गीता 2:7: Difference between revisions

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इसलिये कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा [[धर्म]] के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ।।7।।  


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Latest revision as of 05:50, 4 January 2013

गीता अध्याय-2 श्लोक-7 / Gita Chapter-2 Verse-7

प्रसंग-


इस प्रकार शिक्षा देने के लिये भगवान् से प्रार्थना करके अब अर्जुन[1] उस प्रार्थना का हेतु बतलाते हुए अपने विचारों को प्रकट करते हैं-


कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता: ।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽह शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।7।।




इसलिये कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ।।7।।


With my very being tainted by the vice of faint-heartedness and my mind puzzled with regard to duty, I am asking you. Tell me that which is decidedly good, I am your disciple. Pray instruct me, who have put myself into your hands. (7)


कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाववाला (और) ; धर्मसंमूढचेता: = धर्मके विषयमें मोहिताचित्त हुआ (मैं) ; त्वाम् = आपको ; पृच्छामि= पूछता हूं ; यत् = जो (कुछ) निश्चिय किया हुआ ; श्रेय: = कल्याणकारक साधन ; स्यात् = हो ; तत् = वह ; मे = मेरे लिये ; ब्रूहि = कहिये (क्योंकि) ; अहम् = मैं ; ते = आपका ; शिष्य: = शिष्य हूं (इसलिये) ; त्वाम् = आपके ; प्रपन्नम् = शरण हुए ; माम् = मेरेको ; शाधि = शिक्षा दीजिये ;


अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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