुड़ कात्यायन।

मान्यताएँ

इस मत की मान्यताओं के अनुसार, न तो कोई कर्म है, न कोई क्रिया और न कोई प्रयत्न। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म दोनों ने अक्रियावद के मत का पूरी तरह से खंडन किया, क्योंकि ये दोनों प्रयत्न, कार्य, बल तथा वीर्य की सत्ता में विश्वास रखते हैं। इसी कारण इन्हें 'कर्मवाद' या 'क्रियावाद' कहकर सम्बोधित किया जाता है। बुद्ध के समय 'पूर्णकश्यप' नाम के एक आचार्य इस मत के प्रख्यात अनुयायी बतलाए जाते हैं।[1]

आलोचना

अक्रियावाद सदाचार या दुराचार के माध्यम से किसी मनुष्य द्वारा अपनी नियति को प्रभावित करने की संभावना से भी इनकार करता है। परिणामस्वरूप अनैतिकता के कारण इस सिद्धांत के उपदेशकों की, बौद्धों सहित सभी धार्मिक विरोधियों ने कड़ी आलोचना की। इनके विचारों की जानकारी बौद्ध और जैन साहित्य में अप्रशंसात्मक उल्लेखों के द्वारा प्राप्त होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्व कोश, प्रथम खंड, पृष्ठ 68

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