वेद और सामाजिक विषमता: Difference between revisions

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Revision as of 13:57, 27 March 2015

  • म्यूर ने ऋग्वेद से ऐसे अट्ठावन अंश उद्धृत किए हैं, जिनमें आर्य समुदाय के सदस्यों की धार्मिक शत्रुता या उदासीनता की भर्त्सना की गई है।[1] इनमें से बहुत-से परिच्छेद ऋग्वेद के मूल भाग[2] में उपलब्ध हैं और उनसे पता चलता है कि आदिकाल में आर्यों की स्थिति कैसी थी। इनमें से कई अंश उन अनुदार व्यक्तियों के विरुद्ध हैं, जिन्हें अराधसम्[3] या अपृणत: [4] कहा गया है। एक स्थल पर इन्द्र को समृद्ध व्यक्तियों (एथमानद्विट्) का, सम्भवत: उन समृद्ध आर्यों का जिन्होंने उसकी कोई सेवा नहीं की थी, दुश्मन बताया गया है।[5]
  • दास और आर्य अपनी सम्पत्ति छिपाकर रखते थे, जिसके चलते उनका विरोध होता था।[6] इस अनुच्छेद पर सायण की टिप्पणी में, और वाजसनेयी संहिता,[7] के एक ऐसे ही अनुच्छेद पर उवट तथा महीधर की टिप्पणी में भी दास को ‘आर्य’ का विशेषण माना गया है, किन्तु गेल्डनर[8] आर्य और दास को दो अलग-अलग संज्ञा मानते हैं। हर हालत में यह स्पष्ट है कि आर्यों का भी विरोध होता था।</ref> कहा जाता है कि अग्नि ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए समतल भूमि और पहाड़ियों में स्थित सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया और अपनी प्रजा के दास तथा शत्रुओं को हराया।[9] इन अंशों में यह बताया गया है कि जो आर्य दुश्मन समझे जाते थे, उनकी सम्पत्ति भी[10] छीन ली जाती थी और उन्हें आर्येतर लोगों की भाँति कंगाल बना दिया जाता था।
  • कई अनुच्छेदों में पणियों के रूप में विख्यात लोगों के प्रति सामान्यत: शत्रुतापूर्ण भाव देखने को मिलता है।[11]
  • म्यूर ने उन्हें कंजूस माना है।[12]
  • 'वैदिक इंडेक्स' के प्रणेताओं के अनुसार ऋग्वेद में ‘पणि’ शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है, जो कि सम्पत्तिवान हो, पर न तो ईश्वर को हव्य अर्पित करता हो और न ही पुरोहितों को दक्षिणा देता हो, फलत: संहिता के रचयिताओं की घृणा का पात्र हो।[13] एक अनुच्छेद में उन्हें ‘बेकनाट’ या सूदखोर बताया गया है, जिन्हें इन्द्र ने पराजित किया था।[14] पणि यज्ञ करने के लिए सक्षम थे और वैरदेय (वरगेल्ड) पाने के अधिकारी भी थे। इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि वे आर्य-समुदाय के ही सदस्य थे।[15]
  • हिलब्रांट उन्हें पर्णियों से अभिन्न मानते हैं।[16] पर्णि दहे अर्थात् अश्वारोही और लड़ाकू सीथियन जनजातियों के विशाल समुदाय के अंग थे।[17] वैदिक इंडेक्स के प्रणेता समझते हैं कि यह शब्द इतना व्यापक है कि इससे आदिवासी या विद्वेषी आर्य जनजातियों का भी बोध होता है।[18]
  • जिन परिच्छेदों में पणियों को कंजूस बताया गया है और साधारणत: अनुदार व्यक्तियों की निंदा की गई है, उनमें से कुछ दान लोभी पुरोहितों के इशारे पर लिखे गए होंगे। किन्तु उनसे सामान्यतया पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी सम्पत्ति इकट्ठा करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। ऐसे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी एकत्रित सम्पत्ति में से इन्द्र तथा अन्य देवताओं को यज्ञ में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में दूसरों को कुछ हिस्सा मिल सके[19] और जनसमुदाय को बार-बार सहभोज का अवसर मिले। पर लूट के धन का अधिकांश अंश जब वे लोग अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  2. मंडल दो से आठ
  3. ऋग्वेद, I. 84.8.
  4. ऋग्वेद, VI. 44.11.
  5. ऋग्वेद, VI. 47.16; जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.)
  6. ऋग्वेद, VIII. 51.9. ‘यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवाधिपा अरि:’
  7. वाजसनेयी संहिता XXXIII.
  8. ऋग्वेद, VIII. 51.9
  9. ऋग्वेद, X. 69.6. ‘समज्रया पर्वत्या वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ’
  10. अनुमानत: मवेशी
  11. ऋग्वेद, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.
  12. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  13. वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 471.
  14. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294., ऋग्वेद, VIII. 66.10.
  15. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  16. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  17. गीर्समन, ईरान, पृष्ठ 243.
  18. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  19. ऋग्वेद, VIII. 40.6.

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख