काव्य और कला -जयशंकर प्रसाद: Difference between revisions

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'''काव्य और कला''' प्रसिद्ध [[हिन्दी]] साहित्यकार [[जयशंकर प्रसाद]] द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध निबन्ध है। प्रसाद जी की काव्य संबंधी मान्यताएँ 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' नामक उनके निबन्ध संकलन में खोजी जा सकती हैं। इनमें आचार्य वाजपेयी का लम्बा प्राक्कथन भी है, जिसमें जयशंकर प्रसाद के विचारों का विश्लेषण किया गया है।
'''काव्य और कला''' प्रसिद्ध [[हिन्दी]] साहित्यकार [[जयशंकर प्रसाद]] द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध निबन्ध है। प्रसाद जी की काव्य संबंधी मान्यताएँ 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' नामक उनके निबन्ध संकलन में खोजी जा सकती हैं। इनमें आचार्य वाजपेयी का लम्बा प्राक्कथन भी है, जिसमें जयशंकर प्रसाद के विचारों का विश्लेषण किया गया है।


'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में आठ निबन्ध संकलित हैं, जिनमें तीन नाटक से संबंध रखते हैं। आरम्भ में काव्य और कला के संबंधों पर विचार किया गया है, फिर रहस्यवाद और [[रस]] का विवेचन है। बीच के नाटक संबंधी तीन निबन्धों के बाद आरम्भिक पाठ्यक्रम है और अंत में 'यथार्थवाद और छायावाद' शीर्षक समापन निबन्ध।
'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में आठ निबन्ध संकलित हैं, जिनमें तीन नाटक से संबंध रखते हैं। आरम्भ में काव्य और कला के संबंधों पर विचार किया गया है, फिर [[रहस्यवाद]] और [[रस]] का विवेचन है। बीच के नाटक संबंधी तीन निबन्धों के बाद आरम्भिक पाठ्यक्रम है और अंत में 'यथार्थवाद और छायावाद' शीर्षक समापन निबन्ध।


'काव्य और कला' निबन्ध में जयशंकर प्रसाद भारतीय दृष्टि से काव्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- "काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है। विश्लेषणात्मक तर्कों से और विकल्प के आरोप से मिलन न होने के कारण आत्मा की मनन क्रिया जो वाङ्मय रूप में अभिव्यक्त होती है, वह निस्संदेह प्राणमयी और सत्य के उभय लक्षण प्रेय और श्रेय दोनों से परिपूर्ण होती है।" यहाँ प्रसाद जी 'ज्ञानधारा' के प्रयोग से स्पष्ट करना चाहते हैं कि जो लोग काव्य को केवल स्फीत भावुकता का प्रकाशन मानते हैं, वे भ्रम में हैं। साथ ही वे काव्य की सोद्देश्यता का भी संकेत करते हैं कि उच्चतर आनंद के साथ उसे कल्याणकारी भी होना चाहिए। '[[कामायनी]]' के 'लज्जा' सर्ग की पंक्तियाँ इस धारणा की पुष्टि करती हैं-
'काव्य और कला' निबन्ध में जयशंकर प्रसाद भारतीय दृष्टि से काव्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- "काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है। विश्लेषणात्मक तर्कों से और विकल्प के आरोप से मिलन न होने के कारण आत्मा की मनन क्रिया जो वाङ्मय रूप में अभिव्यक्त होती है, वह निस्संदेह प्राणमयी और सत्य के उभय लक्षण प्रेय और श्रेय दोनों से परिपूर्ण होती है।" यहाँ प्रसाद जी 'ज्ञानधारा' के प्रयोग से स्पष्ट करना चाहते हैं कि जो लोग काव्य को केवल स्फीत भावुकता का प्रकाशन मानते हैं, वे भ्रम में हैं। साथ ही वे काव्य की सोद्देश्यता का भी संकेत करते हैं कि उच्चतर आनंद के साथ उसे कल्याणकारी भी होना चाहिए। '[[कामायनी]]' के 'लज्जा' सर्ग की पंक्तियाँ इस धारणा की पुष्टि करती हैं-

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thumb|200px|काव्य और कला (आवरण पृष्ठ)

काव्य और कला प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध निबन्ध है। प्रसाद जी की काव्य संबंधी मान्यताएँ 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' नामक उनके निबन्ध संकलन में खोजी जा सकती हैं। इनमें आचार्य वाजपेयी का लम्बा प्राक्कथन भी है, जिसमें जयशंकर प्रसाद के विचारों का विश्लेषण किया गया है।

'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में आठ निबन्ध संकलित हैं, जिनमें तीन नाटक से संबंध रखते हैं। आरम्भ में काव्य और कला के संबंधों पर विचार किया गया है, फिर रहस्यवाद और रस का विवेचन है। बीच के नाटक संबंधी तीन निबन्धों के बाद आरम्भिक पाठ्यक्रम है और अंत में 'यथार्थवाद और छायावाद' शीर्षक समापन निबन्ध।

'काव्य और कला' निबन्ध में जयशंकर प्रसाद भारतीय दृष्टि से काव्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- "काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है। विश्लेषणात्मक तर्कों से और विकल्प के आरोप से मिलन न होने के कारण आत्मा की मनन क्रिया जो वाङ्मय रूप में अभिव्यक्त होती है, वह निस्संदेह प्राणमयी और सत्य के उभय लक्षण प्रेय और श्रेय दोनों से परिपूर्ण होती है।" यहाँ प्रसाद जी 'ज्ञानधारा' के प्रयोग से स्पष्ट करना चाहते हैं कि जो लोग काव्य को केवल स्फीत भावुकता का प्रकाशन मानते हैं, वे भ्रम में हैं। साथ ही वे काव्य की सोद्देश्यता का भी संकेत करते हैं कि उच्चतर आनंद के साथ उसे कल्याणकारी भी होना चाहिए। 'कामायनी' के 'लज्जा' सर्ग की पंक्तियाँ इस धारणा की पुष्टि करती हैं-

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।


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