इरावती (उपन्यास): Difference between revisions

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==कथावस्तु==
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==भाषा==
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बौद्ध युग के वातावरण को सजीव रूप में अंकित करने का सामथ्ये प्रसाद की [[भाषा]] में हैं। इतिहास युग के अनुरुप सामग्री का संचयन इरावती में हुआ है, यथा -  
बौद्ध युग के वातावरण को सजीव रूप में अंकित करने का सामथ्ये प्रसाद की [[भाषा]] में हैं। इतिहास युग के अनुरुप सामग्री का संचयन इरावती में हुआ है, यथा -  
<blockquote>"एक साथ तृर्य्य, शंख, पटक की मन्दध्वनि से वह प्रदेश गूँज उठा! स्वर्ण-कपाट के दोनों ओर खड़े कवच धारी प्रहरियों ने स्वर्यनिर्मित राजचिन्ह को ऊपर उठा लिया...।"</blockquote>  
<blockquote>"एक साथ तृर्य्य, शंख, पटक की मन्दध्वनि से वह प्रदेश गूँज उठा! स्वर्ण-कपाट के दोनों ओर खड़े कवच धारी प्रहरियों ने स्वर्यनिर्मित राजचिह्न को ऊपर उठा लिया...।"</blockquote>  
;वातावरण
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इससे यह स्पष्ट है कि प्रसाद ने उस युग का विस्तृत अध्ययन किया था। काव्यमयी [[भाषा]] इरावती में संबंध सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक वातावरण को जागृत रखती है। उपन्यास का आरम्भ ही कितना काव्यमय है-  
इससे यह स्पष्ट है कि प्रसाद ने उस युग का विस्तृत अध्ययन किया था। काव्यमयी [[भाषा]] इरावती में संबंध सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक वातावरण को जागृत रखती है। उपन्यास का आरम्भ ही कितना काव्यमय है-  
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इरावती के लिए प्रसाद से कुछ पत्र तैयार किये थे जिनसे यह ज्ञात होता है कि मानवता के भावात्मक विकास की एक रूपरेखा इरावती के निर्माण के समय उनके सपक्ष थी।
इरावती के लिए प्रसाद से कुछ पत्र तैयार किये थे जिनसे यह ज्ञात होता है कि मानवता के भावात्मक विकास की एक रूपरेखा इरावती के निर्माण के समय उनके सपक्ष थी।


 
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Latest revision as of 14:03, 30 June 2017

जयशंकर प्रसाद का अपूर्ण उपन्यास जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद 1940 ई. में हुआ। दो उपन्यासों में प्रसाद ने वर्तमान समाज को अंकित किया है पर इरावती में वे पुन: अतीत की ओर लौट गये है।

बौद्ध धर्म का प्रभाव

इस अधूरे उपन्यास की कथा सामग्री इतिहास से ग्रहण की गयी है। बौद्ध धर्म किसी समय भारत का प्रमुख धर्म रहा है। उसकी करुणा और दया ने राष्ट्र के प्रमुख सम्राटों को प्रभावित किया। धर्म की वाणी घर-घर में गूँजी। लंका, चीन, ब्रह्मा आदि अनेक पड़ोसी देश भी उनसे प्रभावित हुए और बौद्ध धर्म दूर-दूर स्थानों पर अपना मानवीय सन्देश प्रचारित करने में समर्थ हुआ पर सम्राट अशोक के समाप्त होते ही जैसे इस महान् धर्म को पाला मार गया।

कथावस्तु

'इरावती' की मुख्य भूमिका एक महाधर्म की पतनोन्मुख अवस्था से सम्बन्धित है। अम्बात्त्यकुमार बृहस्पति मित्र अपनी हिंसात्मक प्रकृति का प्रकाशन इरावती में स्थल-स्थल पर करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वह अंहिसा का एक विपर्याय बनकर आया है। मौर्य साम्राज्य का यह प्रतिनिधि प्रियदर्शी अशोक की तुलना में उसका विरोधी प्रतीत होता है। इसी प्रकार बदले हुए वातावरण का संकेत करते हुए एक स्थान पर 'इरावती' में जयशंकर प्रसाद ने एक पात्र से कहलाया है -

"धर्म के नाम पर शील का पतन, काम सुखों की उत्तेजना और विलासिता का प्रचार तुम को भी बुरा नहीं लगता न! स्वर्गीय देवप्रिय सम्राट अशोक का धर्मानुशासन एक स्वप्न नहीं था। सम्राट उस धर्म-विजय को सजीव रखना चाहते थे किंतु वह शासकों की कृपा से चलने पावे तब तो! तुम्हारी छाया के नीचे ये व्यभिचार के अड्डे, चरित्र के हत्यागृह और पाखण्ड के उद्गम स्थल हैं........"

देवमन्दिरों में विलासिता का वातावरण धर्म की पतनावस्था को घोषित करता है। मन्दिरों के प्रयोग में नर्तकियों का गायन इसका प्रमाण है। इस अधूरे उपन्यास का गौरव एक ओर यदि इतिहास के माध्यम से सांस्कृतिक पतन के चित्रण में है तो दूसरी ओर उसके परिपुष्ट शिल्प में निहित है।

भाषा

बौद्ध युग के वातावरण को सजीव रूप में अंकित करने का सामथ्ये प्रसाद की भाषा में हैं। इतिहास युग के अनुरुप सामग्री का संचयन इरावती में हुआ है, यथा -

"एक साथ तृर्य्य, शंख, पटक की मन्दध्वनि से वह प्रदेश गूँज उठा! स्वर्ण-कपाट के दोनों ओर खड़े कवच धारी प्रहरियों ने स्वर्यनिर्मित राजचिह्न को ऊपर उठा लिया...।"

वातावरण

इससे यह स्पष्ट है कि प्रसाद ने उस युग का विस्तृत अध्ययन किया था। काव्यमयी भाषा इरावती में संबंध सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक वातावरण को जागृत रखती है। उपन्यास का आरम्भ ही कितना काव्यमय है-

"उसकी आँखें आशाबिहीन सध्या और उल्लभबिहीन उषा की तरह काली और रतनारी थी। कभी-कभी उनमें विद्राह का भ्रम होता, ये जल उठती परंतु फिर जैसे बुझ जाती। वह न बेदना थी न प्रसन्नता...।"

इरावती के लिए प्रसाद से कुछ पत्र तैयार किये थे जिनसे यह ज्ञात होता है कि मानवता के भावात्मक विकास की एक रूपरेखा इरावती के निर्माण के समय उनके सपक्ष थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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