विशाख (नाटक): Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''विशाख नाटक''' हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और साहित्यका...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''विशाख नाटक''' [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध लेखक और साहित्यकार [[जयशंकर प्रसाद]] द्वारा लिखा गया है। इस नाटक के द्वारा जयशंकर प्रसाद इस तथ्य को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि [[बौद्ध विहार|बौद्ध विहारों]] के भस्म होने से 'तथागत' ([[गौतम बुद्ध]]) की महत्ता को किसी प्रकार का धक्का न पहुँचा। बुद्ध तो पूर्ववत् भगवान के रूप में उपास्या बने रहे। | '''विशाख नाटक''' [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध लेखक और साहित्यकार [[जयशंकर प्रसाद]] द्वारा लिखा गया है। इस नाटक में प्रसाद जी ने [[कश्मीर]] स्थिल [[बौद्ध विहार|बौद्ध विहारों]] के भस्मसात होने का कारण दिया है। उनका मत है कि जब [[बौद्ध]] भिक्षुओं का चरित्र पतित हो गया तो राजा और जनता की श्रद्धा उनमें नहीं रही। अत: समस्त बौद्ध विहार राज-कोपाग्नि में भस्म कर दिए गए। | ||
विशाख और राजा नरदेव का वार्तालाप- "कानीर विहार का बौद्ध महन्त जिसे राज्य की ओर से बहुत-सी सम्पत्ति मिली है, प्रमादी हो गया है। दीन-दुखियों की कुछ नहीं सुनता। मोटे निठल्लों को एकत्र करके विहार कर रहा है। एक दरिद्र नाग की कन्या को अकारण पकड़ कर अपने मठ में बन्द कर रखा है। उसका बृद्ध पिता दुखी होकर द्वार-द्वार विलाप कर रहा है।" | |||
राजा नरदेव विहारों को भस्म करने की आज्ञा देता हुआ बौद्ध महन्त से कहता है- "किन्तु सत्यशील, तुम तो अधम कीट हो। तुम्हारे लिए यही दण्ड है कि तुम लोगों का अस्तित्व पृथ्वी पर से उठा दिया जाए, नहीं तो तुम लोग बड़ा अन्याय फैलाओगे। सेनापति, सब विहारों को राज्य भर में जलवा दो।" | |||
इस नाटक के द्वारा जयशंकर प्रसाद इस तथ्य को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि [[बौद्ध विहार|बौद्ध विहारों]] के भस्म होने से 'तथागत' ([[गौतम बुद्ध]]) की महत्ता को किसी प्रकार का धक्का न पहुँचा। बुद्ध तो पूर्ववत् भगवान के रूप में उपास्या बने रहे। | |||
जयशंकर प्रसाद तथागत के उन गुणों को जिनके द्वारा उन्हें भगवान की उपाधि प्राप्त हुई थी, ढूँढ निकालते हैं। उनका सर्वश्रेष्ठ पात्र प्रेमानन्द भगवान के लक्षण देते हुए कहता है- | जयशंकर प्रसाद तथागत के उन गुणों को जिनके द्वारा उन्हें भगवान की उपाधि प्राप्त हुई थी, ढूँढ निकालते हैं। उनका सर्वश्रेष्ठ पात्र प्रेमानन्द भगवान के लक्षण देते हुए कहता है- |
Latest revision as of 08:59, 16 November 2012
विशाख नाटक हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और साहित्यकार जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखा गया है। इस नाटक में प्रसाद जी ने कश्मीर स्थिल बौद्ध विहारों के भस्मसात होने का कारण दिया है। उनका मत है कि जब बौद्ध भिक्षुओं का चरित्र पतित हो गया तो राजा और जनता की श्रद्धा उनमें नहीं रही। अत: समस्त बौद्ध विहार राज-कोपाग्नि में भस्म कर दिए गए।
विशाख और राजा नरदेव का वार्तालाप- "कानीर विहार का बौद्ध महन्त जिसे राज्य की ओर से बहुत-सी सम्पत्ति मिली है, प्रमादी हो गया है। दीन-दुखियों की कुछ नहीं सुनता। मोटे निठल्लों को एकत्र करके विहार कर रहा है। एक दरिद्र नाग की कन्या को अकारण पकड़ कर अपने मठ में बन्द कर रखा है। उसका बृद्ध पिता दुखी होकर द्वार-द्वार विलाप कर रहा है।"
राजा नरदेव विहारों को भस्म करने की आज्ञा देता हुआ बौद्ध महन्त से कहता है- "किन्तु सत्यशील, तुम तो अधम कीट हो। तुम्हारे लिए यही दण्ड है कि तुम लोगों का अस्तित्व पृथ्वी पर से उठा दिया जाए, नहीं तो तुम लोग बड़ा अन्याय फैलाओगे। सेनापति, सब विहारों को राज्य भर में जलवा दो।"
इस नाटक के द्वारा जयशंकर प्रसाद इस तथ्य को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि बौद्ध विहारों के भस्म होने से 'तथागत' (गौतम बुद्ध) की महत्ता को किसी प्रकार का धक्का न पहुँचा। बुद्ध तो पूर्ववत् भगवान के रूप में उपास्या बने रहे।
जयशंकर प्रसाद तथागत के उन गुणों को जिनके द्वारा उन्हें भगवान की उपाधि प्राप्त हुई थी, ढूँढ निकालते हैं। उनका सर्वश्रेष्ठ पात्र प्रेमानन्द भगवान के लक्षण देते हुए कहता है-
'मान लूँ क्यों न उसे भगवान।
नर हो या किन्नर कोई हो निर्बल या बलवान,
किन्तु दोष करुणा का जिसका हो पूरा, दे दान।
मान लूँ क्यों न उसे भगवान।
विश्व वेदना का जो सुख से करता है आह्वान,
तृण से त्रयर्स्त्रिश तक जिसको सम सत्ता का भान।
मान लूँ क्यों न उसे भगवान।
मोह नहीं है किन्तु प्रेम का करता है सम्मान,
द्वेषी नहीं किसी का, तब सब क्यों न करें गुण-गान।
मान लूँ क्यों न उसे भगवान।
|
|
|
|
|