गीता 5:25: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>')
 
No edit summary
 
(3 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
<table class="gita" width="100%" align="left">
<table class="gita" width="100%" align="left">
<tr>
<tr>
Line 55: Line 54:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{महाभारत}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{गीता2}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{गीता2}}
{{महाभारत}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>

Latest revision as of 13:50, 4 January 2013

गीता अध्याय-5 श्लोक-25 / Gita Chapter-5 Verse-25


लभन्ते ब्रह्रानिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।
छित्रद्वेधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ।।25।।



जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्रावेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्रा को प्राप्त होते हैं ।।25।।

The seers whose sins have been wiped out, whose doubts have been dispelled by knowledge, whose disciplined mind is firmly established in God and who are actively engaged in the service of all beings, attain Brahma, who is all peace.(25)


क्षीण कल्मषा: = नाश हो गये हैं सब पाप जिनके(तथा ); छिन्नद्वैधा: = ज्ञान करके निवृत्त हो गया है संशय जिनका (और); सर्वभूत हिते रता: संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिनकी; यतात्मान: = एकाग्र हुआ है भगवान् के ध्यानमें चित्त जिनका (ऐसे); ऋषय: = ब्रह्मवेत्ता पुरुष; ब्रह्मनिर्वाणम् = शान्त परब्रह्म को; लभन्ते = प्राप्त होते हैं।



अध्याय पाँच श्लोक संख्या
Verses- Chapter-5

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8, 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 ,28 | 29

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख